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अनुच्छेद 370 का अंत, एक रास्ता आधा खुला, दूसरा पूरा बंद

अनुच्छेद 370 पर विशेष : पिछले 69 सालों में अनुच्छेद 370 एक ऐसा शेर बनकर रह गया है जिसके दाँत और नाखून निकाल लिए गए हैं। लेकिन कुछ ताक़तें हैं जो चाहती हैं कि इस नखदंतविहीन शेर का भी अस्तित्व न रहे। परंतु उनकी समस्या यह है कि भारतीय संविधान में इस शेर की हत्या का कोई प्रावधान नहीं है। उसको केवल दयामृत्यु दी जा सकती है लेकिन वह भी तब जब राज्य की संविधान सभा इसकी इजाज़त दे। परंतु संविधान सभा तो जनवरी 1957 में विसर्जित हो गई। फिर अनुमति कौन देगा? प्रस्तुत है कश्मीर सीरीज़ की छठी और आख़िरी किस्त।
नीरेंद्र नागर
26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय के लिए जिस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे, उस में यह शर्त थी कि जम्मू-कश्मीर विलय के बाद भारतीय संघ का एक घटक राज्य होते हुए भी ‘स्वायत्त’ रहेगा। उस शर्त के मुताबिक़ ही भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 डाला गया जिसमें राज्य की ‘स्वायत्तता’ के साथ-साथ इस बात की भी गारंटी थी कि यह अनुच्छेद तब तक संविधान में बना रहेगा जब तक जम्मू-कश्मीर राज्य की संविधान सभा इसे ख़त्म करने की सिफ़ारिश न करे।अनुच्छेद 370 के खंड 3 में लिखा है -इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित ही और ऐसी तारीख़ से, प्रवर्तन में रहेगा, जो वह विनिर्दिष्ट करे: परंतु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले खंड (2) में निर्दिष्ट उस राज्य की संविधान सभा की सिफ़ारिश आवश्यक होगी।
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अब समस्या यह है कि अनुच्छेद 370 तो अब भी जीवित है, अधिसूचना जारी करने में सक्षम भारत के राष्ट्रपति भी अपने पद पर हैं लेकिन इसे समाप्त करने की सिफ़ारिश करने वाली संविधान सभा अब नहीं है। 17 नवंबर 1956 को राज्य के संविधान को मंज़ूरी देने और  25 जनवरी 1957 को अपनी आख़िरी बैठक करने के बाद संविधान सभा विसर्जित हो गई। विसर्जन से पहले उसने राष्ट्रपति से ऐसी कोई सिफ़ारिश नहीं की कि अनुच्छेद 370 अब ख़त्म कर दिया जाए। स्पष्ट है कि राज्य में शेख़ अब्दुल्ला के जो उत्तराधिकारी थे, वे चाहते थे कि यह अनुच्छेद बना रहे।
जो लोग इस अनुच्छेद को समाप्त होते देखना चाहते हैं, उन्हें जब समझ में नहीं आया कि अनुच्छेद 370 के इस प्रावधान के रहते उसे कैसे समाप्त किया जा सकता है तो वे अपनी अर्ज़ी लेकर कोर्ट में गए। लेकिन कोर्ट ने भी यही कहा कि अनुच्छेद 370 अब स्थायी हो गया है।
जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने अक्टूबर 2015 में कहा कि अनुच्छेद 370 ने स्थायी रूप धारण कर लिया है और उसमें न सुधार किया जा सकता है, न रद्द किया जा सकता है, न ही समाप्त किया जा सकता है। कोर्ट ने इस धारणा के पक्ष में वही बात कही जिसका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। अनुच्छेद 370 के खंड 3 का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा -
‘(खंड 3 के अनुसार) संविधान सभा की सिफ़ारिश के आधार पर ही राष्ट्रपति कोई सार्वजनिक अधिसूचना जारी करके यह घोषणा कर सकता है कि अनुच्छेद 370 अब से लागू नहीं रहेगा या फलाँ तारीख़ से कुछ अपवादों या संशोधनों के साथ लागू रहेगा। लेकिन संविधान सभा ने 25 जनवरी 1957 को ख़ुद को भंग करने से पहले ऐसी कोई सिफ़ारिश ही नहीं की। नतीजतन भले ही इस अनुच्छेद के शीर्षक में ‘अस्थायी प्रावधान’ लिखा हो, लेकिन अब यह संविधान का एक स्थायी प्रावधान बन गया है। इसे न तो संशोधित किया जा सकता है, न रद्द किया जा सकता है, न ही समाप्त किया जा सकता है क्योंकि ऐसा करने के लिए ज़रूरी संवैधानिक व्यवस्था अब उपलब्ध ही नहीं है।’
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कोर्ट ने यह भी कहा कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुच्छेद 368 का उपयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि वह अनुच्छेद 370 को नियंत्रित नहीं करता। कोर्ट के अनुसार जम्मू-कश्मीर पर ‘स्वतंत्र रूप से’ संविधान का केवल एक अनुच्छेद लागू होता है और वह है अनुच्छेद 370। इसके अलावा अनुच्छेद 1 भी लागू होता है लेकिन वह भी अनुच्छेद 370 के तहत ही लागू होता है।जम्मू-कश्मीर कोर्ट की यही धारणा सुप्रीम कोर्ट ने भी अप्रैल 2018 में दोहराई जब उसकी दो सदस्यीय पीठ ने कहा

‘…चूँकि राज्य संविधान सभा अब अस्तित्व में नहीं है इसलिए राष्ट्रपति इस अनुच्छेद की समाप्ति के लिए ज़रूरी शर्त को पूरा करने की स्थिति में नहीं है।’

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लेकिन इसके संबंध में अंतिम फ़ैसला अभी आना बाक़ी है। सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए, दोनों के मामलों में सुनवाई कर रहा है। इन दोनों मामलों में निर्णय कब आएगा, कहना मुश्किल है। अनुच्छेद 35ए पर एक मामला सुप्रीम कोर्ट में 2014 से चल रहा है। जब इसपर कोर्ट ने  केंद्र सरकार की राय पूछी तो पिछली एनडीए सरकार ने सलाह-मशविरा करने के नाम पर छह-छह महीने करके छह एक्सटेंशन लिए और फिर सातवीं डेट पर कह दिया कि इस बारे में हमारी कोई राय नहीं है।इसका कारण यह था कि उस समय राज्य में बीजेपी, पीडीपी के साथ साझा सरकार में थी। अब ऐसी बात नहीं है। और गृह मंत्री अमित शाह कह भी चुके हैं कि अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया जाना चाहिए। तो क्या 370 के साथ-साथ 35ए पर भी केंद्र का रुख बदलेगा? यह कहना मुश्किल है क्योंकि अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर राज्य के लोगों को ज़मीन ख़रीदने और नौकरियों में भर्तियों के मामलों में कुछ विशेषाधिकार देता है जिसका फ़ायदा वहाँ के हिंदू, मुसलिम और बौद्ध सभी लोगों को मिलता है। राज्य में 35ए को हटाने का भारी विरोध है।
अब सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट तो जब फ़ैसला करेगा, तब करेगा। हो सकता है, उसका फ़ैसला एक साल में आए, हो सकता है, पाँच साल में भी न आए। और जब आए तो भी क्या गारंटी कि वह पक्ष में ही आए। अगर यह फ़ैसला विरोध में आया तो क्या होगा? क्या तब भी केंद्र की एनडीए सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी? क्या वह कुछ नहीं कर सकती? और अगर नहीं कर सकती तो वह अपने घोषणापत्र में इसका उल्लेख ही क्यों करती है कि वह अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए को ख़त्म करेगी?

ताला तोड़ना मना हो तो डिब्बा ही तोड़ दो

क़ानून के कुछ जानकारों का मत है कि संविधान में चाहे जो लिखा हो, अनुच्छेद 370 चाहे जो कहता हो लेकिन एक तरीक़ा है जिससे इसे समाप्त किया जा सकता है और वह है संविधान संशोधन का तरीक़ा। लोहे से लोहे को काटने का तरीक़ा। काँटे से काँटा निकालने का तरीक़ा। इस मत के समर्थकों की दलील यह है कि अगर किसी डिब्बे के ऊपर लिखा हो कि इसका ताला खोलना या तोड़ना मना है तो ताले को हाथ ही मत लगाओ, डिब्बा ही तोड़ दो। डिब्बा तोड़ने की मनाही तो नहीं है।दूसरे शब्दों में इसे यूँ समझें कि अनुच्छेद 370 भी आख़िरकार संविधान का ही हिस्सा है और संविधान को संशोधित करने का अधिकार संसद को है। इसलिए जिस तरह अब तक संसद ने संविधान के अनेकों प्रावधानों को संशोधित किया है, वैसे ही अनुच्छेद 370 को भी संशोधित कर दिया जाए और जिस प्रावधान के तहत उसे अमरत्व मिला है, उस प्रावधान को ही समाप्त कर दिया जाए।
संविधान में संशोधन तीन तरीक़ों से हो सकता है और वह निर्भर करता है कि मामला किस विषय से संबंधित है। कुछ मामलों में संशोधन सामान्य बहुमत से ही हो सकता है तो कुछ और मामलों में दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत पड़ती है। कुछ और मामले जो राज्यों के अधिकारों से संबंध रखते हैं, उनमें संसद में दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ देश के आधे से ज़्यादा राज्यों की रज़ामंदी भी चाहिए। आख़िर के दो प्रकार के संशोधन अनुच्छेद 368 के तहत किए जा सकते हैं।
अनुच्छेद 370 में संशोधन के लिए किस विधि से संशोधन करना पड़ेगा, यह कहना बहुत-बहुत मुश्किल है, ख़ासकर ऐसी स्थिति में जबकि जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट कह चुका है कि संविधान संशोधन के तरीक़े बताने वाला अनुच्छेद 368, अनुच्छेद 370 पर लागू ही नहीं होता।
लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को उलट भी दे और कह दे कि अनुच्छेद 368 के तहत अनुच्छेद 370 को बदला जा सकता है तो भी संसद में एनडीए को उतना बहुमत नहीं है। दूसरी बात, एनडीए में कुछ साथी ऐसे भी हैं जो अनुच्छेद 370 को हटाने के समर्थक नहीं हैं। जहाँ तक राज्यसभा की बात है, वहाँ तो फ़िलहाल सामान्य बहुमत भी नहीं है, दो-तिहाई बहुमत तो दूर की बात है। यानी आज की तारीख़ में अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का कोई भी तरीक़ा नहीं है। इसके 2 कारण हैं। कारण 1. अनुच्छेद 370 के मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक़ यह तभी समाप्त या संशोधित हो सकता है जब राज्य की संविधान सभा इसकी इजाज़त दे और राज्य की संविधान सभा जनवरी 1957 में ही काल कवलित हो चुकी है तो इजाज़त कौन देगा? जब बाँस ही नहीं रहा तो बाँसुरी कैसे बजेगी? कारण 2 - संविधान संशोधन के ज़रिए (शायद) उसके प्रावधानों को बदला जा सकता है या उसे समाप्त किया जा सकता है लेकिन उसके लिए ज़रूरी दो-तिहाई बहुमत एनडीए के पास नहीं है। यानी घर में नहीं दाने, अमित शाह चले भुनाने!
अनुच्छेद 370 ख़त्म हो सकता है या नहीं हो सकता, इसपर आज हमने बात की। (इसके बारे में और जानकारी आपको इस आर्टिकल के अंत में दिए गए वीडियो से भी मिल सकती है जिसमें संविधान विशेषज्ञ राकेश कुमार सिन्हा से आशुतोष ने बात की है।) लेकिन विदा लेने  से पहले हमें एक नैतिक सवाल पर विचार करना होगा।

क्या 1947 का वचन तोड़ देना चाहिए?

कश्मीर के भारत से विलय पर 6 हिस्सों की यह सीरीज़ यहीं समाप्त होती है। लेकिन जाते-जाते मैं एक सवाल करना चाहता हूँ। यदि आप सोचने-विचारने वाले व्यक्ति हैं तो इसपर शांति से विचार कीजिएगा। सवाल है - अगर अनुच्छेद 370 को संवैधानिक और क़ानूनी तौर पर समाप्त किया जाना संभव हो तो भी क्या उसे जम्मू-कश्मीर राज्य की जनता की इजाज़त के बिना समाप्त किया जाना चाहिए?
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मैं यह सवाल यहाँ इसलिए उठा रहा हूँ कि अगर हम ऐसा करेंगे तो हम उस ‘वचन’ को तोड़ रहे होंगे जो हमने राज्य का विलय स्वीकार करते हुए औपचारिक रूप से महाराजा हरि सिंह और अनौपचारिक रूप से वहाँ की जनता और उसके सबसे लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला को दिया था (पढ़ें - स्वायत्तता विलय पत्र का अंतरंग हिस्सा है)
आज जो लोग कह रहे हैं कि क्यों जम्मू-कश्मीर के लिए अलग से अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए हैं, उनको समझना चाहिए कि ये सब उस विलय पत्र की देन हैं जो अक्टूबर 1947 में राजा हरि सिंह ने पेश किया था और जिसे भारत सरकार ने स्वीकार किया था।भारत के सामने उस समय दो विकल्प थे। वह या तो शर्तों वाला यह विलय स्वीकार करता या नहीं करता। यदि नहीं करता तो पूरा जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा हो जाता। क्या वह बेहतर होता? कुछ लोग कह सकते हैं, हाँ, क्योंकि क्या पता, उसके बाद भारत-पाक ‘भाई-भाई की तरह शांति और प्रेम’ के साथ रह सकते थे; लेकिन कई लोग इससे घोर असहमत हो सकते हैं।
दूसरा विकल्प यह था कि शर्तों के साथ कश्मीर को भारत का अंग बनाया जाता। वही किया गया और ‘विलयरूपी इस विवाह’ के समय भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के महाराजा के मार्फ़त वहाँ की जनता को कुछ वचन दिए गए। अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए में वही वचन लिखे हुए हैं। लेकिन कई लोग हैं जो चाहते हैं कि भारत सरकार द्वारा दिए गए इन वचनों को तोड़ दिया जाए।
क्या भारत को ऐसा करना चाहिए? उस भारत को जहाँ पिता के वचनों को पूरा करने वाले राम की न केवल मिसाल दी जाती है बल्कि उनकी पूजा भी की जाती है?आज़ाद भारत की पहली सरकार द्वारा दिए गए 'वचनों' को निभाने की ज़िम्मेदारी क्या आज के भारत को शासकों की नहीं है जो संयोग से ख़ुद को राम का परम भक्त भी बताते हैं? सोचिएगा।
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