वक़्फ़ क़ानून पर संसद में हुई बहस से विभोर अंग्रेज़ी के एक राष्ट्रीय अख़बार ने ख़ुशी छलकाते हुए कहा, ‘लगता है संसद के पुराने दिन लौट रहे हैं’। अब किसी ख़याल को तमाम बाधाओं-बंधनों से क्या, उसे दर-हक़ीक़त से भी क्या, वह तो आँख मूँदकर ख़ाम और ख़ुशख़याली पर फुदकने लगता है। पुराने दिनों से आशय शायद उन अच्छे संसदीय दिनों से होगा जब सदनों के बाहर-भीतर दलों में आपसदारी, मंत्रणा, विमर्श और प्रक्रियात्मक सद्भाव और तालमेल की गुंजाइश होती थी, संसदीय मंत्री की एक भूमिका होती थी और कई बार वह  परेशान मारा मारा फिरता नज़र आता था। तब अमूमन वैसी ही ज़ोरदार बहसें होती थीं जैसी पिछले हफ़्ते देखकर बेचारे अख़बार का जी भर आया। तो, जब संसद के दिन वापस पलटने वाले हैं तब तो न्यायपालिका जैसी संस्थाओं के सत्ता-पाश से उन्मोचित होने की भी कुछ ख़बर होगी ही उसके पास! बदलाव आ ही रहा है तो बदलने की उसकी अपनी क्या तैयारियाँ हैं! कुछ बेबाकियों का इंतज़ाम किया जा रहा है कि नहीं! दो टूक कहने लायक़ कलेजा तैयार हो रहा है क्या!