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सरकारी कर्मचारियों के लिए क्यों सबक है किसान आंदोलन? 

जब किसी संगठित और संकल्पित आंदोलित समूह का मक़सद साफ हो, उसके नेतृत्व में चारित्रिक बल हो और आंदोलनकारियों में धीरज हो तो उनके सामने सत्ता को अपने कदम पीछे खींचने ही पड़ते हैं, ख़ास कर ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, जिनमें वोटों के खोने का डर किसी भी सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन में सिहरन पैदा कर देता है। 

देश की खेती-किसानी से संबंधित तीन विवादास्पद कानूनों को रद्द किए जाने का फ़ैसला बताता है कि देश की किसान शक्ति ने सरकार के मन में यह डर पैदा करने में कामयाबी हासिल की है।

ऐतिहासिक उपलब्धि

किसान आंदोलन की यह जीत न सिर्फ सरकार के ख़िलाफ़ बल्कि कॉरपोरेट घरानों की सर्वग्रासी और बेलगाम हवस के ख़िलाफ़़ भी एक ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल होने का क्षण है, जिसके दूरगामी प्रभाव अवश्यम्भावी है।

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यह जीत रेलवे, दूरसंचार, बैंक, बीमा आदि तमाम सार्वजनिक और संगठित क्षेत्र के उन कामगार संगठनों के लिए एक शानदार नजीर और सबक है, जो प्रतिरोध की भाषा तो खूब बोलते हैं, लेकिन कॉरपोरेट के शैतानी इरादों से लड़ने और और उनके सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पाते हैं।

उनकी इसी कमजोरी की वजह से सरकार एक के बाद एक सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उपक्रम अपने चहेते कॉरपोरेट महाप्रभुओं के हवाले करती जा रही है। 

कॉरपोरेट जगत का दबाव

डेढ़ साल पहले सरकार ने इन तीनों कानूनों को बनाने में जिस तरह अभूतपूर्व हड़बड़ी दिखाई थी, उसके मद्देनज़र उसके लिए अपने कदम पीछे खींचने के इस फ़ैसले तक पहुँचना आसान नहीं रहा होगा। सब जानते है कि कृषि क्षेत्र में तथाकथित 'सुधार’ लागू करने के लिये सरकार पर देश के सर्वग्रासी कॉरपोरेट जगत का कितना दबाव था।

 डेढ़ साल पहले जब दुनिया के तमाम देशों की सरकारें कोरोना महामारी से निबटने में लगी हुई थी, तब भारत सरकार उस महामारी से मची अफरातफरी के शोर में देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर खेती को कॉरपोरेट के हवाले करने का ताना-बाना बुन रही थी।

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श्रम सुधार

यही नहीं, उसी दौरान वह श्रम सुधार के नाम पर कॉरपोरेट के हित में श्रम कानूनों को बदलने के अपने इरादों को भी मूर्त रूप दे रही थी। इस सिलसिले में उसने पहले तो अध्यादेश जारी किए और फिर तीन महीने बाद संसद के जरिए उन अध्यादेशों को कानून की शक्ल देने के लिए तमाम संसदीय नियम-कायदों और परंपरा की अनदेखी कर जोर-जबरदस्ती का सहारा लिया। 

देश के कॉरपोरेट महाप्रभुओं को सरकार चला रहे अपने शुभचिंतकों की वफादारी पर इतना भरोसा था कि एक बड़े कॉरपोरेट घराने ने तो कृषि कानूनों के बनने की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही अनाज संग्रहण की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं।

युद्ध स्तर पर तैयार हुए उसके विशालकाय अनाज गोदामों के कई फोटो और वीडियो डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए सामने आ चुके थे, जो इस बात की तसदीक करते थे कि देश की समूची खेती-किसानी पर काबिज होने के लिए बड़े कॉरपोरेट घराने कितने बेताब हैं। 

कॉरपोरेट जगत की हार

दरअसल, तीनों कृषि कानूनों को अपनी मौत का परवाना मान रहे किसानों के आंदोलन ने जिस द्वंद्व की शुरुआत की थी, उसमें वैसे तो सामने सरकार थी, लेकिन परोक्ष में कॉरपोरेट शक्तियाँ भी थीं।

इसलिए कृषि क़ानूनों को रद्द करने का फ़ैसला सरकार की ही नहीं बल्कि जिनके लिए वह रात-दिन काम कर रही है, उन कॉरपोरेट घरानों की और हाल के वर्षों में हावी हुई कॉरपोरेट संस्कृति की भी करारी हार है।

भूमि अधिग्रहण क़ानून

पिछले सात साल के दौरान सरकार और कॉरपोरेट घरानों की यह दूसरी बड़ी शिकस्त है। इससे पहले 2014 में धूम-धड़ाके से प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी जब संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आए थे तब भी उन्हें विपक्षी दलों और किसान संगठनों के भारी विरोध का सामना करते हुए अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। उस समय भी इस विधेयक को पेश करने के पहले सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी किया था, जैसे पिछले साल कृषि कानूनों को लेकर किया गया था।

यूपीए सरकार के समय बने कानून में भूमि अधिग्रहण के लिए 80 फ़ीसदी किसानों की सहमति अनिवार्य थी। भूमि अधिग्रहण के नए प्रस्तावित कानून में निजी और सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण आसान बनाने के लिए किसानों की सहमति का प्रावधान ख़त्म कर दिया गया था। 

सरकार के इस अध्यादेश का किसानों और खेत मजदूरों के संगठनों के साथ ही विपक्षी दलों ने भी कांग्रेस की अगुवाई में एकजूट होकर विरोध किया था। इस विरोध को नजरअंदाज करते हुए सरकार ने उस अध्यादेश को क़ानूनी शक्ल देने के लिए संसद में विधेयक पेश किया था। 

चूंकि लोकसभा में सरकार के पास पर्याप्त बहुमत था इसलिए वहां तो वह असहमति की आवाज को अनसुना करते हुए विधेयक पारित कराने में कामयाब हो गई थी, लेकिन राज्यसभा में वह ऐसा नहीं कर सकी थी, क्योंकि वहां वह बहुमत से काफी दूर थी।

उसने विपक्षी दलों में फूट डाल कर बहुमत जुटा लेने की उम्मीद के चलते चार बार अध्यादेश जारी किया, लेकिन बहुमत जुटाने की उसकी तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। आखिरकार 31 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने वह विवादास्पद विधेयक वापस लेने का ऐलान किया। उस समय भी उन्होंने अपने 'मन की बात’ कार्यक्रम में उस विधेयक को लेकर नाटकीय अंदाज में ऐसा ही भावुक भाषण दिया था, जैसा कि इस बार कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान करते हुए दिया।

आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश

सरकार की ओर से किसान आंदोलन को बदनाम करने और उसे तोड़ने के लिए क्या-क्या नहीं कहा और किया गया! प्रधानमंत्री मोदी ने आंदोलनकारी किसानों को आंदोलनजीवी और परजीवी कहा। 

सरकार के किसी मंत्री ने किसानों को खालिस्तानी कहा, तो किसी ने माओवादी, किसी ने पाकिस्तानी, किसी ने देशद्रोही, किसी ने टुकड़े-टुकड़े गैंग और किसी ने गुंडा-मवाली कहा।

आरोप लगाए गए कि यह आंदोलन विदेशी ताकतों के इशारे पर और विदेशी आर्थिक मदद से चल रहा है, जिसका मकसद देश के विकास बाधित और सरकार को अस्थिर करना है। 

कुचलने की कोशिश

आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली में आने से रोकने के लिए कांटेदार तार बिछाए गए, सड़कों पर कीलें ठोंके गए, खाइयाँ खोदी गईं, किसानों पर लाठियां बरसाई गईं, कड़कड़ाती सर्दी में उन ठंडा पानी फेंका गया, उनके ट्रैक्टर और अन्य वाहन जब्त किए गए। यही नहीं, उन्हें वाहन से कुचल कर मारा भी गया।

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दिल्ली की सीमाओं पर अहिंसक तरीके से आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस की मौजूदगी में सत्तारूढ़ दल से जुड़े गुंडों ने हमला किया। उनके तंबुओं पर पथराव किया गया, उनमें आग लगाने की कोशिशें की गईं। 

पिछले एक वर्ष से जारी किसानों का यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में संभवत: इतना लंबा चलने वाला पहला ऐसा आंदोलन है, जो हर तरह की सरकारी और सरकार प्रायोजित गैर सरकारी हिंसा का सामने करते हुए भी आज तक पूरी तरह अहिंसक बना हुआ है। हालांकि इसको हिंसक बनाने के लिए सरकार की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी गई है।तमाम तरह से उकसावे की कार्रवाई हुई है, लेकिन आंदोलनकारियों ने गांधी के सत्याग्रह का रास्ता नहीं छोड़ा है। यही नहीं, इस आंदोलन ने सांप्रदायिक और जातीय भाईचारे की भी अद्भुत मिसाल कायम की है, जिसे तोड़ने की सरकार की तमाम कोशिशें भी नाकाम रही हैं।  

सत्ता-शिखर के मन में डर

किसानों ने एक साल से जारी अपने आंदोलन के दौरान सत्ता-शिखर के मन में जो डर पैदा किया है, वह डर निजीकरण की आंच में झुलस रहे सार्वजनिक क्षेत्र के आंदोलित कर्मचारी नहीं पैदा कर पाए हैं। इसकी वजह यह है कि सत्ता में बैठे लोग और उनके चहेते कॉरपोरेट घराने इन कर्मचारियों के पाखंड और भीरुता को अच्छी तरह समझते हैं। 

वे जानते हैं कि दिन में अपने दफ्तारों के बाहर खड़े होकर नारेबाजी करने वाली बाबुओं की यह जमात शाम को घर लौटने के बाद अपने-अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर सत्ताधारी दल के हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मसजिद, गाय-गोबर, श्मशान-कब्रस्तान, जिन्ना, पाकिस्तान जैसे तमाम प्रपंचों को हवा देने वाले व्हाट्सएप संदेशों, टीवी की चैनलों की बकवास या फूहड कॉमेडी शो में रम जाएंगी। 

'विकल्प क्या है' और 'मोदी नहीं तो कौन' जैसे सवालों का नियमित उच्चारण करने में आगे रहने वाले ये कर्मचारी अपने आंदोलन रूपी कर्मकांड से किसी भी तरह का डर सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन नहीं जगा पाए हैं।

यही हाल नोटबंदी और जीएसटी की मार से कराह रहे छोटे और मझौले कारोबारी तबके का भी है। इसे हम राजनीतिक फलक पर शहरी मध्य वर्ग के उस चारित्रिक पतन से भी जोड़ सकते हैं जो उन्हें उनके हितों से तो वंचित कर ही रहा है, उसकी भावी पीढ़ियों की जिंदगियों को दुश्वार करने का आधार भी तैयार कर रहा है।

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अनिल जैन
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