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पर्वतमालाओं में गूंजता रहेगा पंडित शिवकुमार शर्मा का संतूर

संतूर के पर्याय शिवकुमार शर्मा का जाना भारतीय संगीत के एक चमकदार नक्षत्र का अनंत में विलीन होने जैसा है। संतूर को उन्होंने जम्मू-कश्मीर के पहाड़ियों से उठाकर अंतरराष्ट्रीय संगीत समागमों में प्रतिष्ठा दिलाई। भारत में जिस समय हार्मोनियम आई तब कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि पश्चिमी वाद्ययंत्र पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के सुर निकाले जा सकते हैं लेकिन ग्वालियर के गनपतराव भैयासाहब ने पिछली शताब्दी की शुरुआत में यह करिश्मा कर दिखाया था। ठीक उसी तरह पंडित शिवकुमार शर्मा ने संतूर पर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की धुनों को निकालकर संगीत मर्मज्ञों को चमत्कृत किया। अन्यथा कोई मिलने को तैयार नहीं था कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की राग रागनियां इस पहाड़ी वाद्ययंत्र में अपनी धुन बिखेर सकती हैं।

पंडित शिवकुमार शर्मा सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी रहे। उनके घुंघराले बालों ने सबके चेहरे पर मुस्कान बिखेरी। जिंदगी के तमाम उतार चढ़ावों से रूबरू हुये पंडित शिवकुमार शर्मा के पिता पंडित उमादत्त शर्मा जम्मू रेडियो स्टेशन पर संगीत पर्यवेक्षक थे। इस तरह संगीत का वातावरण घर में बचपन से मिला। थोड़े से बड़े हुए तो पंडित शिवकुमार शर्मा को तबला सिखाया गया और इसके बाद उन्होंने संतूर सीखने में मन लगाया। पंडित शिवकुमार शर्मा की मातृभाषा डोगरी थी।   

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सन् 1955 में बम्बई के स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन में पहली बार उनकी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए बड़ा मंच मिला तब शिवकुमार शर्मा सत्रह वर्ष के थे। लोग उनकी प्रतिभा को देखकर चमत्कृत तो हुए लेकिन मर्मज्ञ श्रोताओं का एक वर्ग यह मानने को तैयार नहीं था कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियां इस वाद्ययंत्र में गूंज सकती हैं। शिवकुमार शर्मा ने इसे चुनौती के रूप में लिया। संतूर में कुछ बदलाव किया और जिसे असंभव माना जा रहा था उसे संभव कर दिखाया। अट्ठाईस साल की उमर में उन्होंने मनोरमा देवी के साथ संसार बसाया। उनके बेटे राहुल पिता की तरह सृजन यात्रा को निरंतरता दिये हुये हैं। 

बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के साथ पं शिवकुमार शर्मा की जुगलबंदी लम्बे समय तक चली। एल्बम भी बनाये और फिल्मों के लिये धुन भी दी। सही बात तो यह है कि यदि फिल्मों में काम न मिला होता तो शिवकुमार शर्मा के लिए भूखों मरने की नौबत आ जाती। एक समय ऐसा भी था जब उनकी जेब में महज एक आना रहता था। सुबह की रोटी मिल गई तो शाम की चिंता रहती थी और शाम की मिल गई तो सुबह की। सिनेमा ने उन्हें इस संकट से मुक्त किया।

सन् 1960 की गर्मियों में बम्बई आने के बाद फिर उन्होंने इस शहर को नहीं छोड़ा। जिन फिल्मों से खासतौर से उनके संगीत को और संतूर को पहचान मिली उनमें वी.शान्ताराम की झनक झनक पायल बाजे (1956), सिलसिला (1980), फासले (1985), चांदनी (1989), लम्हे (1991), डर (1993) प्रमुख हैं। 
सिनेमा ने जिस तरह संतूर के इस पर्याय की रोजी रोटी का बंदोबस्त किया उसे देखते हुए हमें कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता 'गीत फरोस' की याद आती है।

भवानी बाबू ने अपनी बहन के हाथ पीले करने के लिए सिनेमा के लिए गीत लिखे थे जिसे लेकर आलोचकों ने भारी बितंडा खड़ा किया जिसके बाद भवानी बाबू की यह कविता गीत फरोस सामने आई। हालांकि पंडित शिवकुमार शर्मा मानते रहे कि सिनेमा के लिए संगीत तैयार करना कोई आसान काम नहीं है। किसी संगीत समारोह में अपने ढंग से संतूर बजाना अलग बात है जबकि सिनेमा के लिए संगीत देते समय पटकथा, पृष्ठभूमि और वातावरण का ध्यान रखना होता है। 

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मुम्बई की जिस महफिल से पंडित शिवकुमार शर्मा को पहचान मिली उसमें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक से एक बड़े दिग्गज मौजूद थे। बड़े गुलाम अली खान, बांसुरी वादक पंडित पन्नालाल घोष, सितार के पर्याय पंडित रविशंकर व उस्ताद बिलायत खान। तब किसी को क्या पता था कि एक दिन पंडित शिवकुमार शर्मा संतूर की धुनों से समूची दुनिया के संगीत रसिकों को मंत्रमुग्ध करेंगे। भूमंडल पर शायद ही कोई कन्सर्ट हाॅल हो जहां पंडित शिवकुमार शर्मा ने कश्मीर के इस लोकवाद्य को पहचान न दिलाई हो। आज पंडित शिवकुमार के बाद भजन सोपोरी संतूर को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिला रहे हैं। 

शिवकुमार शर्मा की जीवनयात्रा को अगर समझना है तो जब्बार पटेल के निर्देशन में बनी सत्तर मिनट की फिल्म 'अंतर्ध्वनी' को देखना होगा या फिर इना पुरी की लिखी किताब 'जर्नी विथ द हन्ड्रेड स्ट्रिंग- माई लाइफ इज म्यूजिक' को पढ़ना होगा। संतूर की धुनों को कश्मीर की वादियों से उठाकर पंडित शिवकुमार शर्मा ने दुनियाभर में बिखेर दिया है। मधुमन्ती, पुरिया कल्याण और विलक्षणी तोडी जैसे कई राग श्रोताओं के हृदय में निरंतर झंकृत होकर पंडित शिवकुमार शर्मा और उनके संतूर की याद दिलाते रहेंगे।

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जयंत सिंह तोमर
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