कुछ दिन पहले रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘बवाल’ में एक डायलॉग है- “माहौल ऐसा बनाओ कि लोग रिज़ल्ट भूल जायें!” यानी ऐसा धमाका करो कि लोगों की आँख में धूल भर जाये और वे हक़ीक़त न देख पायें। इम्तहान में फ़ेल हो जाओ तो मुहल्ले भर में मिठाई बाँट दो ताकि लोगों को लगे कि अच्छे नंबरों से पास हुए। या परीक्षा प्रणाली पर सेमिनार आयोजित करा दो। अचानक पैदा हुई ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ की बहस कुछ ऐसा ही प्रयास है।
‘एक देश-एक चुनाव’: ‘माहौल ऐसा बनाओ कि लोग रिज़ल्ट भूल जायें’
- विचार
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- 4 Sep, 2023

‘एक देश-एक चुनाव’ के लिए जिस हद तक संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी क्या वह 2024 से पहले संभव है? क्या इसका असर राज्यों के अधिकार पर नहीं पड़ेगा जिसका संबंध संविधान के बुनियादी ढाँचे से भी है?
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर साढ़े नौ साल के शासन के बाद मोदी सरकार के अंकपत्र की सूरत कुछ यूँ है- डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत 108वें नंबर पर, भुखमरी इंडेक्स में 107वें नंबर पर, प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 161वें नंबर पर, प्रति व्यक्ति आय में 128वें स्थान पर, मुद्रा की मज़बूती के लिहाज़ से 40वें स्थान और लैंगिक असमानता में 127वें स्थान पर है। ये वो हक़ीक़त है जो पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर बजाये जा रहे ढोल की पोल खोलती है। अर्थव्यवस्था के इस ‘वॉल्यूम’ के पीछे भारत की विशाल आबादी है जो भीषण असमानता का शिकार है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि देश के एक फ़ीसदी लोगों का देश की 40 फ़ीसदी संपत्ति पर क़ब्ज़ा है। वहीं 50 फ़ीसदी आबादी महज़ तीन फ़ीसदी संपत्ति के आसरे है। बेरोज़गारी 7.95 फ़ीसदी के हाहाकारी दर पर है तो तेज़ी से बढ़ी महँगाई लोगों के लिए कोढ़ में खाज की तरह है।