न्यूज़ चैनलों द्वारा टीआरपी हासिल करने के लिए घटिया हथकंडे आज़माने और कंटेंट के स्तर को गिराने के संबंध में अक्सर यह दलील दी जाती है कि बेचारे चैनल भी क्या करें, उन्हें भी तो खाना-कमाना है, गुज़ारा करना है। यानी वे यह काम मजबूरी में कर रहे हैं, वर्ना ऐसा क़तई नहीं करना चाहते। निश्चय ही यह एक बहुत ही वाहियात क़िस्म का तर्क है। उनसे पूछा जा सकता है कि आप चैनल चलाना ही क्यों चाहते हैं, क्या किसी डॉक्टर ने आपसे ऐसा कहा था या दर्शक आपके घर पहुँच गए थे कि आप चैनल लॉन्च कीजिए?
TRP का दुष्चक्र-8: चैनलों का बिज़नेस मॉडल ही दोषपूर्ण?
- मीडिया
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- 29 Mar, 2025

न्यूज़ चैनल शुरू करने वाली अधिकांश कंपनियाँ या व्यापारी इन दोषपूर्ण बिज़नेस मॉडल को समझे बगैर मैदान में उतर पड़ते हैं। नतीजा यह होता है कि कुछ समय बाद वे टीआरपी के दुष्चक्र में फँस जाते हैं या फिर भ्रष्ट रास्तों पर चल पड़ते हैं। वे पेड न्यूज़ का क़ारोबार करने लगते हैं। टीआरपी पर सत्य हिंदी की शृंखला की आठवीं कड़ी में पढ़िए, न्यूज़ चैनलों का बिज़नेस मॉडल कितना सही है...
पूरी दुनिया को यह पता है, कम से कम मीडिया इंडस्ट्री के लोगों को तो भली-भाँति पता है कि न्यूज़ चैनलों के क़ारोबार में घाटा ही घाटा है तो आप इस धंधे में आने से किसी की राय ले लेते। आपको सचाई पता चल जाती तो इस दलदल में पैर फँसाने के बजाय कुछ और कर लेते? एक तो आप जानते-बूझते घाटे वाला क़ारोबार चुनेंगे, फिर उसकी सफलता के लिए तमाम तरह के दंद-फंद करेंगे और इसके बाद तर्क देंगे कि क्या करें, गड़बड़ियाँ करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। आप अपने क़ारोबार के लिए देश, समाज की मानसिक सेहत को दाँव पर नहीं लगा सकते। मीडिया लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है और यह काम बड़े दायित्व का है, आप कोई बहाना बनाकर उससे बच नहीं सकते।