‘‘लता भारत रत्न, मोहम्मद रफी क्यों नहीं?’’, अक्सर यह सवाल शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफी के चाहने वाले पूछते हैं, लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। क्यों हमने अपने इस शानदार गायक की उपेक्षा की है? ‘भारत रत्न’ तो छोड़िए, सरकार ने उन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ के लायक भी नहीं समझा। जबकि उनसे कई जूनियरों को यह पुरस्कार मिल चुका है। गायकी के क्षेत्र में मन्ना डे, पंकज मलिक, लता मंगेशकर और आशा भोंसले उनसे पहले यह पुरस्कार हासिल कर चुके हैं।
रफी के यादगार गाने
मो. रफी का गायन और उनकी शख्सियत किसी भी तरह अपने समकालीन गायकों से कमतर नहीं, बल्कि कई मामलों में तो उनसे इक्कीस ही साबित होगी। चाहे मो. रफी के गाये वतनपरस्ती के गीत ‘‘कर चले हम फिदा’’, ‘‘जट्टा पगड़ी संभाल’’, ‘‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’, ‘‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’ (बैजू बावरा), ‘‘मन रे तू काहे न धीर धरे’’ (फिल्म चित्रलेखा, 1964), ‘‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’’ (फिल्म अमर, 1954), ‘‘जय रघुनंदन जय सियाराम’’ (फिल्म घराना, 1961), ‘‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’’ (फिल्म उस्ताद, 1957) हों, इस शानदार गायक ने इन गीतों में जैसे अपनी जान ही फूंक दी है। दिल की अटल गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाया है।
























