ऐसा कम होता है कि किसी पुस्तक के शीर्षक में ही इतना रहस्यनुमा आकर्षण हो कि आप उसे तुरंत पढ़ना चाहें। प्रखर पत्रकार उर्मिलेश जी की संस्मरणात्मक पुस्तक 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' दो दिन पहले मिली और आज जब पुस्तक पढ़कर समाप्त की तो लगा कि लेखक ने अपनी आपबीती को जिस तरह जगबीती बनाने का हुनर इस किताब में हासिल किया है, वह इसके पूर्व मुझे अंग्रेजी में लिखित दो संस्मरणात्मक आत्मवृतांतों में ही दिखा था, एक राज थापर की 'ऑल दीज ईयर्स' और दूसरी ख्वाजा अहमद अब्बास की 'आई एम नॉट एन आइलैंड'। जिस तरह से इन दोनों पुस्तकों में लेखकों के जीवन के घटनाक्रमों के बहाने उनके समय, समाज की सच्चाइयाँ आत्मीय वृतांत के ज़रिये उद्घाटित हुई हैं, कुछ-कुछ वैसा ही 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' में भी है। उत्सुकतावश मैंने इस पुस्तक के शीर्षक को डिकोड करने की प्रक्रिया में इसका 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल की आवाज़ें' शीर्षक किंचित लंबा अध्याय, पुस्तक का क्रम भंग करके, सबसे पहले पढ़ा।