फ़ाइल फ़ोटो
जो ग़लती मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनवाकर की, भारत में आज वही ग़लती दुहरायी जा रही है। धार्मिक भावनाओं को उभारा जा रहा है। जैसे जिन्ना ने हिंदुओं के ख़िलाफ़ नफ़रत भरी वैसे ही अब भारत में मुसलिमों को टारगेट किया जा रहा है। धार्मिक भावनाओं को भड़का कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, सरकार बनायी जा सकती है, पर क्या इस आधार पर बने मुल्क में शांति रह पाएगी?
अंग्रेज़ों के आने के बाद भी लंबे समय तक हिंदू और मुसलमान सह-अस्तित्व की भावना से रहते थे। 1857 की लड़ाई में हिंदू-मुसलिम एकता की तस्दीक़ तो ख़ुद हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने की थी। 1857 पर उनकी किताब इसकी गवाह है। बाद में अंग्रेज़ों को लगा कि अगर ये साथ रहे तो भारत पर शासन करना असंभव होगा, लिहाज़ा ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनायी।
जिन्ना पर लिखी पाकिस्तानी लेखक इश्तियाक़ अहमद की किताब के पन्ने इस बात के प्रमाण हैं कि क़ायदे आज़म जिन्ना का इस्तेमाल अंग्रेज़ों ने आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए किया। जिन्ना को अपनी राजनीति के लिए यह बहुत मुफ़ीद भी लगा।
याद रखने वाली बात है कि 1940 में मुसलिम लीग के लाहौर अधिवेशन में ज़िन्ना ने पहली बार मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की बात की थी। उन्होंने खुलेआम कहा था कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं, कांग्रेस हिंदू पार्टी है, और गांधी एक हिंदू नेता। उन्होंने द्वि-राष्ट्र की वकालत शुरू की। वह कहने लगे कि हिंदू-मुसलमान साथ नहीं रह सकते। ये दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। जिन्ना ने लाहौर अधिवेशन में कहा, ‘हिंदू और मुसलमान के इतिहास में अलग-अलग प्रेरणा स्रोत हैं, उनके अपने अलग महाकाव्य हैं, उनके नायक अलग हैं, और अक्सर एक समुदाय का नायक दूसरे समुदाय का खलनायक भी है। ऐसे में दोनों को एक साथ एक सत्ता के अंदर रखने, जहाँ एक संख्या में अल्पसंख्यक हो और दूसरा बहुसंख्यक, से असंतोष बढ़ेगा और सामाजिक तानाबाना छिन्न-भिन्न होगा।’
जिन्ना ने आगे कहा, ‘मुसलिम इंडिया ऐसे किसी भी संविधान को नहीं मान सकता जो अंततः बहुसंख्यक हिंदू सरकार में तब्दील हो जाएगा। अल्पसंख्यकों पर थोपी गयी लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंदू-मुसलमान को साथ रखने का अर्थ है हिंदू राज। कांग्रेस आला कमान जिस लोकतंत्र की बात कर रहा है उसका सीधा मतलब है इसलाम की अमूल्य धरोहरों का पूर्ण नाश होना।’
यह वही जिन्ना थे जिन्होंने 1906 में मुसलिम लीग की स्थापना की आलोचना की थी। और 1909 में मुसलमानों को पृथक प्रतिनिधित्व देने का विरोध किया था। जिन्ना को हिंदू-मुसलिम एकता की मूर्ति कहा जाता था।
जिन्ना को 1920 तक कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेताओं में गिना जाता था। जिन्ना 1920 आते-आते कांग्रेस में गांधी के बढ़ते प्रभाव को पचा नहीं पाते हैं। यह वही जिन्ना थे जिन्होंने दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटे गांधी के स्वागत समारोह की अगुवाई की थी, उनकी शान में कसीदे पढ़े थे। यह सच है कि जिन्ना के मुसलिम नेता बनने के पहले से ही द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत पर चर्चा शुरू हो गयी थी। हिंदुओं की तरफ़ से सावरकर यह कह रह थे कि हिंदू-मुसलमान साथ नहीं रह सकते और दूसरी तरफ़ अल्लामा इक़बाल और चौधरी रहमत अली जैसे मुसलिम नेता पाकिस्तान की वकालत कर रहे थे। भारत के उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व में जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक थे वहाँ एक अलग देश बनाने की सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। इक़बाल ने 1930 में कहा था, ‘भारत में मुसलिमों के लिए मुसलिम इंडिया बनाने की माँग पूरी तरह से सही है।’
इक़बाल का मुसलिम वर्ल्ड में बड़ा मुक़ाम था। वह न केवल बड़े शायर थे बल्कि बड़े दार्शनिक भी थे। उन्हें जिन्ना का गुरु भी कहना ग़लत नहीं होगा। इक़बाल ने जिन्ना को तेरह ख़त लिखे थे, यह कहने के लिए कि उन्हें अपना राजनीतिक अज्ञातवास ख़त्म कर मुसलिमों की अगुवाई करनी चाहिए। जिन्ना को समझाने के लिए एक ख़त में वह लिखते हैं कि मुझे इस बात पर पूरा यक़ीन है कि मुसलिमों की हालत तभी सुधरेगी जब शरीयत के हिसाब से शासन चलेगा और ऐसा मुसलिम राष्ट्र में ही संभव है। वह लिखते हैं, ‘अगर भारत में यह संभव नहीं है तो फिर गृह युद्ध एक मात्र विकल्प है। हिंदू-मुस्लिम दंगों के रूप में ये वैसे भी चल रहा है।’
जिन्ना ने इक़बाल को निराश नहीं किया। उनके विचारों को राजनीतिक लिबास पहनाया और फिर पाकिस्तान बनाने की राह पर चल पड़े।
जिन्ना इतिहास की वो पहेली हैं जिसका कोई सीधा जवाब नहीं मिलता। धर्म को न मानने वाला, मुसलमानों के लिए हराम सुअर का गोश्त खाने वाला, शराब पीने वाला एक शख़्स कैसे राजनीति का इस्तेमाल कर मुसलिम समुदाय की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठा क़ायदे आज़म बन जाता है।