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प्रेमचंद 140 : 11वीं कड़ी : 'गोदान' प्रासंगिक क्योंकि अब भी किसान कर रहे हैं आत्महत्या?

प्रेमचंद समाज के संगठन को बदलने की आवश्यकता समझते हैं। वह जानते हैं कि अकेले व्यक्ति का भलापन काफ़ी नहीं। लेकिन उनके ध्यान के केंद्र में आख़िरकार वह मनुष्य ही है, जो अपनी जन्म स्थिति से बंधा हुआ, जो उन परिस्थितियों से आबद्ध है जो उसने नहीं बनाईं, लेकिन जो उसे परिभाषित करती हैं... प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष शृंखला, 11वीं कड़ी।
अपूर्वानंद
प्रेमचंद को लेकर साहित्यवालों में कई बार दुविधा देखी जाती है। उनका साहित्य प्रासंगिक तो है लेकिन क्यों? क्या ‘गोदान’ इसलिए प्रासंगिक है कि भारत में अब तक किसान आत्महत्या कर रहे हैं? या दलितों पर अत्याचार अभी भी जारी है, इसलिए ‘सद्गति’ और ‘ठाकुर का कुआँ’ प्रासंगिक है? क्या ‘रंगभूमि’ इसलिए पढ़ने योग्य बनी हुई है कि किसानों की ज़मीन कारखाने बनाने के लिए या ‘विकास’ के लिए अभी भी जबरन ली जा रही है? इस तरह प्रेमचंद को पढ़ने की आदत-सी बन गई है।
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पढ़ने का अभ्यास

प्रेमचंद को पढ़ने का या साहित्य मात्र पढ़ने का यह अभ्यास कथाकार को सामाजिक विचारक में शेष करके देखने के तरीक़े से जुड़ा हुआ है। इसीलिए ‘प्रेमचंद’ पर अब तक साहित्य की कक्षाओं में यह बहस चलती रहती है कि वे गाँधीवाद से मार्क्सवाद की ओर गए या आदर्शवाद से यथार्थवाद की ओर गए, आदि, आदि। क्या वे सुधार से क्रान्ति की ओर बढ़े? क्या उनके विचारों में विकास ऊर्ध्व दिशा में हुआ? इस प्रकार के प्रश्न आज भी किए जाते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि 1936 में प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में दिए गए उनके व्याख्यान में उनके विचारों का परिपाक दिखलाई पड़ता है। लेकिन अज्ञेय प्रेमचंद पर अपने निबंध ‘उपन्यास-सम्राट’ में इस प्रसंग में एक ऐसी सूचना देते हैं जिसे प्रमाणित करने या ग़लत साबित करने का कोई तरीक़ा हमारे पास नहीं है। वह लिखते हैं, 

“...कभी-कभी यह चिंता उन्हें ग्रस लेती थी कि उनके राजनीतिक विचारों के कारण उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसा राजनीतिक इस्तेमाल भी शोषण ही है और इसकी प्रतिक्रिया ऐसे व्यक्ति में स्वाभाविक थी जिसका सारा मानवतावादी आग्रह मनुष्य वर्ग अथवा समाज के द्वारा मनुष्य के दोहन के विरूद्ध था। लाहौर में आर्य समाज के सम्मेलन में निमंत्रित होकर वहाँ पढ़ने के लिए जो अभिभाषण उन्होंने तैयार किया था, सम्मेलन  में पहुँचकर उन्होंने उसे जेब से निकाला ही नहीं और एक दूसरा ही भाषण वहाँ दिया। तब भी उन्हें यही अहसास था कि अपने जो विचार वह लिख कर लाए हैं उन्हें उस रूप में प्रस्तुत करना उनका दुरूपयोग हो जाने देना होगा। ऐसा ही भाव, लेकिन कुछ और सघन रूप में, उनके मन में लखनऊ के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन  के अवसर पर उठा था, जिसके लिए एक अध्यक्षीय भाषण उन्होंने लिखकर तैयार किया था। वह भाषण भी उन्होंने वहाँ पढ़ा नहीं; एक स्वतंत्र और प्रत्युत्पन्न भाषण ही उन्होंने दिया। अर्थात् जो भाषण उस ‘सम्मेलन का अध्यक्षीय भाषण’ माना जाता है वह वास्तव में उन्होंने कभी दिया नहीं। ...लिखा ज़रूर था; शायद उनमें अनंतर कुछ परिवर्तन भी किए थे।”

प्रेमचंद ख़ुद कथा या उपन्यास का काम समझते थे मनुष्य के मनोभावों को समझना और उनका चित्रण करना। यह ठीक है कि लेखक विचारों के बिना काम नहीं कर सकता, लेकिन वह किसी विचार प्रणाली का प्रवक्ता नहीं है। इस रूप में बात करने से भी कोई लाभ नहीं कि प्रेमचंद में अंतर्विरोध हैं। उनके रहते हुए प्रेमचंद के पक्ष में तर्क यह दिया जाता है कि उनके अंतर्विरोध उनके युग के अंतर्विरोध हैं। लेकिन यह तर्क बहुत लचर है। जब ख़ुद प्रेमचंद यह कहते हैं कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है तो वह अपने युग के अंतर्विरोधों से सीमित कैसे हो सकता है? इस वाक्य का ठीक ठीक अर्थ क्या है? एक अर्थ तो यह हो सकता है कि राजनीति नैतिक मामलों में रणनीतिक हो सकती है, लेकिन साहित्य ऐसा नहीं कर सकता।राजनीति मनुष्यता के दायरे को संकुचित कर सकती है, मानवीय संवेदना के दायरे को छोटा करके ही वह शायद अधिक सफल हो सकती है क्योंकि उसे अपने जनाधार स्पष्ट रखना होता है, लेकिन वह साहित्य का क्षेत्र नहीं है।

पढ़ने के तरीक़े

प्रेमचंद को पढ़ने के कई तरीक़े हो सकते हैं। अपने एक व्याख्यान में नामवर सिंह तोलस्तोय का ज़िक्र करते हैं और प्रेमचंद से उनकी तुलना बेमानी बताते हैं क्योंकि तोलस्तोय अंतिम दौर में ‘पुनरुत्थान’ जैसा उपन्यास लिखते हैं जबकि प्रेमचंद ‘गोदान’ लिखते हैं। 

भीष्म साहनी भी प्रेमचंद पर बात करते हुए तोलस्तोय को याद करते हैं। उनके इसी उपन्यास ‘पुनरुत्थान’ को। नैतिक आग्रहों को लेकर लेखक का संघर्ष मामूली नहीं : 

“तोलस्तोय को इस उपन्यास का मूल कथानक एक मित्र से मिला था... मूल कथानक में वह वैश्या एक पतित स्त्री के रूप में सामने आई थी जिसके कुप्रभाव से नेख्लूदोव जल्दी ही बच निकला था। उपन्यास की मूल अवधारणा में कात्यूशा एक दुश्चरित्रा है और नेख्लूदोव एक भला आदमी। पर तोलस्तोय अपना उपन्यास बार-बार लिखने के बावजूद संतुष्ट नहीं हो पाते थे। पात्रों के सम्बन्ध में वे जिस नैतिक अवधारणा को लेकर चले थे, वह ग़लत साबित हो रही थी कि वास्तव में कात्यूशा मास्लोवा दुश्चरित्रा न होकर एक निर्दोष लड़की थी और नेख्लूदोव एक कमज़ोर और स्वार्थी युवक। अंत में तोलस्तोय ने अपने उपन्यास को आद्योपांत बदल दिया। तोलस्तोय की नैतिक परिकल्पना जब जीवन पर सही नहीं बैठी तो उन्होंने अपनी नैतिक कल्पना को उपन्यास पर ठोंकने के बजाय जीवन का दामन पकड़ा।”

भीष्मजी लिखते हैं, 

“प्रत्येक लेखक के अपने पूर्वग्रह हो सकते हैं, अपनी मान्यताएँ भी, और ज़िंदगी से जुड़नेवाला लेखक उन्हें ज़िंदगी की कसौटी पर परखता रहता है, उसकी आँख जीवन के अंतर्विरोधों को देखती रहती है और उसी के अनुरूप कभी-कभी वह अपनी मान्यताओं को बदलने पर मजबूर हो जाता है।”

अज्ञेय की तरह ही भीष्मजी भी प्रेमचंद को इस तरह समझने की वकालत करते हैं, 

“प्रेमचंद ने विचारों की दुनिया में लम्बी यात्रा की। उनके विचारों में तब्दीलियाँ भी आईं, पर ज़्यादा वक़्त हमें उनकी दृष्टि में एक तरह के खुलेपन का भास मिलता रहा है... इस आदमी के दिल में एक तड़प थी, एक गहरी सच्ची तड़प जो उसे बेचैन किए रही...”

उनके शब्दों में प्रेमचंद की 

“महानता उनकी गहरी मानवीय सद्भावना में पाई जाती है। उनकी दृष्टि की विशालता में पाई जाती है, उनकी गहरी सूझ में, अपने परिवेश के साथ उनके गहरे लगाव में और उस व्यापक परिदृश्य में पाई जाती है जो अपने समकालीन जीवन का उन्होंने हमारे सामने पेश किया।”

मनुष्य होने की नियति 

मानवीय सद्भावना, दृष्टि की विशालता, गहरी सूझ और अपने परिवेश के साथ गहरा लगाव, इनकी वजह से प्रेमचंद बड़े लेखक हैं। इसके साथ ही भीष्मजी की इस बात को भी हमेशा याद रखना चाहिए जब हम प्रेमचंद को पढ़ रहे हों और उनके बारे में अपनी राय बना रहे हों, 

“निराशा और अवसाद के स्थान पर उनकी रचनाओं में आस्था दहक रही है, जीवन के प्रति और समाज के भविष्य के प्रति भी, एकाकीपन के स्थान पर वहाँ साझापन है, भाईचारा है, एक दूसरे का दर्द बाँटने की भावना है, मृत्युबोध के स्थान पर सतत संघर्ष है।” 

और इस वाक्य को भूला ही नहीं जाना चाहिए, 

“मूल्यों और मान्यताओं के प्रति अविश्वास के स्थान पर मूल्यों और नैतिक मर्यादाओं की सतत खोज है।”

प्रेमचंद समाज के संगठन को बदलने की आवश्यकता समझते हैं। वह जानते हैं कि अकेले व्यक्ति का भलापन काफ़ी नहीं। लेकिन उनके ध्यान के केंद्र में आख़िरकार वह मनुष्य ही है, जो अपनी जन्म स्थिति से बंधा हुआ, जो उन परिस्थितियों से आबद्ध है जो उसने नहीं बनाईं, लेकिन जो उसे परिभाषित करती हैं, वह अपने वर्ग का सदस्य है, वह पुरुष है या स्त्री या कुछ और, और उसके सामाजिक रिश्ते उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं। फिर भी वह इन सबसे स्वतंत्र है, एक हिस्सा उसका है जो सबसे विद्रोह करता है और स्वाधीन रहना चाहता है। दूसरे की खोज मनुष्य होने की नियति है, उसकी अस्तित्वगत बाध्यता। जो परिधियाँ उसे घेरे हुए हैं, वह उन्हें तोड़ डालना चाहता है। ख़ुद को हासिल करने के रास्ते में जो भी यातना हो, उसे उठाने को वह तत्पर रहता है, उसकी क़ीमत कुछ भी हो वह चुकाना चाहता है, भले ही उसका चैन हमेशा के लिए उससे छिन जाए। यह यात्रा हमारे वक़्तों में अगर किसी एक में दिखलाई पड़ती है तो वह गाँधी हैं। 

अधूरेपन का अहसास

गाँधी को अपने अधूरेपन का अहसास है। इसीलिए वह अपनी राजनीतिक यात्रा को ख़ुद को समृद्धतर करने के अभियान में भी बदल देते हैं। उनके रिश्तों से स्वतंत्र गाँधी को समझा ही नहीं जा सकता। रिश्ते लेकिन बन नहीं सकते अगर इंसान के उन सब बंधनों से निकलने की गुंजाइश न हो जिनका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। इसका मतलब यह भी है हम जो संभावना ख़ुद में देखते हैं, उसकी जगह दूसरे में भी हम देखें। यानी हमेशा लोगों के साथ रियायत बरती जाए।

अगर यह गुंजाइश हम नहीं देते तो फिर उम्मीद कहाँ बचती है? फिर सिर्फ़ अपनी तरह के और वैचारिक रूप से शुद्ध लोगों का समाज ही बचेगा। और उसके लिए जो परिशुद्धि अभियान चलेगा, उसमें ग़लत क़िस्म के लोगों के संहार के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। यह लेनिन और स्टालिन के रूस में हुआ और शुद्धि अभियान का चीनी रूप सांस्कृतिक क्रान्ति थी। पोल पॉट सिर्फ़ इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहा था। इन सबमें मनुष्य के भीतर की ख़ुद को अतिक्रांत करने की संभावना का सम्पूर्ण निषेध है। वह बदल सकता है, वह मानवीयता को समझ सकता है, यह मानने से इनकार है। इस विचार की तार्किक परिणति जनसंहार है। व्यक्ति को पैदा होने से पहले मार देना। जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि हर मनुष्य में दैवी तत्त्व का निवास है। उसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए।

प्रेमचंद की रचनाओं में जीवन के प्रति जिस दहकती आस्था की आँच भीष्मजी ने महसूस की, जो ख़ुद उनकी रचनाओं में भी हैं, उसे तिरस्कारपूर्वक हृदय परिवर्तनवाद कहा जाता है और हीन माना जाता है।

अगर वह असम्भव नहीं है तो मनुष्य अपरिवर्तनीय है और चिरसंदिग्ध है। किसी तरह की कोई सार्वभौमिकता नहीं हैं, कोई विश्व मानवता नहीं है। आप मुझमें कभी शामिल नहीं हो सकते और किसी तरह की कोई साझेदारी नहीं हो सकती। प्रेमचंद की रचनाएँ इसका प्रतिवाद हैं।

‘घासवाली’ कहानी अनेक प्रकार से समस्याग्रस्त है। फिर भी इस दृष्टि से उसे पढ़ना उपयोगी होगा।

कहानी इस तरह शुरू होती है, 

“मुलिया हरी-हरी घास का गट्ठा लेकर आयी, तो उसका गेहुआँ रंग कुछ तमतमाया हुआ था और बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखों में शंका समाई हुई थी। महावीर ने उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर पूछा - क्या है मुलिया, आज कैसा जी है।

मुलिया ने कुछ जवाब न दिया - उसकी आँखें डबडबा गयीं!

महावीर ने समीप आकर पूछा - क्या हुआ है, बताती क्यों नहीं? किसी ने कुछ कहा है, अम्माँ ने डाँटा है,  क्यों इतनी उदास है?

मुलिया ने सिसककर कहा - कुछ नहीं, हुआ क्या है, अच्छी तो हूँ?

महावीर ने मुलिया को सिर से पाँव तक देखकर कहा - चुपचाप रोयेगी, बतायेगी नहीं?

मुलिया ने बात टालकर कहा - कोई बात भी हो, क्या बताऊँ।”

नाम मुलिया है, इससे अनुमान किया जा सकता है कि वह किस सामाजिक समुदाय की है। लेकिन “उसका गेहुंआ रंग’ क्यों ‘तमतमाया हुआ’ था और क्यों उसकी ‘मद भरी आँखों में’ ‘शंका’ थी? स्त्री के रंग और आँखों को इस क्षण कौन देख पा रहा है? प्रेमचंद इसके बाद मुलिया के रूप का वर्णन करते हैं, 

“मुलिया इस ऊसर में गुलाब का फूल थी। गेहुआँ रंग था, हिरन की-सी आँखें, नीचे खिंचा हुआ चिबुक, कपोलों पर हलकी लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, आँखों में एक विचित्र आर्द्रता, जिसमें एक स्पष्ट वेदना, एक मूक व्यथा झलकती रहती थी।”  

 आगे, 

 “मालूम नहीं, चमारों के इस घर में वह अप्सरा कहाँ से आ गयी थी। क्या उसका कोमल फूल-सा गात इस योग्य था कि सर पर घास की टोकरी रखकर बेचने जाती?”

यह प्रेमचंद बोल रहे हैं या वे जिनके बारे में आगे वे लिखते हैं, 

“वह घास लिये निकलती, तो ऐसा मालूम होता, मानो उषा का प्रकाश, सुनहरे आवरण में रंजित, अपनी छटा बिखेरता जाता हो। कोई ग़ज़लें गाता, कोई छाती पर हाथ रखता; पर मुलिया नीची आँख किये अपनी राह चली जाती। लोग हैरान होकर कहते - इतना अभिमान! महावीर में ऐसे क्या सुरखाब के पर लगे हैं, ऐसा अच्छा जवान भी तो नहीं, न जाने यह कैसे उसके साथ रहती है!”

मुलिया अपनी औकात भूल रही है, उसकी यह मजाल! यह कौन सोच रहा है? प्रेमचंद या वे ‘लोग’ जिनको ऐसा सोचते हुए प्रेमचंद देख रहे हैं?

“जिस दिन की बात है, उस सुबह कुछ हुआ जिसके कारण मुलिया ‘आशंका’ भरी आँखों के साथ लौटी:

मगर आज ऐसी बात हो गयी, जो इस जाति की और युवतियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के लिए हृदय का शूल थी। प्रभात का समय था, पवन आम की बौर की सुगंधि से मतवाला हो रहा था, आकाश पृथ्वी पर सोने की वर्षा कर रहा था। मुलिया सिर पर झौआ रक्खे घास छीलने चली, तो उसका गेहुआँ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुंदन की तरह दमक उठा। एकाएक युवक चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। मुलिया ने चाहा कि कतराकर निकल जाय; मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला - मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती?

इसके पहले वाक्य में (मगर आज ऐसी बात हो गयी, जो इस जाति की और युवतियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के लिए हृदय का शूल थी) क्या लेखक का पूर्वग्रह झाँक रहा है या यह ‘सामाजिक’ मान्यता की अभिव्यक्ति है? दोनों की संभावना है। यह समझ कि इस ‘जाति’ की स्त्रियों को ‘ऊँची’ जाति के इशारे से निहाल होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं, समाज की समझ है। क्या लेखक मुलिया को विलक्षण बताने के लिए इसे ‘जातीय’ विवशता बना रहे हैं? प्रेमचंद को बरी कर देने की हड़बड़ी न होनी चाहिए। लेकिन कहानी तो वह बड़ी है जो लेखक को भी कठघरे में खड़ा करे। 

“मुलिया का वह फूल-सा खिला हुआ चेहरा ज्वाला की तरह दहक उठा। वह जरा भी नहीं डरी, जरा भी न झिझकी, झौआ जमीन पर गिरा दिया, और बोली - मुझे छोड़ दो, नहीं मैं चिल्लाती हूँ।”

मुलिया की इस प्रतिक्रिया का ज़रा भी आभास चैन सिंह को न था:

“चैनसिंह को आज जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नीची जातों में रूप-माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातवालों का खिलौना बने। ऐसे कितने ही मार्के उसने जीते थे; पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका वह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गये। उसने लज्जित होकर उसका हाथ छोड़ दिया।”

चाहे तो कोई कह सकता है कि यह अस्वाभाविक है। कि इसका उत्तर बलात्कार से ही दिया जाता रहा है। चैन सिंह की यह प्रतिक्रिया आख़िरकार एक सवर्ण लेखक के द्वारा सवर्ण पात्र के प्रति सहानुभूति का उदाहरण ही है।

लेकिन इसके बाद का वर्णन मुलिया की मनःस्थति को मार्मिकता से चित्रित करता है। यह प्रेमचंद की कला का एक नमूना भी है,  

“मुलिया वेग से आगे बढ़ गयी। संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा नहीं होती, पीछे से टीस होने लगती है। मुलिया जब कुछ दूर निकल गयी, तो क्रोध और भय तथा अपनी बेकसी को अनुभव करके उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसने कुछ देर जब्त किया, फिर सिसक-सिसक कर रोने लगी। अगर वह इतनी गरीब न होती, तो किसी की मजाल थी कि इस तरह उसका अपमान करता! वह रोती जाती थी और घास छीलती जाती थी। महावीर का क्रोध वह जानती थी। अगर उससे कह दे, तो वह इस ठाकुर के खून का प्यासा हो जायगा। फिर न जाने क्या हो! इस खयाल से उसके रोएँ खड़े हो गये। इसीलिए उसने महावीर के प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया।”

प्रतिकार न कर पाने की बेकसी

कहानी का पहला हिस्सा ख़त्म होता है। शुरू में महावीर उससे जो सवाल कर रहा है, उसका उत्तर वह नहीं देती। क्योंकि उत्तर के बाद विनाश ही है! महावीर कुछ भी ही चैन सिंह से जीत नहीं सकता! अपमान का प्रतिकार न कर पाने की बेकसी!! यह मनुष्य के लिए उस पहले अपमान से भी बड़ा, सबसे बड़ा अपमान है। यह उसके मनुष्य होने पर ही प्रश्न चिह्न लगा देता है।

मुलिया अब घर से नहीं निकलना चाहती। लेकिन वह ग़रीब है। और स्त्री भी। उसकी दुविधा के लिए किसी के मन में कोई सहानुभूति नहीं:

“दूसरे दिन मुलिया घास के लिए न गयी। सास ने पूछा- तू क्यों नहीं जाती? और सब तो चली गयीं?

मुलिया ने सिर झुकाकर कहा - मैं अकेली न जाऊँगी।

सास ने बिगड़कर कहा - अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जायगा?

मुलिया ने और भी सिर झुका लिया और दबी हुई आवाज़ से बोली - सब मुझे छेड़ते हैं।

सास ने डाँटा - न तू औरों के साथ जायगी, न अकेली जायगी, तो फिर जायगी कैसे! वह साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि मैं न जाऊँगी। तो यहाँ मेरे घर में रानी बन के निबाह न होगा। किसी को चाम नहीं प्यारा होता, काम प्यारा होता है। तू बड़ी सुंदर है, तो तेरी सुंदरता लेकर चाटूँ? उठा झाबा और घास ला!

मान-अपमान का अधिकार सबको नहीं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि उसके जीवन में कोई कोमल भाव नहीं। इस वर्णन पर ग़ौर कीजिए:

“द्वार पर नीम के दरख्त के साये में महावीर खड़ा घोड़े को मल रहा था। उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाये जाते देखा; पर कुछ बोल न सका। उसका बस चलता तो मुलिया को कलेजे में बिठा लेता, आँखों में छिपा लेता; लेकिन घोड़े का पेट भरना तो ज़रूरी था। घास मोल लेकर खिलाये, तो बारह आने रोज से कम न पड़े। ऐसी मज़दूरी ही कौन होती है। मुश्किल से डेढ़-दो रुपये मिलते हैं, वह भी कभी मिले, कभी न मिले। जब से यह सत्यानाशी लारियाँ चलने लगी हैं; एक्केवालों की बधिया बैठ गयी है। कोई सेंत भी नहीं पूछता। महाजन से डेढ़-सौ रुपये उधार लेकर एक्का और घोड़ा खरीदा था; मगर लारियों के आगे एक्के को कौन पूछता है। महाजन का सूद भी तो न पहुँच सकता था, मूल का कहना ही क्या! ऊपरी मन से बोला - मन हो, तो रहने दो, देखी जायगी।

   इस दिलजोई से मुलिया निहाल हो गयी। बोली - घोड़ा खायेगा क्या?”

यह है वह प्रेम जो प्रेमचंद के पहले इस तरह देखा नहीं गया। 

मुलिया घास छीलने जाती है और फिर उसका सामना चैन सिंह से हो जाता है। इस हिस्से के एक एक शब्द को ध्यान से पढ़ने से अंदाज़ होगा कि प्रेमचंद कितने सजग गद्यकार हैं और क्यों उनकी कला दीखती नहीं:

“वह बैठकर घास छीलने लगी और एक घंटे में उसका झाबा आधे से ज्यादा भर गया। वह अपने काम में इतनी तन्मय थी कि उसे चैनसिंह के आने की खबर ही न हुई। एकाएक उसने आहट पाकर सिर उठाया, तो चैनसिंह को खड़ा देखा।

मुलिया की छाती धक् से हो गयी। जी में आया भाग जाय, झाबा उलट दे और खाली झाबा लेकर चली जाय; पर चैनसिंह ने कई गज के फासले से ही रुककर कहा - डर मत, डर मत, भगवान जानता है! मैं तुझसे कुछ न बोलूँगा। जितनी घास चाहे छील ले, मेरा ही खेत है।

मुलिया के हाथ सुन्न हो गये, खुरपी हाथ में जम-सी गयी, घास नजर ही न आती थी। जी चाहता था; जमीन फट जाय और मैं समा जाऊँ। जमीन आँखों के सामने तैरने लगी।’

यह बदला हुआ चैन सिंह है:

चैनसिंह ने एक कदम आगे बढ़ाया और बोला - तू मुझसे इतना डरती क्यों है! क्या तू समझती है, मैं आज भी तुझे सताने आया हूँ? ईश्वर जानता है, कल भी तुझे सताने के लिए मैंने तेरा हाथ नहीं पकड़ा था। तुझे देखकर आप-ही-आप हाथ बढ़ गये। मुझे कुछ सुध ही न रही। तू चली गयी, तो मैं वहीं बैठकर घंटों रोता रहा। जी में आता था, हाथ काट डालूँ। कभी जी चाहता था, जहर खा लूँ। तभी से तुझे ढूँढ़ रहा हूँ आज तू इस रास्ते से चली आयी। मैं सारा हाट छानता हुआ यहाँ आया हूँ। अब जो सजा तेरे जी में आवे, दे दे। अगर तू मेरा सिर भी काट ले, तो गर्दन न हिलाऊँगा। मैं शोहदा था, लुच्चा था, लेकिन जब से तुझे देखा है, मेरे मन से सारी खोट मिट गयी है। अब तो यही जी में आता है कि तेरा कुत्ता होता और तेरे पीछे-पीछे चलता, तेरा घोड़ा होता, तब तो तू अपने हाथों से मेरे सामने घास डालती। किसी तरह यह चोला तेरे काम आवे, मेरे मन की यह सबसे बड़ी लालसा है। मेरी जवानी काम न आवे, अगर मैं किसी खोट से ये बातें कर रहा हूँ। बड़ा भागवान था महावीर, जो ऐसी देवी उसे मिली।

मुलिया चुपचाप सुनती रही, फिर नीचा सिर करके भोलेपन से बोली - तो तुम मुझे क्या करने को कहते हो?

चैनसिंह और समीप आकर बोला - बस, तेरी दया चाहता हूँ।

मुलिया इसका जो जवाब देती है, वह भी क्या सिर्फ़ उसी का है या लेखक का भी स्वर वह है? 

मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी लज्जा न जाने कहाँ गायब हो गयी। चुभते हुए शब्दों में बोली - तुमसे एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगे? तुम्हारा ब्याह हो गया है या नहीं?

चैनसिंह ने दबी जबान से कहा- ब्याह तो हो गया, लेकिन ब्याह क्या है, खिलवाड़ है।

मुलिया के होठों पर अवहेलना की मुसकराहट झलक पड़ी, बोली - फिर भी अगर मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता, तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने पर तैयार हो जाते कि नहीं? बोलो! क्या समझते हो कि महावीर चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है, अपने मर्यादा का विचार नहीं है? मेरा रूप-रंग तुम्हें भाता है। क्या घाट के किनारे मुझसे कहीं सुंदर औरतें नहीं घूमा करतीं? मैं उनके तलवों की बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उसमें से किसी से क्यों नहीं दया माँगते! क्या उनके पास दया नहीं है? मगर वहाँ तुम न जाओगे; क्योंकि वहाँ जाते तुम्हारी छाती दहलती है। मुझसे दया माँगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूँ, नीच जाति हूँ और नीच जाति की औरत जरा-सी घुड़की-धमकी वा जरा-सी लालच से तुम्हारी मुट्ठी में आ जायगी। कितना सस्ता सौदा है। ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे?”

चैनसिंह लज्जित होकर बोला - मूला, यह बात नहीं। मैं सच कहता हूँ, इसमें ऊँच-नीच की बात नहीं है। सब आदमी बराबर हैं। मैं तो तेरे चरणों पर सिर रखने को तैयार हूँ।

मुलिया - इसीलिए न कि जानते हो, मैं कुछ कर नहीं सकती। जाकर किसी खतरानी के चरणों पर सिर रक्खो, तो मालूम हो कि चरणों पर सिर रखने का क्या फल मिलता है। फिर यह सिर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।

ऊँच-नीच की बात तो है! यह प्रणय निवेदन इस तरह किसी ऊँची जाति की स्त्री से वह नहीं कर सकता: जाकर किसी खतरानी के चरणों पर सिर रक्खो, तो मालूम हो कि चरणों पर सिर रखने का क्या फल मिलता है।

सामाजिक आलोचना

मुलिया को वह जवाब नहीं दे पाता. मुलिया आगे अपनी सामाजिक आलोचना जारी रखती है:

“मुलिया फिर बोली - मैं भी रोज बाजार जाती हूँ। बड़े-बड़े घरों का हाल जानती हूँ। मुझे किसी बड़े घर का नाम बता दो, जिसमें कोई साईस, कोई कोचवान, कोई कहार, कोई पंडा, कोई महाराज न घुसा बैठा हो? यह सब बड़े घरों की लीला है। और वह औरतें जो कुछ करती हैं, ठीक करती हैं! उनके घरवाले भी तो चमारिनों और कहारिनों पर जान देते फिरते हैं। लेना-देना बराबर हो जाता है। बेचारे गरीब आदमियों के लिए यह बातें कहाँ? मेरे आदमी के लिए संसार में जो कुछ हूँ, मैं हूँ। वह किसी दूसरी मिहरिया की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। संयोग की बात है कि मैं तनिक सुंदर हूँ, लेकिन मैं काली-कलूटी भी होती, तब भी वह मुझे इसी तरह रखता। इसका मुझे विश्वास है। मैं चमारिन होकर भी इतनी नीच नहीं हूँ कि विश्वास का बदला खोट से दूँ। हाँ, वह अपने मन की करने लगे, मेरी छाती पर मूँग दलने लगे, तो मैं भी उसकी छाती पर मूँग दलूँगी। तुम मेरे रूप ही के दीवाने हो न! आज मुझे माता निकल आयें, कानी हो जाऊँ, तो मेरी ओर ताकोगे भी नहीं। बोलो, झूठ कहती हूँ?"

चैनसिंह इनकार न कर सका।

“मुलिया ने उसी गर्व से भरे हुए स्वर में कहा - लेकिन मेरी एक नहीं, दोनों आँखें फूट जायें, तब भी वह मुझे इसी तरह रक्खेगा। मुझे उठावेगा, बैठावेगा, खिलावेगा। तुम चाहते हो, मैं ऐसे आदमी के साथ कपट करूँ? जाओ, अब मुझे कभी न छेड़ना, नहीं अच्छा न होगा।”

चैन सिंह बदल जाता है। प्रेमचंद का सूक्तिपरक गद्य, जो उनके बाद हिंदी में इस तरह देखा नहीं गया:

“जवानी जोश है, बल है, दया है, साहस है, आत्म-विश्वास है, गौरव है और सब कुछ जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है। जवानी का नशा घमंड है, निर्दयता है, स्वार्थ है, शेखी है, विषय-वासना है, कटुता है और वह सब कुछ जो जीवन को पशुता, विकार और पतन की ओर ले जाता है। चैनसिंह पर जवानी का नशा था। मुलिया के शीतल छींटों ने नशा उतार दिया। जैसे उबलती हुई चाशनी में पानी के छींटे पड़ जाने से फेन मिट जाता है, मैल निकल जाता है और निर्मल, शुद्ध रस निकल आता है। जवानी का नशा जाता रहा, केवल जवानी रह गयी।” 

ताज़ा ख़बरें

यह प्रेम ही नहीं, स्वाभिमान भी है जिसे आज तक चैन सिंह ने जाना नहीं था, जो उसे बदल देता है। वह दयालु हो उठता है। सिर्फ़ एक तरफ़ नहीं, हर तरफ़।

लेकिन प्रेमचंद हल्के लेखक नहीं हैं। चैन सिंह मुलिया के प्रेम में है, यह कहानी नहीं भूलती। वह उसके पति को एक रुपया रोज़ देना चाहता है कि उसे रोज़ कचहरी घास बेचने न जाना पड़े:

“कोई चार बजे चैनसिंह कचहरी से फुरसत पाकर बाहर निकले। हाते में पान की दुकान थी, जरा और आगे बढ़कर एक घना बरगद का पेड़ था, उसकी छाँह में बीसों ही ताँगे; एक्के, फिटने खड़ी थीं। घोड़े खोल दिए गये थे। वकीलों, मुख्तारों और अफसरों की सवारियाँ यहीं खड़ी रहती थीं। चैनसिंह ने पानी पिया, पान खाया और सोचने लगा कोई लारी मिल जाय, तो जरा शहर चला जाऊँ कि उसकी निगाह एक घासवाली पर पड़ गयी। सिर पर घास का झाबा रक्खे साईसों से मोल-भाव कर रही थी। चैनसिंह का हृदय उछल पड़ा यह तो मुलिया है! बनी-ठनी, एक गुलाबी साड़ी पहने कोचवानों से मोल-तोल कर रही थी। कई कोचवान जमा हो गये थे। कोई उससे दिल्लगी करता था, कोई घूरता था, कोई हँसता था। 

एक काले-कलूटे कोचवान ने कहा - मूला, घास तो उड़के अधिक से अधिक छ: आने की है।

मुलिया ने उन्माद पैदा करने वाली आँखों से देखकर कहा - छ: आने पर लेना है, तो सामने घसियारिनें बैठी हैं, चले जाओ, दो-चार पैसे कम में पा जाओगे, मेरी घास तो बारह आने में ही जायगी।

एक अधेड़ कोचवान ने फिटन के ऊपर से कहा - तेरा जमाना है, बारह आने नहीं एक रुपया माँग। लेनेवाले झख मारेंगे और लेंगे। निकलने दे वकीलों को, अब देर नहीं है।

एक ताँगेवाले ने, जो गुलाबी पगड़ी बांधे हुए था, बोला - बुढ़ऊ के मुँह में पानी भर आया, अब मुलिया काहे को किसी की ओर देखेगी!

चैनसिंह को ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन दुष्टों को जूते से पीटे। सब-के-सब कैसे उसकी ओर टकटकी लगाये ताक रहे हैं, आँखों से पी जायेंगे। और मुलिया भी यहाँ कितनी खुश है। न लजाती है, न झिझकती है, न दबती है। कैसा मुसकिरा-मुसकिराकर, रसीली आँखो से देख-देखकर, सिर का आँचल खिसका-खिसकाकर, मुँह मोड़-मोड़कर बातें कर रही है। वही मुलिया, जो शेरनी की तरह तड़प उठी थी।”

इतने बेहया मर्दों के बीच उसकी मुलिया! उसे बर्दाश्त नहीं। वह इनके बीच न आए, इसका उपाय यही है कि वह उसके पति महावीर को एक रुपया रोज़ दे:

मेरी एक सलाह है। तुम मुझसे एक रुपया रोज लिया करो। बस, जब मैं बुलाऊँ तो एक्का लेकर चले आया करो। तब तो तुम्हारी घरवाली को घास लेकर बाजार न जाना पड़ेगा। बोलो मंजूर है?

महावीर ने सजल आँखो से देखकर कहा - मालिक, आप ही का तो खाता हूँ। आपकी परजा हूँ। जब मरजी हो, पकड़ मँगवाइए। आपसे रुपये…

चैनसिंह ने बात काटकर कहा - नहीं, मैं तुमसे बेगार नहीं लेना चाहता। तुम मुझसे एक रुपया रोज ले जाया करो। घास लेकर घरवाली को बाजार मत भेजा करो। तुम्हारी आबरू मेरी आबरू है। और भी रुपये-पैसे का जब काम लगे, बेखटके चले आया करो। हाँ, देखो, मुलिया से इस बात की भूलकर भी चर्चा न करना। क्या फायदा!”

मानवीय, भोला आशावाद

इस उद्धरण में गाँव का पूरा समाजशास्त्र है। लेकिन मनुष्य फिर भी मनुष्य है और वह समाज से बच सकता है:

कई दिनों के बाद संध्या समय मुलिया चैनसिंह से मिली। चैनसिंह असामियों से मालगुजारी वसूल करके घर की ओर लपका जा रहा था कि उसी जगह जहाँ उसने मुलिया की बाँह पकड़ी थी, मुलिया की आवाज कानों में आयी। उसने ठिठककर पीछे देखा, तो मुलिया दौड़ी आ रही थी। बोला - क्या है मूला! क्यों दौड़ती हो, मैं तो खड़ा हूँ?

मुलिया ने हाँफते हुए कहा - कई दिन से तुमसे मिलना चाहती थी। आज तुम्हें आते देखा, तो दौड़ी। अब मैं घास बेचने नहीं जाती।

चैनसिंह ने कहा - बहुत अच्छी बात है।

'क्या तुमने कभी मुझे घास बेचते देखा है?’

'हाँ, एक दिन देखा था। क्या महावीर ने तुझसे सब कह डाला? मैंने तो मना कर दिया था।'

'वह मुझसे कोई बात नहीं छिपाता।'

दोनों एक क्षण चुप खड़े रहे। किसी को कोई बात न सूझती थी। एकाएक मुलिया ने मुस्कराकर कहा - यहाँ तुमने मेरी बाँह पकड़ी थी।

चैनसिंह ने लज्जित होकर कहा - उसको भूल जाओ मूला। मुझ पर जाने कौन भूत सवार था।

मुलिया गद्गद्‍ कंठ से बोली- उसे क्यों भूल जाऊँ। उसी बाँह गहे की लाज तो निभा रहे हो। गरीबी आदमी से जो चाहे करावे। तुमने मुझे बचा लिया। 

फिर दोनों चुप हो गये।

जरा देर के बाद मुलिया ने फिर कहा - तुमने समझा होगा, मैं हँसने-बोलने में मगन हो रही थी?

चैनसिंह ने बलपूर्वक कहा - नहीं मुलिया, मैंने एक क्षण के लिए भी नहीं समझा।

मुलिया मुस्कराकर बोली - मुझे तुमसे यही आशा थी, और है।

क्या चैन सिंह बदल नहीं सकता? क्या मुलिया उसकी दया की पात्र हो गई है? क्या वह उसे माफ़ नहीं कर सकती? क्या दोनों के बीच कोई इंसानी रिश्ता नहीं बन सकता? कहानी का अंतिम वाक्य पढ़िए और चार्ली चैपलिन की फ़िल्मों के अंत के मानवीय, भोले आशावाद को याद कीजिए:

“पवन सिंचे हुए खेतों में विश्राम करने जा रहा था, सूर्य निशा की गोद में विश्राम करने जा रहा था, और उस मलिन प्रकाश में चैनसिंह मुलिया की विलीन होती हुई रेखा को खड़ा देख रहा था!”

इसमें प्रेमचंद की कला मुखर है या मानवीयता के प्रति उनकी आशा? या कला उसके बिना है ही नहीं?

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अपूर्वानंद
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