वक़्फ़ क़ानून पर संसद में हुई बहस से विभोर अंग्रेज़ी के एक राष्ट्रीय अख़बार ने ख़ुशी छलकाते हुए कहा, ‘लगता है संसद के पुराने दिन लौट रहे हैं’। अब किसी ख़याल को तमाम बाधाओं-बंधनों से क्या, उसे दर-हक़ीक़त से भी क्या, वह तो आँख मूँदकर ख़ाम और ख़ुशख़याली पर फुदकने लगता है। पुराने दिनों से आशय शायद उन अच्छे संसदीय दिनों से होगा जब सदनों के बाहर-भीतर दलों में आपसदारी, मंत्रणा, विमर्श और प्रक्रियात्मक सद्भाव और तालमेल की गुंजाइश होती थी, संसदीय मंत्री की एक भूमिका होती थी और कई बार वह परेशान मारा मारा फिरता नज़र आता था। तब अमूमन वैसी ही ज़ोरदार बहसें होती थीं जैसी पिछले हफ़्ते देखकर बेचारे अख़बार का जी भर आया। तो, जब संसद के दिन वापस पलटने वाले हैं तब तो न्यायपालिका जैसी संस्थाओं के सत्ता-पाश से उन्मोचित होने की भी कुछ ख़बर होगी ही उसके पास! बदलाव आ ही रहा है तो बदलने की उसकी अपनी क्या तैयारियाँ हैं! कुछ बेबाकियों का इंतज़ाम किया जा रहा है कि नहीं! दो टूक कहने लायक़ कलेजा तैयार हो रहा है क्या!
बहस बचेगी या सिर्फ़ बहुमत चलेगा, संसद के दिन कब बहुरेंगे?
- विचार
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- 8 Apr, 2025

क्या संसद अब जनहित की बहसों का मंच बनेगी या सिर्फ़ सत्ता पक्ष के बहुमत का खेल? लोकतंत्र की असली परीक्षा अब संसद में है। जानिए इसकी भूमिका और भविष्य।
हद है, यह हमारा सबसे नामवर, ताक़तवर अख़बार कहा जाता रहा जो बीते अच्छे दिनों में सरकार के ख़िलाफ़ अपनी ख़बरें बहुत हल्ला मचाते हुए छापता था, अब उतनी ही ख़ामोशी से वह तरफ़दार है। गोदी मीडिया को छोड़िये यह हमारा नामीगिरामी प्रिंट मीडिया है जिसने तब कोई सूचना ही नहीं दी थी कि ये दिन आने वाले हैं। कि, संवैधानिकता, संसदीयता, आचार-विचार-संहिता-प्रक्रिया के लुट-पिट जाने के दिन आसन्न हैं। ग्यारह सालों में एक बार भी ख़बरदार नहीं किया कि मिलने-मिलाने के दिन जाने वाले हैं, वैमनस्यता आने वाली है। कि, मेरे प्रिय पाठको, वह दिन आने वाला है जब किसी की कोई राय नहीं रह जायेगी। धर्म ही पहचान होगी, नफ़रत ही ईमान होगा। त्योहार दहशत देंगे और दहशत दिन रात ख़ूँख़ार होती जायेगी। ये ख़तरे नब्बे सालों से संघ पाल-पोस रहा था और चालीस सालों से वे ग़दर काटे हुए हैं।