ऐसा कम होता है कि किसी पुस्तक के शीर्षक में ही इतना रहस्यनुमा आकर्षण हो कि आप उसे तुरंत पढ़ना चाहें। प्रखर पत्रकार उर्मिलेश जी की संस्मरणात्मक पुस्तक 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' दो दिन पहले मिली और आज जब पुस्तक पढ़कर समाप्त की तो लगा कि लेखक ने अपनी आपबीती को जिस तरह जगबीती बनाने का हुनर इस किताब में हासिल किया है, वह इसके पूर्व मुझे अंग्रेजी में लिखित दो संस्मरणात्मक आत्मवृतांतों में ही दिखा था, एक राज थापर की 'ऑल दीज ईयर्स' और दूसरी ख्वाजा अहमद अब्बास की 'आई एम नॉट एन आइलैंड'। जिस तरह से इन दोनों पुस्तकों में लेखकों के जीवन के घटनाक्रमों के बहाने उनके समय, समाज की सच्चाइयाँ आत्मीय वृतांत के ज़रिये उद्घाटित हुई हैं, कुछ-कुछ वैसा ही 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' में भी है। उत्सुकतावश मैंने इस पुस्तक के शीर्षक को डिकोड करने की प्रक्रिया में इसका 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल की आवाज़ें' शीर्षक किंचित लंबा अध्याय, पुस्तक का क्रम भंग करके, सबसे पहले पढ़ा।
गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल: जेएनयू में कम दलित शिक्षक मुद्दा क्यों नहीं!
- साहित्य
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- 25 Jul, 2021
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के संस्मरणों की किताब ‘ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’ की किताब आ चुकी है। नवारुण प्रकाशन ने इसका प्रकाशन किया है। पढ़िए, प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र यादव से इसकी समीक्षा।

पढ़ते ही अंग्रेजी में जिसे deja vu कहते हैं, उसकी अनुभूति मुझे इस कारण हुई कि उर्मिलेश ने गाजीपुर के जिन मार्क्सवादी बुद्धिजीवी प्रो. पी एन सिंह के माध्यम से कॉडवेल की आवाज़ें सुनी थीं, उन्हें मैंने नौवें दशक में पहली बार जब देखा था, तब वे लखनऊ में वाम प्रगतिशीलों के अड्डे 'चेतना बुक सेंटर' में कॉडवेल पर केन्द्रित एक पुस्तक से नोट्स लेने में मशगूल थे। परिचय हुआ तो पता चला कि वे कॉडवेल पर अंग्रेजी में शोध कर रहे थे और गाजीपुर में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे।