फ़्रेंच दार्शनिक वॉल्टेयर ने कहा था "मैं तुम्हारे विचारों से नफ़रत करता हूँ, फिर भी तुम्हें वो कहने के अधिकार की रक्षा के लिये जान भी दे सकता हूँ।" वाल्टेयर ने यह बात 18वीं शताब्दी में कही थी। आज 22वीं शताब्दी है। चार शताब्दी पहले।

मौजूदा समय में शासन व्यवस्था ऐसे लोगों के हाथ में है, जिन्हें भारतीय संविधान से ही चिढ़ है। वे एक ऐसी विचारधारा के मानने वाले हैं जो नेता से सवाल- जवाब की इजाज़त नहीं देता। लीडर का कहना पत्थर की लकीर है। उसकी अवहेलना नहीं हो सकती। लोकतांत्रिक मूल्य उनकी परंपरा से ग़ायब हैं। स्वतंत्र चिंतन के लिये स्थान नहीं है।
यह वह वक़्त था जब यूरोप में चर्च और राजशाही के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान हो चुका था। भारत के मध्यकालीन इतिहास में राजशाही तो थी, लेकिन धर्म ने सत्ता और समाज को उस तरह से नही जकड़ रखा था जिस तरह से यूरोप में। वहाँ समाज का कोई भी धड़ा धर्म की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता था।
यहाँ तक कि राजा को भी शादी या तलाक़ के लिये धर्म की इजाज़त चाहिये होती थी। कैथोलिक चर्च इतना ताक़तवर था कि राजा भी उसके सामने नतमस्तक रहते थे। धर्मगुरु पोप को राजाओं का राजा भी कहा जाता था।
यहाँ तक कि राजा को भी शादी या तलाक़ के लिये धर्म की इजाज़त चाहिये होती थी। कैथोलिक चर्च इतना ताक़तवर था कि राजा भी उसके सामने नतमस्तक रहते थे। धर्मगुरु पोप को राजाओं का राजा भी कहा जाता था।
धर्म की जकड़न
सोलहवीं शताब्दी आते आते धर्म की जकड़न इतनी बढ़ गयी थी कि चर्च पैसे लेकर यह तय करने लगे थे कि किसको स्वर्ग जाना है और किसको नर्क। कोई कितना भी बड़ा पाप कर ले लेकिन चर्च को मोटी रक़म दे कर वह अपने पाप माफ़ करवा सकता था और मुक्ति पा सकता था।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।