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फैज़ान का राष्ट्रगान और भारत... किधर जा रहा है देश

भारत किधर जा रहा है?  पूरा विश्व चिंता के साथ पूछ रहा है। भारत के73वें गणतंत्र दिवस पर हमें खुद से भी यह सवाल करना चाहिए कि हमारा देश किस रास्ते पर जा रहा है। तमाम सवालों को तलाशता लेखक, चिन्तक, प्रोफेसर अपूर्वानंद का यह लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए।


अपूर्वानंद

आज से लगभग 90 साल पहले यही प्रश्न जवाहर लाल नेहरू ने पूछा था। ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी के लक्ष्य से तो अभी हम दूर थे लेकिन इस बात पर बहस शुरु हो चुकी थी कि आखिर इस स्वतंत्रता का क्या अर्थ है और इसे हासिल कैसे किया जायगा। 1933 में प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तिका ‘भारत किधर' (Whither India) में देश के भावी और पहलेप्रधानमंत्री ने ये प्रश्न पूछे हैं। 

 " हम किस उद्देश्य से चालित हैं? स्वतंत्रता? स्वराज? आजादी?... शब्द जिनके मानी बहुत गहरे हो सकते हैं या कुछ भी नहीं। यदि हमारा लक्ष्य आजादी है तो किसकी आजादी? क्योंकि राष्ट्रवाद  तमाम पापों को छिपा लेता है और अनेक परस्पर विरोधी तत्वों को समाहित किए हुए होता है। एक भारत है जिसमें सामन्ती राजा हैं, छोटे बड़े जमींदार हैं, और एक है जिसमे किसान हैं, मजदूर हैं ,मध्य वर्ग हैं। इन वर्गों में हितों के लिए खुद के भीतर और दूसरों से संघर्ष चलता रहता है।"

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नेहरू को पढ़ते वक्त यह स्पष्ट है कि उनकी चिंता आर्थिक प्रश्नों के इर्दगिर्द केन्द्रित है। लेकिन मनुष्य सिर्फ अर्थ से संचालित होने वाला प्राणी नहीं है। भली ज़िंदगी जीवन की इच्छा, जीवन में स्वतंत्रता के प्रभावशाली विचार को संचालित करती है. नेहरू कहते हैं कि भले जीवन के लिए स्वतंत्रता पहली शर्त है। जब बात राष्ट्र की हो तब राष्ट्र की स्वतंत्रता और जब बात व्यक्ति की हो तो वैयक्तिक स्वतंत्रता।

 

जब हम इस देश के महान विचारकों के बीच चल रही बहसों को देखते हैं तो पाते हैं कि व्यक्ति की स्वतंत्रता का विचार, राष्ट्र की स्वतंत्रता की संकल्पना के मूल में है। यह व्यक्ति कौन है? क्या हर कोई वैयक्तिकता का दावा कर सकता है? इसके लिए हमारे भीतर समानता और स्वतंत्र व्यक्तित्व का भाव होना चाहिए। स्वतंत्र व्यक्तित्व- जो स्वयं निर्णय ले सके और स्वतंत्रतापूर्वक उसके अनुसार कार्य कर सके। 

जातियों से जकड़े असमानता पर आधारित भारत जैसे देश में स्वतंत्रव्यक्तित्व का निर्माण ही चुनौतियों भरा कार्य है। इसमें उनके साथ संघर्ष निहित है, जो हैं तो एक ही राष्ट्र के लेकिन एक दूसरे से अलग और दूर हैं। इस स्वायत्त स्व के अभाव में कोई कैसे कह सकता था कि उनका सम्बन्ध किसी राष्ट्र से या उसके लोगों से है?

फिर भी भारत के लिए लोगों से कुर्बानी माँगी गई। किस भारत के लिए? डेनिश पत्रकार, शांति स्थापना के लिए कार्य करने वाली, गांधी की मित्र ऐलन होरुप ने कहा था कि गांधी से मिलने पर उन्होने सोचा था कि वे भारत को पूरी तरह जान गईं हैं, लेकिन यह उनकी भूल थी। भारत में और संयम बिताने पर उन्हें अहसास हुआ कि भारत गांधी से बहुत बड़ा है। गांधी आख़िरकार पुरुष थे, वह भी हिन्दू पुरुष. भारत को जानने, समझने के लिए उन्हें गांधी के आगे जाना पड़ा।

 

भारत अनेक पहचानों से मिलकर बना है जो एक दूसरे से भिन्न तो हैं ही कई मामलों में एक दूसरे की विरोधी भी हैं। इसमें सैकड़ों भाषाएँ हैं, अनेक जातीय संस्कृतियाँ हैं। इतनी विविधता और असमानता से पूर्ण जनसंख्या के भीतर से राष्ट्र का निर्माण महत्त्वाकांक्षी कार्य था। लेकिन इस राष्ट्र के निर्माताओं ने इस चुनौती को स्वीकार किया और भारत के निर्माण की साहसपूर्ण यात्रा पर कदम बढ़ाए।

भारत के प्रति इसके नागरिकों में निष्ठा होनी ही चाहिए। लेकिन भारत को भी अपने नागरिकों के प्रति . नदी घाटी परियोजना के सम्बंध  में अपने मंत्रियों से बात करते हुए नेहरू ने कहा था-

एक बार मुझसे पूछा गया आपके लिए सबसे प्रमुख समस्या कौन सी है? या कौन सी समस्याएँ हैं? मैने कहा, 'भारत में 36 करोड़ समस्याएँ हैं।


यह जबाब लोगों को मजाक लगा, मगर इसमें सच्चाई है: अपनी समस्याओं को 36 करोड़ व्यक्तियों के, जो महज संख्या नहीं है;  नजरिए से देखना चाहिए. नेहरू ने कहा था, "हमें अपनी चिंता के केन्द्र में व्यक्ति को लाना होगा, व्यक्ति के सुख को, व्यक्ति की तकलीफ़ को।" हमें अपने चिंतन को अमूर्त संख्याओं में उलझाने  की बजाय मनुष्य पर केंद्रित करना होगा।

 

इस अनुरोध के 70 वर्ष बाद भी एक नौजवान को निराशा भरे आर्त्त स्वर मेंकहना पड़ा, "व्यक्ति के मूल्य को उसकी निकटतम पहचान,न्यूनतम संभावनाओं यानी एक वोट, एक संख्या, एक वस्तु तक सीमित कर दिया गया है। सभी क्षेत्रों में, शिक्षा में, घरों में, राजनीति में, जीवन में, मृत्यु में कहीं भी उसके साथ स्वतंत्र मस्तिष्क की तरह व्यवहार नहीं किया जाता। यह नहीं माना जाता वे ही तत्त्व हर मनुष्य में हैं जिन तत्त्वों से इस ब्रह्मांड का अस्तित्व है।

दलित और पीएचडी के विद्यार्थी रोहित वेमुला इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सके कि उन्हें महज संख्या, वोट, या उनकी निकटतम पहचान तक सीमित कर दिया जाय। किसी समाज या राष्ट्र का किसी मनुष्य को स्वतंत्र व्यक्तित्व और मस्तिष्क मानने से इंकार करना सबसे बड़ा अपमान है. और इस अपमान ने रोहित को मार डाला। .

हमने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि रोहित की वेदना एक ऐसे स्थान पर अधिक गहरी हो गई जिसकी स्थापना स्वत्व और व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए की गई है. यह विश्वविद्याल और राज्य की विफलता का प्रतीक है। आधुनिक राष्ट्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे नागरिकों से संवाद कायम करें।

 

पुणे में जून 2014 में मोहसिन शेख को उनकी मुस्लिम पहचान तक सीमित करके उसकी हत्या कर दी गई। उन्हें एक व्यक्तित्व के रूप में नहीं स्वीकार किया गया और उनकी धार्मिक पहचान उनकी हत्या का कारण बनी। बाद में. मोहसिन शेख़, मोहम्मद अखलाक, पहलू खान,  जुनैद खान, और भीड़ द्वारा की गई ऐसे अनेक व्यक्तित्वों की  हत्याओं को भारतीय पहचान के निर्माण के युद्ध में छोटी छोटी कुर्बानियां कहा गया।

मुसलमानों से कहा जाता है कि वैयक्तिक अधिकारों के लिए उन्हें मुस्लिम पहचान को समाप्त कर भारतीय पहचान को अपनाना होगा - जो और कुछ नहीं हिन्दू पहचान का ही दूसरा नाम है। अन्यथा उन्हें उनकी निकटतम (धार्मिक) पहचान तक सीमित कर दिया जायगा और व्यक्तिगत अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा।

यही बात दिल्ली हिंसा के मामले में गिरफ्तार, कार्यकर्ता शरजील इमाम से कही गई कि उनकी शिक्षा और ज्ञान; जिनकी सहायता से मनुष्य का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व विकसित होता है; विशाल और एकमात्र वैध भारतीय पहचान को खत्म करने का षड्यंत्र है।

 

जब कश्मीरी पत्रकार सज्जाद गुल को उनकी स्वतंत्रता से, जो हर व्यक्ति का अधिकार है;  वंचित किया गया तो यह तर्क दिया गया कि शिक्षित मुसलमान राष्ट्र की अखण्डता के लिए  'ख़तरनाक' हो सकते है।

 

एयर होस्टेस, पत्रकार, शोधार्थी, रेडियो कलाकार और अभिनेत्री : ये सब उन महिलाओं में शामिल हैं जो नव वर्ष के पहले दिन जगीं और उन्होंने पाया कि उनकी वैयक्तिक गरिमा का अपहरण कर लिया गया है और उन्हें ‘बुल्ली बाई' ( महिलाओं के लिए प्रयुक्त अपमान जनक शब्द) बनाकर नीलाम किया जा रहा है।

वे सब आज़ाद शख्सियतें हैं, संविधान के विचार को हकीकत में बदलती हुईं, लेकिन वे अचानक खुद को मुस्लिम पहचान से बंधा हुआ पाती हैं।

भारतीयता को एक उदार विचार माना गया था। अब यह मानो जेलखाना  बन चुका है, एक गिलोटिन का रूप ले लिया है जो विविधताओं को काट डालता है। यह भारत केरल को महाबालि को भूलकर वामन की पूजा करने को कहता है, बंगाल से दुर्गा और काली के स्थान पर राम और बजरंग बली को अपनाने को कहता है, मियां कवियों की जुबां तराश कर उनसे असमिया में ही बोलने को कहता है, मध्यप्रदेश में अधिकारियों को उर्दू की जगह शुद्ध हिंदी शब्दों के इस्तेमाल का निर्देश देता है।

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भारत आज किधर जा रहा है है? वह भारत जो एक रोमांचक यात्रा में भागीदारी की दावत था, आज धमकी में बदल गया है। हम  भटक गए हैं। इस वर्ष गणतंत्र दिवस पर मैं जब तिरंगे को लहराते और राष्ट्रगान को होते देखता हूँ तो नौजवान दोस्त, पत्रकार अलीशान जाफरी के शब्द मुझे याद आते हैं, "राष्ट्र गान हमेशा मुझे रोमांच से भर दिया करता था, लेकिन जब मैंने देखा कि पुलिस ने फैजान और उसके दोस्तो की राष्ट्र गान गाने के लिये विवश कर उनकी हत्या कर दी, तो मानो मेरे लिए राष्ट्र गान का रोमांच हमेशा के लिए समाप्त हो गया। 

वो कहते हैं - 

जब जब मैं राष्ट्र गान सुनता हूं, मुझे फैलाव, उसके बेगुनाह लहू, उसके बर्बाद हो चुके परिवार और वर्दी पहने हत्यारों की याद आती है, जिन्हे कानून ने अब तक हाथ तक नहीं लगाया है जो शायद हवालातों में मुझ जैसों की देशभक्ति की परीक्षा ले रहे हैं।


फरवरी 2020 में दिल्ली हिंसा में राष्ट्र गान गाते हुए पुलिस की मार से दम तोड़ देने वाले फैजान के परिवार से यह राष्ट्र कैसे नजरें मिलाएगा? यह आलीशान जाफरी  को कैसे यकीन दिलाएगा कि यह उनकी मोहब्बत के काबिल है?हम अपने संविधान द्वारा बताए रास्ते पर कैसे लौटेंगे? क्या यह सब स्वतंत्रता, न्याय,समानता, बंधुत्व के नैतिक कंपास के बिना  मुमकिन है? (अनुवाद शुभेंद्र त्यागी)
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