'तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूँ, और दुआ दे के परेशान सी हो जाती हूँ'- 'मुझे जीने दो' की ये लोरी फिल्मों में आम तौर पर इस्तेमाल की गयी मीठी, मासूम, लाड़ जगाती और गुनगुनाने लायक लोकप्रिय लोरियों की तरह नहीं है। डाकुओं के अड्डे पर उनके बीच अपने बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित एक मां का दर्द लता की आवाज़ में क्या खूब उतरा है और परदे पर वहीदा रहमान ने उसे बेजोड़ अभिव्यक्ति दी है। 'मुझ सी मांओं की मुहब्बत का कोई मोल नहीं'- एक तो साहिर की कलम और उस पर जयदेव की बनायीं तर्ज़ -एक अजीब, गहरी सी उदासी घेर लेती है। इसे सुनकर, आंखें डबडबा जाती हैं। एक थरथराहट सी होती है कि ऐसी भी लोरी लिखी जा सकती है, धुन में ढाली जा सकती है और खूबसूरती से गायी जा सकती है।

फ़िल्म संगीतकार जयदेव की जन्म शतवार्षिकी 3 अगस्त के मौके पर सत्य हिन्दी की विशेष पेशकश। आख़िर उन्हें वह जगह क्यों नहीं मिली, जिसके हक़दार वे थे, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ।



























