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कर्नाटक हिजाब विवाद: क्या आपने श्रीलंका के कार्टूनिस्ट का कार्टून देखा?

बहुत दिन नहीं हुए जब हिंदू समाज में ऐसी आवाजें थीं। ऐसे नेता थे जो हिंदू समाज को लेकर चिंतित थे, मुसलमान या ईसाई उनकी चिंता का विषय नहीं थे। उनकी निगाह भीतर की तरह मुड़ी हुई थी। अपनी कमियों, हीनताओं, विकृतियों पर बात करने से उन्हें संकोच नहीं होता था। लेकिन आज हिंदू नेता हिंदुओं के बारे में कम, मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में अधिक बात करते हैं।
अपूर्वानंद

आज सुबह कार्टून देखा। श्रीलंका के किसी कार्टूनिस्ट का। एक अर्धनग्न दुर्दांत पुरुष एक मुसलमान औरत का कपड़ा खींचे जा रहा है। हिंदू, ओह, नहीं; भारतीय सांस्कृतिक स्मृति ने बतलाया कि अरे ये तो दुःशासन और द्रौपदी हैं! यह द्रौपदी के चीर हरण का दृश्य है। साफ़ है कि उस पुरुष के पास राजसी अधिकार और अहंकार दोनों हैं। वह राजा दस्यु अधिक लग रहा है और उसके मुकुट पर इंडिया लिखा है। 

कार्टून का ‘इंडिया’ मुसलमान नारी का चीर हरण कर रहा है! लेकिन कार्टून अतिशयोक्ति करके भी सच ही तो हुआ करता है! तभी तो तमाचे की तरह चोट करता है। तो यह छवि भारत की दुनिया में बन रही है! 

देखकर धक्का लगा, शर्म आई। मुकुटधारी पुरुष प्रतीकात्मक रूप से भारतीय राज्य है जो प्रकटतः हिंदू है। सोचने लगा कि इस कार्टून को बनाने वाले ने क्या मध्य प्रदेश के अर्धनग्न मुख्यमंत्री और सरसंघ चालक की तसवीरें देखी थीं जो हैदराबाद से पूरे विश्व में प्रसारित की गई थीं? मैं कहना चाहता हूँ कि इस दस्यु को भारत कहना उचित नहीं है। कहना चाहें तो भारत सरकार कह लीजिए, भारत के शासक कह लीजिए लेकिन भारत में तो मुसलमान हैं, ईसाई, सिख, पारसी, जैन और बौद्ध भी। आदिवासियों का तो वह पहले से है। उन्हें इस प्रतीक में बदलना क्या न्यायसंगत है? 

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लेकिन कार्टून से साफ़ है कि बाहर भारत को व्यावहारिक तौर पर हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखा जाने लगा है। भारत या इंडिया कहने का मतलब भारत की सत्ता से है। जैसे जर्मनी फासिस्ट था हालाँकि हिटलर सरकार ही फ़ासिस्ट थी और वह जर्मन यहूदियों के खिलाफ उसी तरह हिंसक थी जैसे आज की भारत सरकार का रुख मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति है। फिर भी अगर भारत को इस तरह हिंदू राष्ट्र मान लिया गया है तो यह हिंदुओं के लिए संतोष या गर्व का विषय है कि नहीं, यह इस कार्टून को देखकर उन्हें तय करना चाहिए।

उसे हिंसक और बलात्कारी के रूप में देखा जा रहा है। कोई हिंदू पुरुष दुःशासन बनकर सम्मानित नहीं महसूस करेगा।

कार्टून पर गौर करते हुए लगा कि भारत के हिंदू मुसलमानों को ‘देख’ रहे हैं और पूरी दुनिया मुसलमानों पर निगाह गड़ाए हुए हिंदुओं को देख रही है। कुछ हैरानी के साथ, कुछ वितृष्णा के साथ भी।
लिखते समय ध्यान है कि मित्र ऐतराज करेंगे कि यह सामान्यीकरण है और शायद उत्तर भारत के हिंदुओं पर ज्यादा लागू होती है। उनमें भी उनपर जो भारतीय जनता पार्टी के मतदाता हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध हैं। सदस्य जान बूझ कर नहीं कहा क्योंकि इस जमात के  लोग सुविधानुसार स्वयंसेवक होते हैं, फिर उसके हितचिन्तक या उसके विशेषज्ञ। कई बार संघ ही उनसे मुँह मोड़ लेता है जब वे उसी का काम करते हैं जो कानूनन अपराध की श्रेणी में आए और उसके लिए सज़ा भी होने का खतरा हो। 

नाथूराम के आख़िरी शब्द ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ ही थे, यानी आरएसएस की प्रार्थना लेकिन गाँधी की हत्या के अगले ही दिन संघ ने नाथूराम से अपना पल्ला छुड़ा लिया था। वह तो भला हो धीरेंद्र झा का जो 75 साल बाद शोध करके उन्होंने साबित कर दिया कि यह रिश्ता टूटा कभी न था। 

यह ठीक है कि पहले वाक्य में कुछ सामान्यीकरण है लेकिन इससे नाराज़ होने की जगह हमें असुविधा महसूस करनी चाहिए। मामला सिर्फ उत्तर भारत का नहीं है। न तो असम उत्तर भारत है, न कर्नाटक। गुजरात भी उत्तर भारत में नहीं है। मुसलमान और ईसाई मात्र हिंदी मीडिया के प्रिय विषय नहीं, हाँ, असमी, कन्नड़ और दूसरी भाषाओं में भी वे स्थायी विषय हैं। यह कितना दिलचस्प, हालाँकि दुखद है कि इन भाषाओं के मीडिया ने मान लिया है कि उसके पाठक या दर्शक शायद सिर्फ हिंदुत्ववादी हिंदू हैं! वह मीडिया उन्हीं की विकृतियों का आईना भी है और उनमें उस कुत्सा को वह बढ़ाता भी रहता है।

इस कार्टून से हिंदुत्ववादियों के हाथों अपने बच्चों को सुपुर्द कर देने वाले हिंदुओं को आत्म-विचार की प्रेरणा मिलनी चाहिए। दुःशासन को कोई वीर नहीं कहता।

आप खुद राम या रामानुजाचार्य का भेष धरें और दुनिया को आपमें दुःशासन दिखलाई पड़े तो आप कितना ही विज्ञापन कर लें, रहेंगे दुःशासन ही।

इस कार्टून के ‘इंडिया’ की आँखों में जो अश्लीलता और हिंसा है, वह हमारी दृष्टि को परिभाषित न करे यह प्रत्येक सभ्य मनुष्य चाहेगा। कोई नहीं चाहता कि उसकी बेटी बेटा गाली गलौज करनेवाला या बलात्कारी या हत्यारा निकल जाए। आप झुण्ड बाँधकर अपने से कम संख्यावाले को मार डालें या प्रताड़ित करें, उसे वीरता नहीं, कायरता कहा जाएगा। तब तो और भी जब पुलिस भी आपके साथ हो।

पोप का संदेश 

एक अच्छा समाज वह माना जाता है जिसकी आलोचनात्मक निगाह अपनी तरफ मुड़ी होती है, दूसरों की तरफ नहीं। ईसाई समाज में और उसके धार्मिक संस्थान में ढेर सारी कमियाँ हैं लेकिन पोप अपने समुदाय को ही हमेशा उपदेश देते हैं और वह भी दूसरे समुदायों के प्रति उदारता, प्रेम, उत्सुकता के भाव विकसित करने का। उनके व्याख्यान आप पढ़ जाएँ, ईसाई धर्म की महानता का गुणगान ही वे नहीं करते रहते, आज के समय में ईसाई चेतना को जनतांत्रिक चेतना में बदलने के लिए कौन से यत्न करने हैं, वे प्रायः इसी विषय पर बात करते हैं। 

ईसाई समुदाय में कैसे परिष्कार आए, वह कैसे विश्व समाज का सदस्य हो, यह चिंता उनमें दिखलाई पड़ती है। उनमें श्रेष्ठता बोध नहीं दीखता।

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हिंदू समाज की चिंता नहीं

बहुत दिन नहीं हुए जब हिंदू समाज में ऐसी आवाजें थीं। ऐसे नेता थे जो हिंदू समाज को लेकर चिंतित थे, मुसलमान या ईसाई उनकी चिंता का विषय नहीं थे। उनकी निगाह भीतर की तरह मुड़ी हुई थी। अपनी कमियों, हीनताओं, विकृतियों पर बात करने से उन्हें संकोच नहीं होता था। वे हमेशा आत्म प्रशंसा नहीं करते रहते थे। चाहे रामकृष्ण परमहंस हो या विवेकानंद या नारायण गुरु या शंकर देव या महर्षि रमण, सबने हिंदू समाज से बात की और उसे अपनी क्षुद्रता से ऊपर उठने की चुनौती दी। उनमें से किसी ने मुसलमानों या ईसाइयों के खिलाफ घृणा प्रचार नहीं किया। यह भी नहीं कहा कि हिंदू सबसे श्रेष्ठ हैं। उनमें से कोई वेदवादी नहीं है। यानी वेद से शुरू करके वेद पर ही ज्ञान और संसार समाप्त हो जाता है, यह कोई नहीं मनाता। सभी हिंदुओं को प्रेम के साहस की दीक्षा देते हैं। सब चाहते हैं कि हिंदू आदमी बनें।

यह भी कि वे आधुनिक बनें, जिसका अर्थ यह है कि वे जनतांत्रिक बनें।

Sri Lankan cartoonist on karnataka hijab controversy - Satya Hindi
हिंदू समाज के इन नेताओं से इस कारण दूसरे धर्म के अनुयायी, उनके नेता संवाद करने में गौरव अनुभव करते थे। महात्मा गाँधी को भी इनके साथ रखा जा सकता है। क्या ताज्जुब की बात है कि गाँधी से सीखने ईसाई और मुसलमान और यहूदी भी उनके पास आते थे? क्या आज हिंदू समाज के पास ऐसे नेता हैं?
आज के हिंदू समाज के नेता कौन हैं? वे उस भीड़ के नेता हैं जो कर्नाटक में बुर्का पहने मुसलमान छात्रा पर फ़ब्ती कस रहे थे, उसे देखकर जय श्रीराम का नारा लगा रही थी। वह भीड़ जो मुसलमान छात्राओं पर हमला कर रही थी, पत्थर चला रही थी।

आज हिंदू नेता हिंदुओं के बारे में कम, मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में अधिक बात करते हैं। मुसलमानों में क्या कमी है, उनमें किस सुधार की ज़रूरत है,आदि, आदि! हिंदू चेतना के परिष्कार का उनका उद्देश्य नहीं, हिंदू जनसंख्या के विस्तार में उनकी रुचि है, वह भी वह जो उनकी लठैत बनकर उनकी गद्दी पर पहरा दे।

क्या आश्चर्य कि इस हिंदू भारत को देखकर दुःशासन की तसवीर ही किसी भारत प्रेमी के मन में उभर आती है। वह एक दुखी मन है,यह याद रखना चाहिए।  

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