भारत का उपराष्ट्रपति पद, जो राज्यसभा का पदेन सभापति भी है, निष्पक्षता और लोकतांत्रिक नेतृत्व की मांग करता है। जगदीप धनखड़ का कार्यकाल (2022–2025), जो एक विवादास्पद इस्तीफे के साथ अचानक समाप्त हुआ, अपने पूर्ववर्तियों के गरिमामय कार्यकाल से बिल्कुल विपरीत है। अंग्रेजी कहावत “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे” और राल्फ वाल्डो एमर्सन का कथन “कारण और प्रभाव का नियम ही सबसे बड़ा नियम है” धनखड़ के कार्यकाल को दर्शाते हैं, जहां उनकी एकपक्षीय बयानबाजी और स्पष्ट पक्षपात ने असंतोष, अविश्वास प्रस्ताव और अपमानजनक विदाई को जन्म दिया। धनखड़ के राजनीतिक सफर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनकी वफादारी, और यूके के वेस्टमिंस्टर सिस्टम की निष्पक्ष परंपराओं से उनके विचलन को उनके पूर्ववर्तियों के योगदान के साथ तुलना करते हुए यह सवाल भी उठता है कि क्या अगला उपराष्ट्रपति इस पद की लोकतांत्रिक गरिमा बहाल करेगा। लेकिन धनखड़ की विदाई का संदेश साफ है। यह उन नेताओं के लिए चेतावनी है जो कांग्रेस या अन्य दलों से बीजेपी में आए: बीजेपी में रहना है तो “मोदी-मोदी” कहना होगा। यह हिंदुत्व, सनातन या भगवा का मामला नहीं, बल्कि एक सिद्धांत है- एक देश, एक नेता, एक पार्टी, कोई एनडीए नहीं, केवल एक नेता।
धनखड़ की विदाई का संदेश: बीजेपी में रहना है तो ‘मोदी-मोदी कहना होगा’!
- विश्लेषण
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- 23 Jul, 2025

जगदीप धनखड़, पीएम मोदी और अन्य।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने राजनीति में हलचल मचा दी है। क्या यह संदेश है कि बीजेपी में बने रहना है तो नेतृत्व के हर फ़ैसले से सहमति ज़रूरी है? जानिए विदाई के पीछे की सियासत।
धनखड़ का राजनीतिक सफर और पक्षपात के आरोप
जगदीप धनखड़ (जन्म 18 मई, 1951, किठाना, राजस्थान), एक जाट परिवार से, विनम्र शुरुआत से प्रमुख वकील और राजनेता बने। सैनिक स्कूल, चित्तौड़गढ़ और राजस्थान विश्वविद्यालय से शिक्षित, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में वकालत की। जनता दल से राजनीति शुरू कर, कांग्रेस में कुछ समय रहे, और 2008 में बीजेपी में शामिल हुए। उनके करियर में लोकसभा सांसद (1989–1991), राजस्थान विधायक (1993–1998), और संसदीय कार्य राज्य मंत्री (1990–1991) के पद शामिल हैं। लेकिन इसके बाद राजनीति में लगभग हाशिये पर रहे धनखड़ को भाजपा में भविष्य दिखने लगा।