सर्वोच्च न्यायालय की यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि भारत का संविधान नागरिकों को अपने ‘धर्म-प्रचार’ की पूरी छूट देता है और हर व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह जिसे चाहे, उस धर्म को स्वीकार करे। हर व्यक्ति अपने जीवन का ख़ुद मालिक है। उसका धर्म क्या हो और उसका जीवन-साथी कौन हो, यह स्वयं उसे ही तय करना है। यह फ़ैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति रोहिंगटन नारीमन ने अश्विन उपाध्याय की एक याचिका को खारिज कर दिया। उस याचिका में उपाध्याय ने यह मांग की थी कि भारत में जो धर्म-परिवर्तन लालच, भय, ठगी, तिकड़म, पाखंड आदि के ज़रिए किए जाते हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए।
'व्यक्ति जिस धर्म को चाहे, उसे स्वीकार करे' कितना तर्कसंगत?
- विचार
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- 29 Mar, 2025

जस्टिस नारीमन से कोई पूछे कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने समझ-बूझकर, पढ़-लिखकर और स्वेच्छा से किसी धर्म को स्वीकार किया है? एक करोड़ में से एक आदमी भी ऐसा नहीं मिलेगा। सभी आँख मींचकर अपने माँ-बाप का धर्म ज्यों का त्यों निगल लेते हैं। जो उसे चबाते हैं, वे बाग़ी या नास्तिक कहलाते हैं।