नफ़रत की छुरी और मुहब्बत का गला है!
नज़ीर बनारसी : नफ़रत की छुरी और मुहब्बत का गला है
- पाठकों के विचार
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- 27 Jun, 2020

नज़ीर बनारसी का शेर 'नफ़रत की छुरी और मुहब्बत का गला है' मौजूदा हालत पर आज यही सवाल पूछता दिख रहा है- 'फरमाइये ये कौन से मज़हब में रवा है'।
अपने इस शेर को नज़ीर कुछ यूँ पूरा करते हैं-
फरमाइये ये कौन से मज़हब में रवा है।
नज़ीर यानी नज़ीर बनारसी का ये शेर मौजूदा हालत पर आज यही सवाल पूछता दिख रहा है। कबीर की काशी के इस शायर की शायरी का मूल स्वभाव ही देश राग है। देश यानी अलग-अलग फूलों से बना एक गुलदस्ता जिसका पैगाम साथ-साथ रहते और चलते हुए एक दूजे के सुख और दुःख में भागीदारी करते रहना है। ‘वतन के जो काम आए वतन उसका है’ कहने वाले नज़ीर की शायरी का दर्शन इतना ही है-
पर्वत हो कि झरना हो कि वन सबके लिए हैहंसता हुआ चाँद और गगन सबके लिए है,तारे हों कि सूरज की किरन सबके लिए हैहर शामे वतन, हर सुबहे वतन सबके लिए हैइन्सां के लिए सब है तारे हैवां के लिए भीऔर आज का इन्सां नहीं इन्सां के लिए भी?