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प्रतीकात्मक तसवीर।

निर्भया कांड के बाद क़ानून में किए गए संशोधनों को कड़ाई से लागू करना ज़रूरी

2012 में दिल्ली में हुए निर्भया कांड के दोषियों के ख़िलाफ़ पटियाला हाउस कोर्ट ने डेथ वॉरंट जारी कर दिया है। चारों दोषियों को 22 जनवरी की सुबह 7 बजे फांसी दी जाएगी। निर्भया की माँ ने कहा है कि उनकी बेटी को न्याय मिल गया है और इस फ़ैसले से देश में महिलाएं सशक्त होंगी और लोगों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ेगा। हाल ही में हैदराबाद में पशु चिकित्सक से सामूहिक बलात्कार के बाद उसे जलाये जाने की घटना और उन्नाव में बलात्कार पीड़िता को जिन्दा जलाये जाने की वारदात हुई थीं। इन वारदातों के बाद क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि ऐसे मामलों की जांच दो महीने के भीतर पूरी होनी चाहिए और इस बारे में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखा जाएगा। 

सामूहिक बलात्कार और पीड़िता को जिन्दा जलाने की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में क़ानून मंत्री का यह विचार थोड़ी राहत देने वाला हो सकता है, परंतु हक़ीक़त यह है कि 2018 में क़ानून में संशोधन के माध्यम से पहले ही यह प्रावधान किया जा चुका है कि बलात्कार की घटनाओं की जाँच का काम दो महीने के भीतर पूरा करना होगा।

केंद्र सरकार की चिंता जायज हो सकती है लेकिन जब देश में ऐसे अपराधों की जांच के लिये पर्याप्त संख्या में फ़ॉरेंसिक साइंस की प्रयोगशालाएं और पर्याप्त संख्या में चिकित्सक तथा प्रशिक्षित कर्मचारी ही नहीं होंगे तो दो महीने के भीतर जांच पूरी कैसे होगी?

कुछ महीने पहले ही उच्चतम न्यायालय ने किशोरियों के साथ होने वाले यौन अपराधों के नमूनों की प्रभावी तरीक़े से जांच सुनिश्चित करने और पॉक्सो क़ानून के तहत मुक़दमों की सुनवाई में अनावश्यक विलंब पर चिंता व्यक्त की थी और फ़ॉरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ाने पर बल दिया था।

जानकारी के अनुसार, इस समय देश में सात केंद्रीय फ़ॉरेंसिक साइंस प्रयोगशालाएं हैदराबाद, कोलकाता, चंडीगढ़, नई दिल्ली, गुवाहाटी, भोपाल और पुणे में हैं जबकि राज्य सरकारों के अंतर्गत करीब 30 फ़ॉरेंसिक साइंस प्रयोगशालाएं हैं। इन प्रयोगशालाओं में भी 40 से अधिक स्थान रिक्त हैं। यह तथ्य ऐसे अपराधों में इंसाफ़ दिलाने के लिए सरकार कितनी गंभीर है, इसे दिखाता है!

पर्याप्त संख्या में फ़ॉरेंसिक साइंस प्रयोगशालाएं नहीं होने की वजह से बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों से संबंधित रिपोर्ट सही समय पर नहीं मिलती है और इसी वजह से अक्सर मुक़दमों की सुनवाई में विलंब होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने लगाया था जुर्माना

इन प्रयोगशालाओं में बड़ी संख्या में पद रिक्त होने को गंभीरता से लेते हुए उच्चतम न्यायालय ने तो सात राज्यों पर 50-50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया था। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, ओडिशा और गोवा शामिल थे। सरकार अगर वास्तव में जघन्य और अमानुषिक अपराधों की जांच दो महीने के भीतर पूरी करने के लिये गंभीर है तो अपराध विज्ञान प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ाने के साथ ही इनकी कार्यशैली को अधिक चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा ताकि बलात्कार जैसे अपराधों में एक निश्चित अवधि के भीतर जांच रिपोर्ट उपलब्ध हो सके।

क़ानून मंत्री का यह बयान महिलाओं से यौन हिंसा की घटनों के प्रति उनकी संवेदनहीनता ही दर्शाता है क्योंकि निर्भया कांड के बाद दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में संशोधन के बाद पॉक्सो क़ानून में भी संशोधन करके बच्चियों के साथ ऐसी अमानुषिक वारदात की घटनाओं में भी जांच दो महीने के भीतर पूरी करने का प्रावधान किया जा चुका है।

क़ानून मंत्री कहते हैं कि इस तरह के मुक़दमों के तेजी से निपटारे के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कुल 1023 नई त्वरित अदालतों के गठन का प्रस्ताव रखा है। इनमें से 400 अदालतों के लिए सहमति बन चुकी है और 160 अदालतें शुरू हो गई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 704 त्वरित अदालतें पहले से ही काम कर रही हैं।

निर्भया कांड के बाद क़ानून में प्रावधान किया गया था कि ऐसे मामलों में आरोप पत्र दाखिल होने के बाद मुक़दमों की सुनवाई दो महीने के भीतर पूरी करनी होगी। इसके लिये राज्यों में त्वरित अदालतें गठित करने का भी निर्णय लिया गया था।

महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा करने के मामले में केंद्र सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि छह साल पहले 2013 में क़ानून में कठोर प्रावधान के बाद अब 2 अक्टूबर से 1023 विशेष त्वरित अदालतें स्थापित करने का काम शुरू किया गया है।

इस बीच, उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर इन त्वरित विशेष अदालतों में से 389 अदालतें सिर्फ बच्चों के यौन शोषण अपराध से संबंधित मुक़दमों की सुनवाई करेंगी। इसका मतलब यह हुआ कि महिलाओं के प्रति यौन हिंसा और सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के मुक़दमों की सुनवाई के लिए फिलहाल 634 त्वरित विशेष अदालतें होंगी।

निर्भया कांड के बाद बलात्कार और यौन हिंसा से संबंधित मुक़दमों की सुनवाई के लिए क़ानून में निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत ऐसे प्रत्येक मुक़दमे के सारे गवाहों के बयान दर्ज करने का काम पूरा होने तक दैनिक आधार पर अदालत की कार्यवाही का प्रावधान किया गया। इसमें यह भी प्रावधान किया गया था कि यदि न्यायाधीश को महसूस होता है कि अपरिहार्य कारणों से सुनवाई स्थगित करनी ज़रूरी है तो उसे इसके कारण रिकॉर्ड करने होंगे। इसके बावजूद ऐसे मुक़दमों की सुनवाई गति नहीं पकड़ पा रही है।

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संशोधित क़ानून के अनुसार, भारतीय दंड संहिता की धारा 376 या धारा 376ए से 376ई के दायरे में आने वाले अपराधों के मुक़दमों की सुनवाई यथासंभव महिला न्यायाधीश ही करेगी। इस संशोधन के दायरे में उच्च न्यायालय, सत्र अदालत या अन्य अदालत को शामिल किया गया है। क़ानून में तो यह भी प्रावधान है कि इस तरह के अपराध की शिकार पीड़िता का बयान महिला पुलिस अधिकारी या अन्य महिला अधिकारी ही दर्ज करेंगी।

केंद्र और राज्य सरकारें यदि वास्तव में बलात्कार जैसे अपराधों पर अंकुश लगाने और ऐसे अपराध में शामिल आरोपियों को त्वरित सजा दिलाने के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें बयानवीर बनने के बजाय यह सुनिश्चित करना होगा कि निर्भया कांड के बाद 2013 और 2018 में क़ानून में किये गये संशोधन पूरी ईमानदारी से लागू हों। इसके साथ ही ज़ीरो प्राथमिकी के प्रावधान पर सख्ती से अमल किया जाये तथा ऐसे मामले में ढुलमुल रवैया अपनाने और जांच के प्रति किसी भी तरह की कोताही के लिए जवाबदेही निर्धारित करने की दिशा में भी कठोर कार्रवाई करने की आवश्यकता है। 

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अनूप भटनागर
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