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विभाजन विभीषिका : जिन्ना बन जाते प्रधानमंत्री तो टल जाता बँटवारा?

भारत-पाक बँटवारे के लिए कौन ज़िम्मेदार था? हम स्वतंत्रता के 75वें साल में प्रवेश कर रहे हैं। इस मौके पर सत्य हिन्दी की ख़ास पेशकश। 

राजनीतिक और दूसरे मंचों पर यह कहा जाता रहा है कि यदि नेहरू ने जिन्ना को देश का प्रधानमंत्री बनाने का गाँधीजी का प्रस्ताव मान लिया होता तो देश का बँटवारा नहीं होता। क्या गाँधीजी ने वाक़ई ऐसा प्रस्ताव दिया था... और यदि दिया था तो नेहरू और जिन्ना की उसपर क्या प्रतिक्रिया थी।
नीरेंद्र नागर
पिछले साल दलाई लामा ने यह कहा कि यदि नेहरू जिन्ना को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का गाँधीजी का प्रस्ताव मान लेते तो भारत का विभाजन नहीं होता। इस बात को और भी कई नेता इससे पहले और बाद में भी कई बार दोहरा चुके हैं। ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि क्या गाँधीजी ने कभी ऐसा प्रस्ताव रखा था। अगर हाँ तो उस प्रस्ताव पर जिन्ना की क्या प्रतिक्रिया थी और नेहरू का उस सारे मामले में क्या रोल था। इस जानकारी के आधार पर ही हम तय कर पाएँगे कि क्या जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाने से भारत का बँटवारा टल सकता था। आइए, आज भारत विभाजन सीरीज़ की इस अंतिम कड़ी में हम इसी की जाँच करें

जिन्ना को प्रधानमंत्री बनने से किसने रोका?

1946 का दिसंबर आते-आते यह तय हो चुका था कि पाकिस्तान अब बनकर रहेगा। ब्रिटिश सरकार की पहल पर लंदन में नेहरू-जिन्ना और लियाक़त अली की बैठक में यही निष्कर्ष निकलकर आया। फिर भी बँटवारे को टालने के लिए गाँधीजी ने अप्रैल 1947 में एक बार फिर अपना प्रस्ताव दोहराया कि जिन्ना को देश की अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बना दिया जाए। यह प्रस्ताव वह इससे पहले 1942 में तत्कालीन वाइसरॉय लिनलिथगो के सामने रख चुके थे और कुछ समय पहले कैबिनेट मिशन के सामने भी दोहरा चुके थे। ध्यान दीजिए, वह जिन्ना को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बनाने का सुझाव दे रहे थे, आज़ाद भारत का प्रधानमंत्री नहीं।

गाँधीजी ने जिन्ना को अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री बनाने का ऐसा प्रस्ताव क्यों दिया था? इसलिए कि जिन्ना को आज़ादी के बाद जैसा भारत गठित होता दिख रहा था, उसमें उन्हें मुसलमानों के साथ अन्याय और अत्याचार होने की आशंकाएँ नज़र आ रही थीं।

गाँधीजी ने कहा, अगर आपको ऐसा ही लगता है तो आप ही बन जाओ देश के अंतरिम प्रधानमंत्री और जैसा चाहते हो, वैसा ही संविधान बनवाओ - बस, देश को मत बाँटो।

गाँधीजी ने यह प्रस्ताव 1 अप्रैल 1947 को लॉर्ड माउंटबैटन के सामने रखा जो नए-नए वाइसरॉय बने थे। गाँधीजी ने उनसे मुलाक़ात की और मौजूदा हालात में उनके हिसाब से जो सर्वश्रेष्ठ समाधान हो सकता था, वह पेश किया। उन्होंने कहा, ‘मिस्टर जिन्ना को मुसलिम लीग के सदस्यों के साथ तत्काल केंद्र में अंतरिम सरकार बनाने की दावत दे दी जाए।’

माउंटबैटन को यह प्रस्ताव बड़ा अजीब लगा, ख़ासकर जब पाकिस्तान का बनना तय हो गया था, उस समय ऐसी अनोखी बात! उसी शाम वह नेहरू से मिले और गाँधीजी से हुई बातचीत से अवगत कराया। नेहरू बिल्कुल ही आश्चर्यचकित नहीं हुए। बोले, ‘ऐसा सुझाव वह कैबिनेट मिशन को भी दे चुके हैं।’

यह सही भी है। एक साल पहले कैबिनेट मिशन के सामने गाँधीजी ने यह प्रस्ताव रखा था और मिशन के सदस्य इसे ‘नितांत अव्यावहारिक’ बताकर उसे अस्वीकार कर चुके थे।

जिन्ना ने क्यों ठुकराया प्रस्ताव?

अब यह जानना रोचक होगा कि ख़ुद जिन्ना का इसके बारे में क्या ख़्याल था। ‘जिन्ना ऑफ़ पाकिस्तान’ नामक पुस्तक के लेखक स्टैनली वॉल्पर्ट ने लिखा है कि जिन्ना इस प्रस्ताव के प्रति उत्सुकता दिखा सकते थे अगर उनको गाँधीजी पर आस्था या विश्वास होता। भरोसा इसलिए नहीं था कि जिन्ना के अनुसार, ‘आज़ाद भारत के बारे में मि. गाँधी की समझ हमारी समझ से पूरी तरह अलग है। मि. गाँधी के आज़ाद भारत का अर्थ है - कांग्रेस राज।’

गाँधीजी इस मामले में जिन्ना की राय से अच्छी तरह परिचित थे। इसीलिए 1 अप्रैल की बातचीत में जब माउंटबैटन ने पूछा कि आपको क्या लगता है, जिन्ना इस प्रस्ताव पर कैसा रुख अपनाएँगे, तो गाँधीजी ने कहा, ‘अगर आप उनसे कहेंगे कि यह प्रस्ताव मैंने दिया है तो उनकी प्रतिक्रिया होगी - चालाक गाँधी।’ माउंटबैटन ने भी मज़ाकिया लहज़े में पूछा, ‘क्या वह सही कह रहे होंगे?’ गाँधीजी ने तत्काल कहा, ‘नहीं, नहीं, (कोई चालाकी नहीं), मैं पूरी ईमानदारी से यह सुझाव दे रहा हूँ।’

भारत विभाजन पर विशेष

क्या था पेच?

गाँधीजी चाहे जितने ईमानदारी से यह सुझाव दे रहे हों, कांग्रेस, मुसलिम लीग या ब्रिटिश सरकार के लोग इसे गंभीरतापूर्वक नहीं ले रहे थे। कैबिनेट मिशन इसे ‘नितांत अव्यावहारिक’ बता ही चुका था, ख़ुद माउंटबैटन की टीम के वरिष्ठ अधिकारी भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ‘यह प्रस्ताव अमल में लाने जाने लायक नहीं है। अव्वल तो जिन्ना ख़ुद ही इसे अस्वीकार कर चुके थे, दूसरे अगर वह इसे मान लेते तो भी उनकी सरकार पूरी तरह कांग्रेसी बहुमत के समर्थन पर निर्भर होती… और नतीजतन हर विधायी या राजनीतिक कार्रवाई निर्णय के लिए वाइसरॉय के सामने रखी जाती और वाइसरॉय जो भी क़दम उठाते, उसका ग़लत अर्थ निकाला जाता।’

स्पष्ट है, जिन्ना भी यह बात समझ रहे थे कि गाँधीजी का यह प्रस्ताव एक ऐसा रणनैतिक क़दम था जिसका मक़सद मुसलिम लीग का भरोसा जीतना था। 

जिन्ना ख़ुद भी जानते थे कि बिना बहुमत के समर्थन के कोई भी व्यक्ति ज़्यादा दिनों के लिए नेता नहीं बना रह सकता था। इसी कारण उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। ऐसे में यह कहना कि नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के लालच में जिन्ना को पीएम नहीं बनने दिया, सरासर बेबुनियाद और केवल दुष्प्रचार है।

जिन्ना क्यों नहीं चाहते थे मज़बूत केंद्र?

आज इस सीरीज़ का अंत करते हुए हम एक बार फिर से वही सवाल पूछेंगे जो हमने इस सीरीज़ की शुरुआत करते हुए पूछा था  - भारत विभाजन का दोषी कौन है और क्या उसे टाला जा सकता था। यदि आपने इसकी सारी कड़ियाँ पढ़ी होंगी तो आप समझ गए होंगे कि बँटवारे के मुख्य सूत्रधार जिन्ना थे हालाँकि वह बँटवारे से एक साल पहले तक भी यही कोशिश कर रहे थे कि पाकिस्तान अलग होकर भी भारत (इंडिया) का हिस्सा बना रहे। मगर इस एकता के लिए उनकी जो शर्त थी, वह कांग्रेस को मंज़ूर नहीं थी। जिन्ना चाहते थे कि धर्म के आधार पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान नाम के दो अलग-अलग राज्य हों और ये दोनों भारत यानी इंडिया की एक केंद्रीय सरकार के तहत भारतीय महासंघ के अंग हों। लेकिन ऐसी व्यवस्था में केंद्र के पास बहुत कम अधिकार रह जाने वाले थे जो कांग्रेस और उसके नेताओं को स्वीकार्य नहीं थे।

विचार से ख़ास

तब देश के सामने दो ही विकल्प थे- 

  1. कमज़ोर केंद्र के साथ संयुक्त भारत और 
  2. मज़बूत केंद्र के साथ विभाजित भारत। 

यह कहना बहुत ही मुश्किल है कि आज की तारीख़ में कौनसा विकल्प बेहतर साबित होता। हर व्यक्ति की अलग-अलग राय हो सकती है, आपकी भी और मेरी भी। नेहरू और पटेल को ‘कमज़ोर केंद्र’ का पहला विकल्प नहीं जमा और इसीलिए उन्होंने विभाजन को ‘कमतर बुराई’ मानकर स्वीकार किया। जिन्ना को ‘मज़बूत केंद्र’ का दूसरा विकल्प नहीं जमा और उन्होंने अलग होना ही मुनासिब समझा। दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही थे और विभाजन के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता।

जिन्ना की आशंका कहाँ तक सही?

कुछ लोग जानना चाह सकते हैं कि आख़िर जिन्ना को मज़बूत केंद्र से क्या समस्या थी। इसका जवाब पाने के लिए आपको बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। हाल का जम्मू-कश्मीर का घटनाक्रम इस बात का ताज़ातरीन प्रमाण है कि एक मज़बूत केंद्र किसी कमज़ोर प्रांत के साथ कैसा सलूक कर सकता है। बहुत मुमकिन है कि जो व्यवहार आज भारत के एकमात्र मुसलिम-बहुल राज्य के साथ हो रहा है, वह संयुक्त भारत के बाक़ी मुसलिम-बहुल राज्यों के साथ भी होता। इन प्रांतों की चुनी हुई सरकारें गिरा दी जातीं, उनके नेताओं को जेल में डाल दिया जाता, बंदूकों के बल पर वहाँ के नागरिकों को घरों में क़ैद कर दिया जाता और देश के अधिकतर हिंदू-बहुल राज्य इन कार्रवाइयों का मौन या मुखर समर्थन कर रहे होते जैसा कि आज कर रहे हैं।

जिन्ना का पाक भी उसी राह पर

जिन्ना ने बहुमतशाही की यह प्रवृत्ति आज से 80 साल पहले ही देख ली थी (हालाँकि उस समय हिंदुत्ववादी शक्तियाँ उस तरह हावी नहीं थीं जिस तरह पिछले कुछ सालों से हैं) इसीलिए वह मज़बूत केंद्र के विरोधी थे। हालाँकि यह एक विडंबना ही है कि जिस शक्तिशाली केंद्रीय बहुमतशाही के वह तब विरोधी थे, वही बहुमतशाही पाकिस्तान में उसके जन्म से ही चल रही है और प्रांतों के साथ जिस अन्याय की वह तब आशंका जाहिर कर रहे थे, वह अन्याय हमने पूर्वी पाकिस्तान के मामले में बड़े घिनौने रूप में देखा और बलूचिस्तान सहित अन्य हिस्सों में भी देख रहे हैं।

इसी के साथ हमारी विभाजन सीरीज़ आज समाप्त हुई। यदि आपने कोई पिछली कड़ी या कड़ियाँ मिस कर दी हों, तो आपके लिए नीचे उन सबका सार संक्षेप प्रस्तुत हैं। साथ में उन कड़ियों के लिंक भी दिए हुए हैं जिनपर टैप/क्लिक करके आप वह कड़ी विस्तार से पढ़ सकते हैं।
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पिछले 6 दिनों में हमने अलग-अलग कड़ियों में भारत के विभाजन के बारे में पढ़ा कि कैसे पहली बार 1888 में हिंदुओं और मुसलमानों को दो क़ौमें मानते हुए सर सैयद अहमद ख़ाँ ने कहा कि ये दो क़ौमें एकसाथ बराबरी के लेवल पर नहीं रह सकतीं। हमने यह भी देखा कि कैसे सर सैयद अहमद ख़ाँ के विचारों से प्रेरित कुछ मुसलिम नेताओं ने 1906 में मुसलिम लीग का गठन किया और मुसलमानों के लिए अलग सीटों की माँग की जिसको जिन्ना ने देश को तोड़ने वाला विचार बताया। आगे की कड़ी में हमने देखा कि जिन्ना ख़ुद जिन मुसलिम सीटों की व्यवस्था का विरोध कर रहे थे, उनका ही वह पुरज़ोर समर्थन करने लगे और ख़ुद मुसलिम लीग का नेतृत्व भी सँभाल लिया।

लेकिन इन सबके बावजूद वह तब तक भी पाकिस्तान के नाम से अलग देश के समर्थक नहीं बने थे। मुसलमानों के नाम से अलग मुसलिम देश का आह्वान 1930 में ‘सारे जहाँ से अच्छा’ के रचयिता मुहम्मद इक़बाल ने किया और पाकिस्तान को उसका यह नाम भी लंदन में वकालत पढ़ रहे एक छात्र चौधरी रहमत अली का दिया हुआ है जिनको जिन्ना का विरोध करने के कारण बाद में पाकिस्तान से ही निकाल दिया गया। 1937 के प्रांतीय और केंद्रीय असेंबलियों के चुनावों तक जिन्ना और मुसलिम लीग भारत के विभाजन की बात नहीं कर रहे थे। यह तो 1937 के चुनावों में पार्टी को मिली भारी पराजय का असर था कि जिन्ना और लीग ने पाकिस्तान के नाम से अलग राज्य की माँग उठानी शुरू कर दी और 1940 के अपने अधिवेशन में इस आशय का एक प्रस्ताव भी पारित किया जिसे लाहौर प्रस्ताव कहते हैं। इसके तहत मुसलिम-बहुल प्रांतों को मिलाकर एक नया राज्य बनना था।

परंतु यह नया राज्य क्या भारत से अलग होकर बनना था? नहीं, इरादा यही था कि धार्मिक बहुलता के आधार पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान नामक दो राज्य बनते और भारत या इंडिया नामक महासंघ का हिस्सा होते। ब्रिटिश सरकार भी इस प्रस्ताव को अनुकूल मान रही थी और इसी हिसाब से आगे बढ़ रही थी जिसके लिए उसने 1946 में कैबिनेट मिशन के नाम से एक दल को भारत भेजा था। जून 1946 तक यह लगने लगा था कि भारत दो राज्यों में बँटेगा, फिर भी जुड़ा रहेगा। लेकिन जुलाई 1946 में नेहरू ने यह बयान दे दिया कि कांग्रेस संविधान सभा में शामिल तो हो रही है लेकिन ज़रूरी नहीं कि कैबिनेट मिशन का प्लान पूरी तरह अमल में लाया जाए। इसके बाद ही बात बिगड़नी शुरू हो गई और उसका अंत अगले साल पाकिस्तान नामक एक स्वतंत्र देश के जन्म के साथ ही हुआ।

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