इसमें संदेह नहीं कि नरेंद्र कोहली बहुत शालीन व्यक्ति थे- लेखक के तौर पर मिली अपनी प्रसिद्धि से बहुत अभिभूत भी‌ नज़र नहीं आते थे। बेशक, अंग्रेज़ी में होते तो शायद अमिष त्रिपाठी या चेतन भगत जैसी शोहरत उनके हिस्से भी होती। निस्संदेह वे इन दोनों से कहीं गंभीर लेखक थे, जो शायद हिंदी के साहचर्य ने उन्हें बनाया।
संवाद उनसे मेरा बहुत कम रहा। बरसों पहले 'जनसत्ता' में रहते हुए जब हम‌ व्यंग्य के एक कॉलम की योजना बना रहे थे तो कुछ महीने उनसे नियमित बातचीत होती रही। वह योजना अंततः स्थगित हो गई लेकिन तभी मैंने पाया कि एक लेखक के तौर पर उनमें पर्याप्त विनम्रता थी।‌ मेरी तरह के कनिष्ठ लेखक को उन्होंने बहुत मान दिया था।