अब बिहार के जानकार लोग तो यह बात नहीं मानेंगे कि शराब की बिक्री की रफ्तार कुछ कम होने में उनके प्रदेश की शराबबंदी का भी योगदान है, पर असल में ऐसा हो सकता है। देश में शराब की मांग जहां तीन साल पहले बारह फीसदी की रफ्तार से बढ़ी वह अब गिरकर चार फीसदी और फिर दो फीसदी हो चुकी है। और इस कारोबार के लोग इसे भी राहत की खबर ही मान रहे हैं क्योंकि वैश्विक स्तर पर शराब की खपत में एक फीसदी साल की कमी आती जा रही है। और यह कमी शराब कंपनियों की उत्पादन क्षमता घटाने या ब्रांड प्रोमोशन में ढील देने के चलते नहीं आ रही है। माना जाता है कि यह औसत क्रय शक्ति कम होने और शराब की क़ीमत के आबादी के एक हिस्से की क्रय शक्ति से बाहर होने के चलते हो रहा है। ये लोग दूसरी और सस्ती चीजों से नशा की लत को शांत कर रहे होंगे, यह सामान्य अनुमान है। इसमें अधिक मारक ड्रग और घटिया कच्ची शराब शामिल है। इनके दुष्प्रभाव जगजाहिर हैं और अपने यहाँ, खासकर नशाबंदी वाले बिहार और गुजरात में, अक्सर कच्ची शराब पीने से मौत की ख़बरें आती हैं। और ऐसे लोग शासन की चिंता से बाहर हो चुके हैं।
पर अपने यहाँ जो कमी आ रही है वह मुख्यत: शराब पर भारी कर लगाने से आ रही है। जीएसटी लागू होने के बाद से ज्यादातर राज्यों के राजस्व में कमी आई है। खर्च के आइटम बढ़ते ही जा रहे हैं, खासकर लोक लुभावन कार्यक्रमों से चुनाव जीतने की होड़ बढ़ने के चलते। सो सबको राजस्व बढ़ाने का एक ही सरल तरीका दिखता है- शराब की बिक्री बढ़ाओ और उस पर ज़्यादा कर लगाकर खजाना भरो। दिल्ली में हमने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली आप की सरकार के इस खेल में शामिल होने का तमाशा देखा है। अब भाजपा सरकार ने बिक्री और उपलब्धता में किसी किस्म की सख्ती की हो, इसकी सूचना नहीं है। ठीक उलटी सूचना पड़ोस के उत्तर प्रदेश की है जो आज देश में न सिर्फ सबसे ज्यादा बेचता है बल्कि जिसकी बिक्री बढ़ाने की रफ्तार भी सबसे तेज है। योगी राज शुरू होते समय जो राजस्व 17250 करोड़ था वह अब पचास हजार करोड़ तक पहुँच चुका है। यही नहीं, इस सरकार की शराब के ठेकों की नीलामी नीति को भी शराब के व्यापार के लोग सबसे अनुकूल पाते हैं। नोएडा और गाजियाबाद देश में शराब की सबसे ज्यादा और तेज वृद्धि वाले जिले हैं।