अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं।
वर्धा के महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अजब-गज़ब हुआ। पीएम को चिट्ठी लिखने के लिए अजीब नियमों के तहत छह छात्रों को निकाला और अब आख़िरकार पलटना पड़ा।
दिल्ली विश्वविद्यालय मैथिली के अध्ययन के बारे में गंभीरता से विचार कर रहा है। उद्देश्य स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देना है। दिल्ली में मैथिली के अध्ययन से दिल्ली की स्थानीय संस्कृति के संवर्धन का संबंध है?
क्या 2 अक्टूबर गंदी आत्माओं का पर्व है? या उनका, जिनके हाथ भले तकली न हो, भले वे राम धुन न गा रहे हों, भले वे गाँधी का नामजाप भी न कर रहे हों, लेकिन उनके बताए मार्ग पर चल रहे हों?
एक विश्वविद्यालय की ख़बर सुर्ख़ियों में है, दूसरा ख़बर बन नहीं सका। हालाँकि यह दूसरा है जिसे देखकर हमें फ़िक्र होनी चाहिए। यह जादवपुर विश्वविद्यालय के साथ बिहार के गया स्थित दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय की बात है।
कौशलेंद्र प्रपन्न नहीं रहे। दिल के दौरे के बाद अस्पताल में मौत से जूझते हुए उन्हें हार माननी पड़ी। यह हार लेकिन कोई उनकी हार नहीं है। क्या उनकी मृत्यु का कोई ज़िम्मेदार नहीं?
देश कैसे बनता है? क्या वह ज़मीन के अलग-अलग टुकड़ों को एक-दूसरे से जोड़कर बनाया जाता है? या वह अलग-अलग क़िस्म की आबादियों को साथ लाने की एक प्रक्रिया है?
एनआरसी को लेकर अख़बार के पहले पन्ने पर सुर्खी के तौर पर यह संख्या नाटकीय लगती है। यह संख्या कैसे हासिल हुई और इसके क्या मायने हैं? गणित का सवाल होगा, कितने में कितना घटाने से यह 19,06,657 की संख्या मिलेगी?
जम्मू-कश्मीर में कई तरह की पाबंदियाँ हैं। कश्मीर की स्थिति को लेकर केरल में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने क्यों दिया इस्तीफ़ा? क्या आवाज़ दबाई जा रही है?
सच बोलने के लिए आपके भीतर साहस होना चाहिए और नैतिक स्पष्टता भी। महात्मा गाँधी का सारा जीवन इसी की मिसाल है।
कश्मीर अभी फ़ौजी गिरफ़्त में है। आधिकारिक सूचना विभाग ने दुनिया के लिए वीडियो जारी किया है: देख लो! कश्मीर में सब कुछ ठीक है। क्या सच में सबकुछ ठीक है? बड़ी तादाद में सेना क्यों तैनात है?
मंगलेश डबराल ने क्यों लिखा कि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है...इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है?
हाफ़िज़ अहमद की 'मैं एक मियाँ हूँ' कविता को पढ़कर क्या आप पुलिस स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँगे? हाफ़िज़ को इन पंक्तियों को लिखने के लिए सज़ा क्यों मिल रही है?
आधुनिक दौर में अब जो पीढ़ी अपने जीवन के निर्णय ले रही है, उसमें भी नया रास्ता बनाने की कोई जिद और दुस्साहस नहीं दिखाई देता।
इंसान होने का मतलब क्या है? क्या दकियानूसी विचार को आढ़े रहना या नये और तार्किक विचारों को अपनाना? यदि हम पृथ्वी को चपटी ही मानते रहते तो क्या हम इंसानों की तरक़्क़ी इतनी हो पाती? जानने की उत्सुकता के बिना इंसान कहाँ तक पहुँच पाता?
उत्तर प्रदेश सरकार के निजी विश्वविद्यालयों के संबंध में नए अध्यादेश के आने के बाद सवाल यह उठ रहा है कि क्या भारत में राष्ट्रवाद प्रमाणन बोर्ड की स्थापना की जानी चाहिए?
ज़फ़र आग़ा कहते हैं कि मुसलमान आधुनिक नहीं हैं और इसका एक बड़ा कारण उनमें आधुनिक शिक्षा का अभाव है। क्या सच में वे आधुनिक नहीं हैं?
न्याय की माँग करते हुए जब किसी समुदाय को कठघरे में खड़ा किया जाए या उसे अप्रत्यक्ष रूप से निशाना बनाया जाए तो न्याय की वह माँग ही अन्याय बन जाती है।
अहमदाबाद की गर्मी की एक शाम। न्योता मुदिता विद्रोही का था। सौरभ वाजपेयी के व्याख्यान को सुनने का। उन्हें ‘जनतंत्र: तब और अब’ पर बोलना था।
2019 के चुनाव नतीजे पहले के चुनाव नतीजों से अलग इस मायने में हैं कि यह दो राजनीतिक दलों का विभाजन नहीं है, यह देश की आबादियों का विभाजन है।
बीजेपी नेताओं की ओर से बयानों के माध्यम से यह आग्रह किया जा रहा है कि गोडसे के साथ न्यायपूर्ण विचार होना चाहिए। गाँधी की हत्या में गाँधी की ज़िम्मेदारी तय की जानी चाहिए।
राहुल गाँधी की इसलिए तो प्रशंसा की ही जानी चाहिए कि उन्होंने बिना हिचकिचाहट के निर्द्वंद्व होकर सैम पित्रोदा के 1984 की सिख विरोधी हिंसा पर दिए गए बयान की सख़्त आलोचना की। 1984 की याद हिंदुओं के लिए भी आत्म परीक्षण का अवसर है।
अतिशी मरलेना को प्रेस के ज़रिए जनता को बताना पड़ा कि मेरा नाम अतिशी मरलेना है, लेकिन इससे भ्रम में न पड़ जाइए कि मैं ईसाई या यहूदी हूँ, मैं पूरी हिंदू हूँ, बल्कि और भी पक्की क्योंकि मैं क्षत्रिय हिंदू हूँ। दुष्प्रचार के झाँसे में न आइए।
बेगूसराय में बाहर से गए लोग यह देखकर लौट रहे हैं कि कन्हैया को उन्हीं का समर्थन नहीं मिले शायद जिन्हें पारंपरिक तौर पर अपना जन कहा जाता है। तो कन्हैया के जीतने की उम्मीद कितनी है?
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे आरोप और उसके बाद उनकी प्रतिक्रिया से कई सवाल खड़े होते हैं जो देश की न्यायपालिका के लिए शुभ नहीं हैं।
हमें ऐसी राजनीति को परास्त करना होगा जो जुनैद या अलीमुद्दीन के क़ातिल पैदा करती है। हमें सरकार के विरोधी रवैए के बावजूद इंसाफ़ के लिए आख़िरी दम तक लड़ना होगा।
आडवाणी ने कहा है कि बीजेपी अपने विरोधियों या आलोचकों को कभी राष्ट्रविरोधी नहीं कहती। लोग कहने लगे कि वह उदार नेता हैं, लेकिन क्या वे भूल गये कि आडवाणी का रथ जिधर से गुज़रा वहाँ ख़ून की लकीरें खिंच गयीं?