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दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में 'वैदिक गणित का स्वरूप एवं उसकी प्रासंगिकता' कार्यक्रम।

विश्वविद्यालयों में सियासत और मुर्दा चुप्पी, ज़्यादा ख़तरनाक क्या?

सोचिए, एक ऐसे परिसर के बारे में जिसमें छात्रों को ही सभागार में प्रवेश न मिले और वे ख़ामोश रह जाएँ! आज्ञाकारियों की तरह दूसरे कमरे में स्क्रीन के आगे जा बैठें! जहाँ एक अध्यापक बाक़ायदा धर्मगुरु का पादुका पूजन कर रहा हो, जहाँ कुलपति उसके आगे साष्टांग दंडवत हो जाए! एक तरफ़ जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों की बेचैनी है और दूसरी ओर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में घंटा और आरती की ध्वनियाँ और छात्र और अध्यापक समुदाय की मुर्दा चुप्पी! 
अपूर्वानंद

एक विश्वविद्यालय की ख़बर सुर्ख़ियों में है, दूसरा ख़बर बन नहीं सका। हालाँकि यह दूसरा है जिसे देखकर हमें फ़िक्र होनी चाहिए। मैं बात जादवपुर विश्वविद्यालय के साथ बिहार के गया स्थित दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय की कर रहा हूँ।

जादवपुर विश्वविद्यालय में केंद्रीय सरकार के एक मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता, बंगाल में पहले गायक के तौर पर प्रसिद्ध बाबुल सुप्रियो के ख़िलाफ़ छात्रों के विरोध-प्रदर्शन और उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा की गई हिंसा, ख़ुद बाबुल के अभद्र व्यवहार और राज्यपाल के वहाँ पहुँच जाने और ख़ुद हस्तक्षेप की ख़बरें हम तक पहुँची हैं।

इस पर बहस है कि छात्रों को बाबुल का विरोध करना चाहिए था या नहीं, भले ही वह हिंसक न रहा हो! मेरे विचार से यह मुनासिब न था। बाबुल के दल के विचार देश के लिए घातक हैं लेकिन शायद विश्वविद्यालय में उसके प्रवक्ता के विरुद्ध रोष प्रदर्शन से उस विचार का प्रसार रुकता नहीं। दूसरे, बाबुल के बोलने या किसी कार्यक्रम में भाग लेने के अधिकार को बाधित नहीं किया जा सकता। छात्र कह रहे हैं कि उन्होंने बाबुल के लिए बाक़ायदा रास्ता बनाया था और बदमजगी, अपशब्द और हिंसा बाबुल की ओर से शुरू हुई। लेकिन यह शायद विरोध कर रहे छात्रों को भूलना नहीं चाहिए कि बाबुल का दल हमेशा हिंसा के अवसर की ताक में रहता है और इसलिए इस मौक़े पर हिंसा का अनुमान सहज था। सिद्धांत रूप से बाबुल का विरोध उचित न था अगर इस बाद के कारण को छोड़ भी दें।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

यह ख़बर हम तक पहुँची लेकिन दूसरी नहीं। हिंदी के अख़बारों पर राष्ट्रवाद का बुखार इस कदर सवार है कि वे अपने यहाँ विश्वविद्यालयों के भीतर क्या चल रहा है, इसकी ख़बर भी नहीं रख पाते या रखना ज़रूरी नहीं समझते। इसलिए अब अध्यापकों और छात्रों को ही संवाददाता और सम्पादक का दायित्व भी निभाना पड़ रहा है।

दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक युवा अध्यापक मित्र के ज़रिए एक दिलचस्प ख़बर मिली। ख़बर थी 18 सितम्बर को विश्वविद्यालय में वैदिक गणित पर स्वयंभू जगद्गुरु शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती के व्याख्यान की। वह ख़बर उन्हीं की जुबानी सुनिए, भाषा का आनंद भी मिलेगा। 

तो लीजिए प्रस्तुत है एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में धर्म गुरु का व्याख्यान! विषय है वैदिक गणित! मैं तो न गणित का विद्यार्थी हूँ और न ही 'गुणा-गणित' करता हूँ। भारतीय वाङ्मय में थोड़ी रुचि ज़रूर है। इस विषय 'वैदिक गणित' में वैदिक क्या है यह देखने की बात है। वेद, ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में साक्षात् गणित का पता नहीं चलता। हाँ, यह ज़रूर है कि वैदिक यज्ञों की जटिल विधियों को याद करने में दिक़्क़त न हो इसलिए सूत्रग्रंथों का विकास हुआ। इन्हीं सूत्रग्रंथों में एक है श्रौतसूत्र। इन्हीं से संबंधित हैं शुल्वसूत्र। शुल्व का अर्थ होता है मापने की डोरी। मूलतः इनमें यज्ञ की वेदियों के निर्माण और उनके आकार-प्रकार का वर्णन है। इसी को लोग उत्साह में भारतीय ज्यामिति के प्राचीन ग्रंथ कह देते हैं। बाक़ी जो भी 'वैदिक गणित' के नाम से किया जाता है उनका वेद से कोई संबंध मेरे जानते नहीं हैं। इसलिए 'वैदिक गणित' पद ही फ़र्ज़ी लगता है। भारत में गणित का ज़बरदस्त विकास हुआ है पर उनका संबंध वेद से क़तई नहीं है। इसलिए भारतीय गणित की परंपरा और उसके योगदान का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने के प्रसंग में विचार-विमर्श किया जा सकता है। पर वैदिक गणित के नाम पर इतना भव्य आयोजन जिसमें विश्वविद्यालय का इतना श्रम, समय और पैसा लग रहा है वह कितना लाभकारी होगा, यह दिव्य व्याख्यान सुनने के बाद ही पता चलेगा।

विश्वविद्यालय में सरकार के कामों का प्रचार!

इस आयोजन के पक्ष में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं। कहा जा सकता है कि यदि शंकराचार्य वैदिक गणित के विशेषज्ञ हैं तो विश्वविद्यालय में उनका व्याख्यान क्यों नहीं हो सकता? केवल इसलिए कि वे धर्म गुरु हैं? यहाँ एक सवाल यह उठता है कि क्या कभी मौलाना या शाही इमाम या पोप को बुलाकर सूफ़ी दर्शन या ईसाइयत पर व्याख्यान कराया जा सकता है? मंदिर बन ही रहा है विश्वविद्यालय में, वास्तु-पूजन की परंपरा चल ही चुकी है, शंकराचार्य आ ही गए तो अब दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय का नाम भी बदल ही देना चाहिए!  2016 ई. से इस विश्वविद्यालय में यह सब शुरू हुआ। व्यापक तौर पर केंद्रीय स्तर पर सरस्वती पूजा का आयोजन, कार्यक्रमों में 'जय श्रीराम' का नारा लगना, अखंड भारत का पोस्टर जिसमें भारत का वह रूप दिखाना जो कभी अस्तित्व में था ही नहीं, विश्वविद्यालय के बैनर तले हिंदू नव वर्ष की बधाई के संदेश आदि। इस साल से इफ़्तार का भी आयोजन शुरू कर दिया गया है। 

तो साहब विश्वविद्यालय के अधिनियम में संशोधन कर दिया जाए तो यह लिख दिया जाए कि विश्वविद्यालय का काम धार्मिक आयोजन कराना है और सरकार के कामों का प्रचार करना है। सरकार के कामों का प्रचार तो वर्तमान सरकार यूजीसी की सहायता से करा ही लेती है। कभी ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से संबंधित कार्यक्रम का आयोजन होता है जिसमें शपथ-ग्रहण कराया जाता है, कभी सर्जिकल स्ट्राइक मनवाया जाता है तो कभी सरदार पटेल के जन्मदिन पर सभी को दौड़ाया जाता है। बिना किसी आधिकारिक सूचना के एमए के पाठ्यक्रम को 96 क्रेडिट कर दिया जाता है। सुबह दस से चार और नौ से पाँच क्लास चलती हैं बिना यह समझे कि विद्यार्थियों और शिक्षक-शिक्षिकाओं के पास सोचने-समझने एवं सीखने का कितना वक़्त बचेगा? तो हाल-ए-विश्वविद्यालय यह है कि जब अकादमिक काम धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं तो काहे को अकादमिक कार्यों का ढोंग भारत के विश्वविद्यालय कर रहे हैं? 

एक तरफ़ दुनिया के तीन सौ विश्वविद्यालयों में कहीं न स्थान पाने का हो-हल्ला है तो दूसरी ओर इसी समय सौ साल से भी अधिक पुराने विश्वविद्यालय काशी हिंदू विश्वविद्यालय यानी बीएचयू में एक शिक्षक छात्रा से यौन दुर्व्यवहार प्रमाणित होने पर लंबी छुट्टी पर भेजा जा रहा है। उसकी उसके पद से ही छुट्टी क्यों न की गई?

शंकराचार्य यदि अद्वैत वेदांत पर व्याख्यान देते तो बात समझ में भी आती। जैसा कि कहा गया कि वैदिक गणित में 'वैदिक' कुछ भी नहीं है तो कम-से-कम व्याख्यान का विषय तो नैतिक होता!

कार्यक्रम हो जाने के बाद उन्होंने उसका समाचार भी दिया। यह भी उनकी टिप्पणी के साथ हाज़िर है, 

“आज 18 सितंबर 2019 ई. दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए सच में ऐतिहासिक दिन है। आज यह आँखों के सामने साफ़ दिखा और महसूस हुआ कि कैसे यह संस्थान विश्वविद्यालय के विचार को पूरी तरह खो चुका है। कल यानी 17 सितंबर 2019 ई. को जिस कार्यक्रम ( जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य का वैदिक गणित पर व्याख्यान।) के बारे में यहीं फ़ेसबुक पर लिखा था वह आज संपन्न हुआ।

सुबह साढ़े नौ-पौने दस बजे विश्वविद्यालय पहुँचा तो ग़ज़ब की व्यवस्था थी। रोज़ जहाँ गाड़ियाँ लगती थीं वहाँ हरी कालीन बिछी थी। विश्वविद्यालय के रास्तों को नियंत्रित किया गया था। रास्ते पर गमले सजे थे। फूल-मालाओं से नवनिर्मित लेक्चर हाॅल सजा था। 'पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी' का 'वैदिक गणित का स्वरूप और उसकी प्रासंगिकता' विषय पर व्याख्यान होना था।

चार बजे शाम से यह कार्यक्रम शुरू होना था। लेक्चर हाॅल के बाहर ही जूते-चप्पल खोल देने का आदेश था। निर्धारित समय पर अपने शिष्यों के जयघोष (‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, गो माता की जय हो, गो हत्या बंद हो, भारत अखंड हो, जगद्गुरु शंकराचार्य की जय हो, हर हर महादेव।’) और ‘जय श्रीराम’ के नारे के साथ 'पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी' पधारे। उनके स्वागत में भाषण करते हुए कुलपति ने कहा कि उनकी इच्छा यह थी कि इस विश्वविद्यालय का उद्घाटन कभी किसी संत से ही हो। यह ऐसी भावना थी जिसके कारण कुलपति भावुक भी हो गए।

जाहिर है कि 'पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी' एक संत के रूप में विश्वविद्यालय आए थे और उन्हें एक विषय पर व्याख्यान देना था। भारतीय परंपरा संतों को मनोविकारों से मुक्त मानती रही है।

पर पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी ने अपने व्याख्यान में न जाने कितनी बार लोगों को 'सावधान' किया और न जाने कितनी बार अपनी बात 'डंके की चोट पर' कही। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने व्याख्यान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पं. मदनमोहन मालवीय जी के बारे में संस्मरण सुनाते हुए कहा कि ‘मालवीय जी तो काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पतंजलि, गौतम, याज्ञवल्क्य, व्यास और कणाद बनाना चाहते थे पर पहले ही बैच में बन गए कम्युनिस्ट!’ ऐसे हैं संत वचन! और इल्ज़ाम हम पर है कि हम कार्यक्रम का पहले ही विरोध कर के राजनीति कर रहे। इतना ही नहीं, 'पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी' के मुखारविंद से यह भी निकला कि ‘जेएनयू में कम्यूनिस्टों का सफ़ाया हो गया है।’ 

यह जगद्गुरु शंकराचार्य के बोल हैं और कहा जा रहा है कि यह कार्यक्रम राजनीतिक नहीं था। अपने विषय यानी वैदिक गणित पर बोलते हुए जो बातें 'पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी' ने कहीं उन्हें भारतीय दर्शन का सामान्य-सा विद्यार्थी भी जानता है।
वही कार्य-कारण की अद्वैतवादी परिभाषा! कभी गीता के श्लोक का उद्धरण तो कभी श्रीमद्भागवत पुराण के श्लोक का उद्धरण! वेद में कैसे गणित है यह बताने में पूरी तरह असमर्थ रहे पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी! उसे वैदिक क्यों कहते हैं? इस पर भी वे कोई ठोस बात नहीं कर पाए क्योंकि उनके पास इससे संबंधित बात थी ही नहीं। बस, इतना कहा कि शून्य से नीचे यानी माइनस में जो हम करते हैं उसमें 26 दोष हैं और शून्य को पहला अंक माना जाए। अतः आधुनिक गणित में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। पूज्यपाद पुरीपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंदसरस्वती जी को जो करना था उन्होंने किया। पर पूरे विश्वविद्यालय में जिस तरह से आह्लाद और सफलता की ठसक थी, वह देखने योग्य थी। संचालक और समन्वयक पारंपरिक परिधान यानी धोती-कुर्ता में थे। व्याख्यान के बाद 'दिव्य नाश्ता (ओह! क्षमा कीजिए! 'नाश्ता' फ़ारसी शब्द है। आप 'अल्पाहार' पढ़ें।) जो अपनी दिव्यता और भव्यता में संभवत: विश्वविद्यालय के किसी अकादमिक कार्यक्रम में पहली बार ही उपस्थित हुआ। यह कार्यक्रम भी जनता के टैक्स के पैसे से ही आयोजित हुआ होगा न! वह भी उस परिस्थिति में जब विश्वविद्यालय में यह सूचना जारी की गई हो कि पैसे की कमी के कारण 'एलटीसी', 'एरियर सैलरी' और 'अर्न लीव इनकैशमेंट' अगले आदेश तक के लिए स्थगित किए जा रहे हैं!
आज के कार्यक्रम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके साथी संगठनों की कार्य शैली अधिक स्पष्ट हुई। ऊपर जिस जयघोष का ज़िक्र किया गया उसमें शुरू और अंत में धार्मिक बातें हैं पर धीरे से उसमें बीच में 'गो माता की जय हो, गो हत्या बंद हो' शामिल हो जाता है जो एक शुद्ध राजनीतिक वक्तव्य है। दावा संत के कार्यक्रम का है, संत के व्याख्यान का है और वक्तव्य दिए जा रहे घोर राजनीतिक। और कहा जा रहा है कि सामने वाला राजनीति कर रहा है।
एक बात और समझ में आई कि विश्वविद्यालय के शिक्षक-शिक्षिका और विद्यार्थी समुदाय ने 'विश्वविद्यालय के विचार' से अपने को काट लिया है। ज़्यादातर लोग आह्लादित, प्रमुदित और आनंदित! जिस तरह से दिमागों को बना दिया गया है या बनाया जा रहा है उसमें विश्वविद्यालय के विचार के बचे रहने की कल्पना भी मुश्किल है। इसलिए दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए आज सच में ऐतिहासिक दिन है। पर क्या इतिहास हमें क्षमा कर देगा? क्या वह हमें उत्तरदायी नहीं मानेगा?”
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एक तरफ़ जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों की बेचैनी और दूसरी ओर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में घंटा और आरती की ध्वनियाँ और छात्र, अध्यापक समुदाय की मुर्दा चुप्पी! क्या ज़्यादा ख़तरनाक है?

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