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130 करोड़ लोग, 1 लाख आईसीयू बेड, कैसे लड़ेंगे कोरोना से?

क्या आप कोरोना से सुरक्षित हैं? क्या प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों से आप इस वायरस से सुरक्षित होने के प्रति आश्वस्त हैं? सरकार के पास कोई योजना है जिससे आपका विश्वास पक्का होता हो कि अब कोरोना ख़त्म हो जाएगा? ये सवाल आप ख़ुद से इसलिए पूछिए कि आख़िर क्या वे कारण हैं जिनके दम पर भारत कह सकता है कि हम इसे नियंत्रित कर सकते हैं। क्या लॉकडाउन के दम पर? लेकिन वो तो इटली, स्पेन, जर्मनी, फ़्रांस, अमेरिका सहित कई देशों ने किया, कुछ फ़ायदा नहीं हुआ। क्या हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था मज़बूत है? क्या हम इतनी स्वच्छता रखते हैं कि वायरस पैर नहीं पसार पाएगा? या फिर गोमूत्र जैसे ‘इलाज’ पर विश्वास है?

अब यदि इन सवालों के जवाब चाहिए तो बस भारत की स्थिति देख लीजिए, बाक़ी कोरोना की स्थिति तो आप सभी काफ़ी बेहतर ही जान गए होंगे। 1.3 अरब आबादी है। इतनी घनी आबादी वाले देश में कोरोना वायरस के फैलने के लिए अनुकूल माहौल मिलेगा। 

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कोरोना से लड़ने की तैयारी ऐसी?

30 जनवरी को देश में पहला मामला आया था। इसके बाद से मामले तेज़ी से बढ़े हैं। 26 मार्च तक ऐसे मामले क़रीब 700 हो गए और 16 लोगों की मौत भी हो गई। लेकिन जाँच की स्थिति ऐसी है कि 21 मार्च तक सरकार ने कोरोना जाँच को उन लोगों तक सीमित रखा था जो या तो विदेश से आ रहे थे या फिर सीधे उनके संपर्क में आने पर जिन्हें संदिग्ध माना जा रहा था। यानी उन लोगों की जाँच नहीं की जा रही थी जिनमें कोरोना के लक्षण तो थे लेकिन वे सीधे संपर्क में नहीं आए थे। 

अब सरकार का रवैया देखिए। प्रधानमंत्री ने 21 मार्च से पहले ही कह दिया था कि देश के नाम संबोधन देंगे। और रविवार यानी 22 मार्च को अपने संबोधन में 'जनता कर्फ्यू' की घोषणा करते हैं। और फिर 24 मार्च को पूरे देश भर में लॉकडाउन। यानी सरकार ने गंभीरता दिखाई 21 मार्च के बाद से। जबकि पहला मामला 30 जनवरी को ही आ गया था। फिर इतने दिनों तक सरकार ने क्या किया?

अब दक्षिण कोरिया की मिसाल देखिए। जब जनवरी के आख़िर में पहला मामला सामने आया तो सरकारी अधिकारियों ने कई मेडिकल कंपनियों के प्रतिनिधियों से मुलाक़ात की और आपातकालीन मंजूरी देने का वादा करते हुए उनसे आग्रह किया कि तुरंत ही वे कोरोना वायरस जाँच किट बनाना शुरू कर दें। जब देश में दो हफ़्ते के भीतर पॉजिटिव मामलों की संख्या दो अंकों में भी नहीं पहुँचा था तब उसने हज़ारों जाँच किट तैयार कर लिए थे। अब हर रोज़ एक लाख ऐसे किट को तैयार किया जा रहा है और दूसरे देशों को किट निर्यात करने के लिए बातचीत चल रही है। इसने बिना लॉकडाउन-कर्फ्यू के ही इसे क़रीब-क़रीब नियंत्रित कर लिया। 

लेकिन जाँच के संदर्भ में भारत का नज़रिया काफ़ी निराशाजनक रहा है। और यही कारण है कि कोरोना का असर भारत पर कितना ज़्यादा होगा इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। 

प्रधानमंत्री का प्रयास

प्रधानमंत्री मोदी ने जब कोरोना वायरस को लेकर देश को संबोधित किया तो उन्होंने स्थिति की गंभीरता बताई और सोशल डिस्टेंसिंग व घर में रहने की सलाह दी। यह ठीक भी है। लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं बताया कि वायरस से लड़ने की उनकी योजना क्या है। इसके बदले में उन्होंने इसकी पूरी ज़िम्मेदारी लोगों पर ही डाल दी कि वे ख़ुद से कमरे में बंद हो जाएँ और 'जनता कर्फ्यू' लगाएँ। जब उन्होंने डॉक्टरों और नर्सों की तारीफ़ के लिए ताली और थाली बजाने के लिए कहा तो लोग इकट्ठे होकर इसे उत्सव की तरह मनाने लगे। यानी न तो लोग अलग-थलग रह पाए और न ही उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया। इस पर कई लोगों ने सवाल उठाए कि ताली और थाली बजाने से बेहतर होगा कि वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई में जुटे स्वास्थ्य कर्मियों को मास्क, ग्लव्स, हज़मत सूट जैसे सुरक्षा के पर्याप्त उपकरण मुहैया कराएँ। कई डॉक्टर भी सामने आए। कई लोगों ने सवाल उठाए कि पहले टेस्टिंग किट, बढ़िया क्वरेंटाइन जैसी सुविधाएँ दी जाएँ।

देश भर में कितने आईसीयू हैं, इसकी सटीक जानकारी तो नहीं है, लेकिन एक अनुमान है कि 80 हज़ार से लेकर एक लाख आईसीयू बेड होंगे। 1.3 अरब की जनसंख्या में यह बेहद नाकाफी है। वेंटिलेटर्स और हॉस्पिटल बेड की भी ऐसी ही स्थिति है।

स्वास्थ्य से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि तुरंत प्रभाव से इन सुविधाओं को जितना ज़्यादा से ज़्यादा हो सके बढ़ाना पड़ेगा। 

अपेक्षाकृत काफ़ी मज़बूत स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इटली, स्पेन, फ़्रांस, इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों में हॉस्पिटलों में जगह नहीं बची है। वेंटिलेटर्स और आईसीयू कम पड़ गए हैं। इटली में तो स्थिति ऐसी है कि यह तय करना पड़ रहा है कि किसे बचाने की कोशिश की जाए और किसे ख़तरे में छोड़ दिया जाए। इनमें के किसी देश ने 15 हज़ार वेंटिलेटर तो किसी ने 10 हज़ार और 5 हज़ार वेंटिलेटर खरीदने के ऑर्डर दे दिए हैं। और इसी तर्ज पर भारत में भी वेंटिलेटर खरीदने के लिए कहा जा रहा है।

क्वरेंटाइन और सोशल डिस्टेंसिंग

भारत में एक और बड़ी दिक्कत यह है कि अधिकारी वैसे लोगों को ढूँढ नहीं पा रहे हैं जो संभावित रूप से कोरोना मरीज के संपर्क में आए होंगे। कुछ तो विदेश से लौटे और उन्हें ढूँढा नहीं जा सका है। जो संदिग्ध हैं उनमें से भी कुछ हॉस्पिटलों से भाग जा रहे हैं। ऐसे में ख़ुद से क्वरेंटाइन और सोशल डिस्टेंसिंग का क्या असर होगा? वह भी तब जब इतनी बड़ी आबादी भीड़भाड़ वाले शहरों में रहती है और झुग्गी-झोपड़ियों में एक-एक कमरे में 5-8 लोग रहते हैं। ऐसे में लॉकडाउन का कितना फ़ायदा होगा, यह कहना मुश्किल है।

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गोमूत्र ‘इलाज’

एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि बड़ी संख्या में लोग अभी भी अवैज्ञानिक सोच रखते हैं। प्रधानमंत्री मोदी की घोर हिंदू राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी विचारों वाली पार्टी में ऐसे लोग हैं जो ऐसे विचारों को बढ़ावा देते हैं। सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ने आयुर्वेद और योग जैसे पारंपरिक इलाज पर जोर देने के लिए अलग मंत्रालय बना दिया है। इससे स्वास्थ्य मंत्रालय के उस प्रयास को भी झटका लगा है जिसमें वह अवैज्ञानिक सूचनाओं और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ काम करता रहा है। यही कारण है कि कुछ लोग गाय के गोबर और गोमूत्र से कोरोना से लड़ने की विधि बता रहे हैं। बीजेपी से जुड़े एक कार्यकर्ता को तब गिरफ़्तार गया जब एक पार्टी में लोग गोमूत्र पीने के बाद बीमार पड़ गए। 

बीमार कैसे बचेंगे वायरस से?

दुनिया में सबसे ज़्यादा डायबिटीज़ और दिल की बीमारी के मरीज भारत में ही हैं। डायबिटीज के 5 करोड़ और दिल संबंधी बीमारी के 5.4 करोड़ मरीज हैं। अब इसके साथ साँस यानी फेफड़े की बीमारी वाले मरीजों को मिला दें तो संख्या काफ़ी बड़ी हो जाती है। 2018 में दुनिया भर में क्रोनिक रेस्पिरेटरी डिजीज यानी साँस संबंधी बीमारी के जितने मरीज थे उसमें से एक तिहाई भारत में थे। दुनिया भर में ट्यूबरकुलोसिस यानी टीबी के 1.02 करोड़ मरीज़ हैं जिसमें से 28 लाख लोग भारत में हैं। टीबी से देश में हर रोज़ क़रीब 1400 मौतें होती हैं। कोरोना वायरस सबसे ज़्यादा इन बीमारियों वाले मरीजों के लिए ही ख़तरनाक होता है। 

जिस आधार पर अमेरिका और इंग्लैंड के बारे में गणितीय गणना के आधार पर कोरोना के प्रभाव को आँका गया है उसके आधार पर कहा जा रहा है कि जुलाई के आख़िर तक भारत में 30 करोड़ लोग इस वायरस की चपेट में आ जाएँगे। इसमें से 40 से 50 लाख लोगों की स्थिति गंभीर हो सकती है और 10 से 20 लाख लोगों की मौत हो सकती है।

इस गणना को नकार भी नहीं सकते क्योंकि जब इटली, अमेरिका, स्पेन, फ़्रांस जैसे विकसित और मज़बूत स्वास्थ्य व्यवस्था वाले देश इसको संभाल नहीं रहे हैं तो भारत की स्थिति क्या होगी? 

स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत

इस वायरस से भारत में हालत बिगड़ने का एक और बड़ा कारण है। भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था। लोगों का सरकारी अस्पतालों पर उस तरह का भरोसा नहीं हो पाता है और इसलिए निजी हॉस्पिटलों को अधिकतर लोग पसंद करते हैं। अक्सर रिपोर्टें आती रही हैं कि जो सरकारी हॉस्पिटलों में जाते हैं वे मजबूरी में ऐसा करते हैं यानी ऐसे लोग निजी अस्पतालों के ख़र्च को उठा पाने में सक्षम नहीं होते हैं। हालाँकि निजी हॉस्पिटलों की स्थिति भी काफ़ी अच्छी नहीं है और अक्सर आरोप लगते रहे हैं कि वे इलाज करने से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने पर ध्यान देते हैं। ऐसे भी आरोप लगते रहे हैं कि मरीजों को अनावश्यक ज़्यादा समय तक हॉस्पिलट में रखा गया, ज़्यादा पैसा वसूला गया वगैरह-वगैरह। मेडिकल इंश्योरेंस भी काफ़ी कम हैं।

दरअसल, हॉस्पिटलों की ऐसी स्थिति स्वास्थ्य व्यवस्था पर सरकार के कम ख़र्च के कारण है। सरकार जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद का एक फ़ीसदी से कुछ ज़्यादा ख़र्च करती है जो दुनिया में सबसे कम ख़र्च करने वाले देशों में है। हालाँकि सरकार ने हाल में दावे किए हैं कि वह इससे कहीं ज़्यादा ख़र्च करती है। यही कारण है कि स्वास्थ्य व्यवस्था बिल्कुल चरमराई हुई है।

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'न्यूयॉर्क टाइम्स' की एक रिपोर्ट के अनुसार, सबसे ज़्यादा घनी आबादी वाले राज्यों में से एक महाराष्ट्र के सरकारी हॉस्पिटलों में 450 वेंटिलेटर हैं और 502 आईसीयू यूनिट हैं। जबकि राज्य की आबादी 12.6 करोड़ है। छत्तीसगढ़ में 3.2 करोड़ की आबादी है और 150 वेंटिलेटर हैं। 

देश में टेस्टिंग किट, स्वास्थ्य कर्मियों के लिए टेस्टिंग गियर यानी सुरक्षा के उपकरणों, वेंटिलेटर, आईसीयू और हॉस्पिटलों में बेड की कमी है। 

अब यदि इतनी सारी समस्याएँ हैं तो पहले सरकार कोरोना वायरस से लड़ेगी या फिर इस व्यवस्था को दुरुस्त करेगी? अब यदि सरकार तुरंत ही इस व्यवस्था को दुरुस्त करने में जुटी तो भी काफ़ी देर हो जाएगी। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई भगवान भरोसे नहीं, जनता भरोसे ही होगी? ‘जनता कर्फ्यू’ की तरह। यानी जनता अपनी लड़ाई ख़ुद लड़े!

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अमित कुमार सिंह
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