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अमेरिका में यह तसवीर दिखी थी। (फाइल फोटो)

क्यों बीजेपी नेता बन रहे हैं बुलडोज़र बाबा?

भारतीय राजनीति का एक दौर वह भी था जब राजनेता, जनता के समक्ष एक विनम्र, उदार, सज्जन व मृदुभाषी नेता के रूप में अपनी छवि बनाकर रखना चाहते थे। उनकी कोशिश होती थी कि उनकी वाणी, आचरण तथा कार्यशैली से भी ऐसा ही संदेश जनता तक पहुंचे। यही वजह थी कि ऐसे राजनेता समाज के हर वर्ग में समान रूप से लोकप्रिय हुआ करते थे। परन्तु समय बीतने के साथ-साथ न केवल राजनीति का स्वरूप बदलता गया बल्कि राजनेताओं की कार्यशैली, उनके स्वभाव, उनकी नीयत व नीतियों में भी काफ़ी बदलाव देखा जाने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि आज के राजनेता स्वयं को विनम्र, उदार, सज्जन व मृदुभाषी नेता रूप में पेश करने के बजाये उग्र, आक्रामक, कटु वचन यहाँ तक कि विभाजनकारी बोल बोलने वाला एवं दबंग नेता के रूप में पेश करने लगे हैं।

आज अनेक जनप्रतिनिधि सार्वजनिक सभाओं में खुलेआम ग़ैर संवैधानिक बातें करते, अपने समर्थकों को धर्म व जाति विशेष के लोगों के विरुद्ध हिंसा के लिये उकसाते, ज़हर उगलते तथा विद्वेष फैलाते देखे जा सकते हैं। देश की अदालतें भी इनकी 'हेट स्पीच' से परेशान हैं और कई बार इनपर तल्ख़ टिप्पणियाँ भी कर चुकी हैं। परन्तु सत्ता के संरक्षण, मीडिया द्वारा ऐसे नेताओं के महिमामण्डन तथा उन्हें शोहरत के शिखर तक पहुँचाने से ऐसे नेताओं को नियंत्रित करने के बजाये उल्टे इन्हें शह मिल रही है और ऐसे नेताओं की तादाद दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

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राजनीति के इसी अंदाज़ ने शासन व्यवस्था में भी अपनी जगह बना ली है। ठोक देंगे, गर्मी निकाल देंगे, खंडहर बना देंगे जैसी तीसरे दर्जे की भाषा का इस्तेमाल अब संवैधानिक पदों पर बैठे राजनेताओं द्वारा किया जाने लगा है। और आक्रामकता के इसी क्रम में जेसीबी यानी बुलडोज़र का भी प्रवेश हो चुका है। किसी अपराध के आरोपी या आरोपियों का मकान, दुकान या किसी धर्मस्थान आदि कुछ भी ढहा देना किसी भी सरकार या शासन के लिये अब आम बात बनती जा रही है।

हालाँकि पूर्व में भी अवैध इमारतों के गिराये या ढहाये जाने की कार्रवाइयाँ होती रही हैं। परन्तु इसके लिये सरकार या संबंधित विभाग को पूरी क़ानूनी प्रक्रिया के दौर से गुज़रना होता है। परन्तु अब तो अदालती आदेशों के बिना ही किसी भी संदिग्ध या आरोपी व्यक्ति का भवन आनन-फ़ानन में खंडहर कर देना किसी सरकार के लिये मामूली बात हो गयी है। और यदि ज़्यादा शोर-शराबा हो तो सरकार उसे अवैध निर्माण बता देती है। साथ ही यह संदेश देने की भी कोशिश करती है कि सरकार अपराधियों के प्रति सख़्त है और अपराध के विरुद्ध ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपना रही है।

उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ बुलडोज़र का ध्वस्तीकरण अभियान मध्य प्रदेश होते हुए दिल्ली, गुजरात, असम और राजस्थान सहित कई राज्यों तक पहुँच चुका है। दंगाइयों व उपद्रवियों के नाम पर आरोपियों के मकान गिराये जा रहे हैं। 
किसी को अपने नाम के साथ 'बुलडोज़र बाबा’ लिखे जाने में गर्व है तो कोई 'बुलडोज़र मामा’ की उपाधि से ख़ुश है। हद तो यह कि राजनेताओं की आक्रामक छवि बनाने के लिये उनकी फ़ोटो के साथ बुलडोज़र के चित्र छपे बड़े-बड़े फ़्लेक्स बड़े-बड़े शहरों के मुख्य मुख्य चौराहों पर लगाये जाने लगे हैं।

इस तरह के इश्तहारों के माध्यम से भी यही सन्देश दिया जाता है कि देखो उनका नेता कितना सख़्त व दबंग है। 

इन नेताओं के समर्थक विदेशों में भी बुलडोज़र पर अपने 'बुलडोज़री नेता' के आदम क़द चित्र लगाकर जुलूस निकाल रहे हैं। इतना ही नहीं, ब्रिटेन के प्रधाननमंत्री बोरिस जॉनसन ने जब इसी वर्ष 20-21 अप्रैल को भारत का दो दिवसीय दौरा किया तो उन्हें भी अपने भारत दौरे के दूसरे दिन यानी 21 अप्रैल को गुजरात के वड़ोदरा स्थित एक निजी जेसीबी (बुलडोज़र) कम्पनी का दौरा कराया गया और उनका बुलडोज़र पर लटके हुए एक विवादित फ़ोटो शूट कराया गया जिसकी देश-विदेशों में बहुत आलोचना भी हुई।

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अपराधियों के प्रति सख़्ती से पेश आना निश्चित तौर पर बहुत ज़रूरी है। परन्तु आरोपी व अपराधी में अंतर रखना भी बहुत ज़रूरी है। निष्पक्ष होना भी ज़रूरी है। किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष के प्रति शासक व शासन द्वारा दुराग्रह रखना भी न्याय संगत नहीं। और ख़ास तौर से ऐसा करते समय पूरी क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करने के साथ-साथ संबंधित पक्ष के सभी सदस्यों के मानवाधिकारों की रक्षा करना भी बेहद ज़रूरी है। मध्य प्रदेश में तो एक ऐसा मामला भी सामने आया कि धर्म विशेष से सम्बन्ध रखने वाले दंगे के एक आरोपी के जिस मकान को गिराया गया वह उसका मकान भी नहीं था बल्कि वह उस मकान में किराये पर रहता था। इससे बड़ा अन्याय या शासकीय पूर्वाग्रह पूर्ण ज़ुल्म और क्या हो सकता है।

यदि मान लिया जाये कि शासन की नज़र में कोई आरोपी ही वास्तविक अपराधी भी है तो भी उसका मकान ध्वस्त कर, उसके माँ-बाप-भाई-बहन व पत्नी बच्चों को भी घर से बेघर कर देना, यह क़ानून की किस किताब में लिखा है? सरकार व क़ानून का काम अपराधी को सज़ा देना है न कि उसके पूरे परिवार को? परन्तु आश्चर्य है कि ऐसे पूर्वाग्रही शासक जो ग़रीब को रोज़गार मुहैय्या नहीं करा सकते, बेघर को घर नहीं दे सकते वे मात्र अपनी आक्रामक छवि स्थापित करने की ख़ातिर सरकारी मशीनरी का सहारा लेकर आनन फ़ानन में किसी को अपराधी बता कर उसका मकान ध्वस्त कर डालते हैं। भले ही वह मकान आरोपी या अपराधी के नाम है अथवा नहीं!

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संभव है कि राजनीति के वर्तमान अंधकारमय युग में दबंग या आक्रामक छवि निर्माण करना और इसके माध्यम से किसी वर्ग विशेष को आहत करते हुए किसी दूसरे वर्ग को ख़ुश करना सस्ती राजनीति की ज़रूरत बन चुकी हो। परन्तु अपनी ऐसी दबंग आक्रामक छवि बनाने के लिये क़ानून, अदालत व मानवाधिकारों को ठेंगा दिखाना क़तई न्याय संगत नहीं।

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निर्मल रानी
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