भारत के स्वतंत्रता संग्राम की कहानी केवल 19वीं और 20वीं शताब्दी तक सीमित नहीं है; इसकी जड़ें 18वीं शताब्दी में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान जैसे नायकों तक जाती हैं। "शेर-ए-मैसूर" टीपू सुल्तानके न केवल अपने साहस और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि आधुनिक रॉकेट तकनीक के शुरुआती विकास में उनके योगदान को भी विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है। फिर भी, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान की नयी पाठ्यपुस्तक ‘एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडिया एंड बियॉन्ड’ से टीपू सुल्तान) का उल्लेख हटा दिया गया है। यह निर्णय सवाल उठाता है: क्या टीपू सुल्तान की जांबाजी और देशप्रेम को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में कोई दिक्कत है? क्या यह कर्नाटक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए टीपू को खलनायक और हिंदू-विरोधी बताने के बीजेपी और आरएसएस के कथित दबाव का परिणाम है?
नेता जी, डॉ. कलाम की प्रेरणा रहे टीपू सुल्तान से भी एनसीईआरटी को ऐतराज़!
- विश्लेषण
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- 18 Jul, 2025

NCERT History Rewrite Controversy: एनसीईआरटी द्वारा टीपू सुल्तान से जुड़ी सामग्री हटाने पर विवाद गहराया। जिन टीपू को नेताजी सुभाष चंद्र बोस और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम प्रेरणास्रोत मानते थे, क्या वो इतिहास से मिटाए जा रहे हैं?
नासा में टीपू सुल्तान के रॉकेट
अमेरिका के नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के वाशिंगटन मुख्यालय की लॉबी में एक पेंटिंग प्रदर्शित है, जो पोल्लिलूर की लड़ाई (1780) को दर्शाती है। इस युद्ध में टीपू के रॉकेटों ने अंग्रेजों की बारूद गाड़ी को नष्ट कर दिया था, जिससे उनकी सेना में भगदड़ मच गई और ईस्ट इंडिया कंपनी को करारी हार का सामना करना पड़ा। ये रॉकेट लोहे की ट्यूबों में भरे गए थे, जिनमें बारूद और अन्य ज्वलनशील पदार्थ होते थे। बांस के डंडों से स्थिरता प्रदान की जाती थी, और कुछ रॉकेटों में धातु के टुकड़े या नुकीली वस्तुएँ जोड़ी जाती थीं ताकि दुश्मन को अधिक नुकसान हो। इन रॉकेटों ने न केवल भौतिक, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी अंग्रेजों को डरा दिया था।