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देश की जनता असुरक्षा से घिरी है, नारों से काम नहीं चलेगा!

संसद में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को गिरना ही है, ये सारी दुनिया जानती है इसलिए इसकी जय-पराजय का कोई महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है कि इस प्रस्ताव के जरिये संसद में सरकार की असफलताओं और सफलताओं पर खुलकर बहस हुयी और देश-दुनिया ने देखा कि सरकार और विपक्ष कितने पानी में हैं? अविश्वास प्रस्ताव पर अब प्रधानमंत्री के भाषण यानी उत्तर का किसी को कोई इन्तजार नहीं है, क्योंकि लोकसभा में गृहमंत्री जो कुछ बोल चुके हैं प्रधानमंत्री उसी को दोहराएंगे। ये बात अलग है कि उनका भाषण नाटकीयता से भरा होगा। आप मनोरंजन के लिए उसे अवश्य सुन सकते हैं।

अविश्वास प्रस्ताव से सरकार के गिरने का लेशमात्र भी ख़तरा नहीं था, फिर भी सत्तापक्ष की हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अपने संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट भाषण में जो कुछ कहा उसे सुनकर सदन में उत्तेजना बढ़ी। ये स्वाभाविक था क्योंकि राहुल गांधी ने सरकार की दुखती रग पर हाथ ही नहीं रखा था बल्कि उसे दबाकर भी दिखा दिया। राहुल गांधी के भाषण में कोई लत्ता-लपेड़ी नहीं थी। कोई पहेली नहीं थी, उन्होंने सीधे-सीधे सरकार पर मणिपुर में भारत माता के क़त्ल का आरोप लगाया। भाजपा को देशद्रोही कहा। सत्तापक्ष की इससे ज्यादा लानत-मलानत और क्या हो सकती थी? राहुल गांधी ने अपने भाषण के बाद हवा में अपने स्नेह का चुंबन भी उछाला जिसे भले ही भाजपा सांसद हेमामालिनी ने न देखा हो किन्तु स्मृति ईरानी ने देखा और उसकी जमकर भर्त्सना की।

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अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में गृहमंत्री के भाषण में पिछली सरकारों के आँकड़ों का अपनी सरकार के आँकड़ों से तुलनात्मक अध्ययन के अलावा कुछ भी नया नहीं था। नया था तो भाजपा के आगामी चुनाव प्रचार के लिए गढ़े गए नारे। भाजपा देश से भ्रष्टाचार, परिवारवाद को भारत छोड़ने का नारा दे रही है। भाजपा को चूँकि 1942  में स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने और 'भारत छोड़ो' आंदोलन में शामिल होने का मौक़ा नहीं मिला था इसलिए उन्होंने आम चुनाव से पहले एक काल्पनिक आंदोलन गढ़ा है और इसके लिए ये नारे बहुत जरूरी हैं। वैसे देश और दुनिया जानता ही है कि  भाजपा के ये नारे जब गर्भ में थे उससे पहले ही देश का तमाम धन लेकर बहुत से लोग इंडिया को 'क्विट' कर गये हैं और 9 साल बाद भी वापस नहीं लौटे। दुर्भाग्य से गृहमंत्री अमित शाह के भाषण में इन सबका ज़िक्र नहीं था।

मणिपुर के बहाने लाये गए इस अविश्वास प्रस्ताव से बहुत सी राजनीतिक छुद्रताएँ प्रकट हुईं। सबसे बड़ी बात तो ये हुई कि प्रधानमंत्री ने संसद को भी उसी तरह अपने ठेंगे पर रखा जैसे वे दूसरे राजनीतिक दलों को रखते आये हैं। उन्हें इसकी आदत सी पड़ गयी है। उन्होंने विपक्षी दलों को ही नहीं अपने खुद के दल के शीर्ष नेताओं को ठेंगे पर रखा हुआ है। एक अमित शाह अपवाद हैं। आदमी ठेंगे का इस्तेमाल तभी करता है जब उसे मिली तमाम शक्तियों का विकेन्द्रीकरण होने के बजाय केंद्रीयकरण हो जाता है। इंदिरा गाँधी के जमाने में भी यही सब हुआ। इंदिरा गांधी के जमाने में सत्ता में एक काकस था आज ऐसा कुछ नहीं है। जो है सो शाह और मोदी की जोड़ी है। बाकी के सब दो कौड़ी के भी नहीं हैं। चूंकि ये भाजपा का अंदरूनी मामला है इसलिए इसके विस्तार में नहीं जाना चाहिए। ये अतिक्रमण की श्रेणी में आता है।

सवाल ये है कि क्या संसद में सरकार के खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव की धमक संसद के बाहर भी गूंजेगी? क्या आने वाले महीनों में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में अविश्वास प्रस्ताव में उद्घाटित हुए राजनीतिक नारे अपना असर छोड़ पाएंगे? क्या भारत माता के क़त्ल का संगीन आरोप सत्तारूढ़ भाजपा का पीछा करना छोड़ देगा? क्या सरकार आने वाले दिनों में मणिपुर और हरियाणा की आग पर पानी डाल पाएगी? क्या मणिपुर में शांति बहाली के लिए केंद्र सेना का इस्तेमाल करेगा या मणिपुर को इसी तरह झुलसने देगा।
सरकार के सर पर अभी तक कांग्रेस का ही भूत सवार था। अब राहुल गांधी और मणिपुर के प्रेत भी सरकार के सर पर सवार हो चुके हैं। क्या सरकार इन तीनों से अपने आपको मुक्त कर पाएगी?

केंद्र की मोदी सरकार देश के 140 करोड़ लोगों की सरकार है या मात्र   37 फीसदी लोगों की, ये बहस बेमानी है। पीएम मोदी के नेतृत्व वाली सरकार सम्पूर्ण बहुमत की सराकर है। इस सरकार की सफलताएँ और विफलताएँ देश की सफलताएँ और विफलताएँ हैं। मणिपुर की हिंसा की वजह से यदि देश -दुनिया में पीएम मोदी का माथा शर्म से झुकता है तो हमारा भी झुकता है। 

संसद के पावस स्तर के समापन के बाद भाजपा फिर मणिपुर और हरियाणा भूलकर पूरे प्राण-पण से चुनाव में जुटेगी। सब आपको अपने-अपने मोर्चे पर खड़े दिखाई देंगे। कोई मणिपुर की ओर पलटकर भी नहीं देखेगा। मुमकिन है कि विपक्ष को भी पीएम मोदी का सामना करने के लिए मणिपुर और हरियाणा को भूलना पड़े, लेकिन यदि विपक्ष ये ग़लती करेगा तो देश की जनता उसे भी कभी क्षमा नहीं करेगी।

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देश की जनता असुरक्षा से घिरी है। उसे नारों से आश्वस्त नहीं किया जा सकता है। जनता की आश्वस्ति सरकार और विपक्ष के कामों से पैदा होगी। देश को बनाने के लिए बेहतर होता कि सत्ता और विपक्ष मिलजुलकर काम करते लेकिन ये अब सम्भव नहीं रहा। सरकार ने सियासत में अदावत के पौधे को इतना बड़ा कर दिया है कि उसे चाहकर भी समूल नहीं उखाड़ा जा सकता। राजनीति में जो सौहार्द नेहरू से लेकर अटल बिहारी के जमाने तक था उसे बंगाल की खाड़ी में डुबो दिया गया है। पता नहीं राजनीतिक सौहार्द आने वाली पीढ़ी दोबारा देख भी पाएगी या नहीं?

(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)

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राकेश अचल
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