loader

क्या 'भीड़तंत्र' से कमज़ोर नहीं होगा लोकतंत्र?

लोकतंत्र की परिकल्पना हज़ारों वर्षों पुरानी है। फ़िलहाल इससे बेहतर राज्य-व्यवस्था अब तक नहीं सुझायी गयी है। यह ज़रूर कहा गया कि लोकतंत्र का विकल्प इसे 'बेहतर लोकतंत्र' बनाना ही हो सकता है। हालाँकि लोकतंत्र में भी कई ख़ामियाँ हैं। राजनीतिक विचारक प्लेटो ने लोकतंत्र की कुछ आधारभूत कमियों को भाँप कर आशंका जताई थी कि लोकतंत्र बहुसंख्यक की निरंकुशता का शिकार हो सकता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन टी. वेंडर्स का मानना है कि बहुसंख्यक की धौंस तानाशाही जैसा ही है। तो क्या वर्तमान समय की प्रजातांत्रिक व्यवस्था इन अवलोकनों से परे है?

कुछ आशंकाओं को लेकर राज्य की असीमित शक्तियों को काबू में करने के लिए विचारकों ने सुझाया है कि न्यायपालिका, क़ानून बनाने तथा उसे लागू करने वाली संस्था को एक-दूसरे अलग होना चाहिए। राजनीतिक विचारक मॉन्टेस्क्यू के अनुसार ऐसा इसलिए ज़रूरी था क्योंकि 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' सुनिश्चित की जा सके। इसीलिए सत्ता के एक जगह सिमटने के बजाय सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात की जाती रही है और इसमें न्यायपालिका की ख़ास अहमियत है। विचारक लास्की का मानना था कि न्यायपालिका का दायित्त्व सिर्फ़ क़ानून की व्याख्या तक सीमित नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल है कि अंतिम लाइन कहाँ खींचनी है?

संबंधित ख़बरें

न्याय दिलाना न्यायपालिका का काम है। लेकिन इस न्याय दिलाने की प्रक्रिया में कई सरकारी एजेंसियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कई मामलों में इन एजेंसियों की लापरवाही से न्याय नहीं मिल पाता है। पहलू ख़ान के केस में भी कुछ ऐसा ही हुआ। मसलन, क्या सभी ज़रूरी साक्ष्य न्यायालय के समक्ष रखे गए? क्या पारदर्शिता के साथ जाँच की गई? लिंचिंग करने के दौरान बने वीडियो की फॉरेंसिक जाँच क्यों नहीं की गयी? क्या मरते हुए व्यक्ति के बयान को ध्यान में रखा गया?

पूरी प्रक्रिया में न्याय की प्रकृति काफी हद तक साक्ष्य इकट्ठा करने वाले व्यक्ति/संस्था/पुलिस पर निर्भर करती है। तो क्या यही 'आउटपुट' न्याय है? उत्तर हाँ और नहीं दोनों प्रकार से दिए जा सकते हैं। हालाँकि कुछ अन्य देशो में व्यवस्था थोड़ी अलग है। फ्रांस में inquisitorial system है यानी अदालत जाँच-पड़ताल में सक्रिय भूमिका निभाती है। इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या यह व्यवस्था भारत में प्रयोग में लायी जा सकती है।

क़ानून से क्यों नहीं रुक रहे अपराध?

साक्ष्य प्रस्तुत न किए गए हों, या उचित जाँच न की गयी हो तो अभियुक्त के दोषमुक्त होने की प्रबल सम्भावना रहती है। यह समझना ज़रूरी है कि दंड की व्यवस्था अपराध रोकने में पूर्ण रूप से सक्षम नहीं रही है, विशेषकर दो स्थितियों में- आतंकवाद और भीड़तंत्र द्वारा अपराध। दंड की व्यवस्था इसलिए की गई है कि यदि समुचित दंड दिया जाए तो भविष्य में ऐसे अपराध नहीं होंगे, दंड का भय संभावित अपराधी को अपराध करने से रोकेंगे। लेकिन क्या ऐसा होते हुए दिख रहा है?

सवाल सिर्फ़ भारतीय दंड संहिता का नहीं है। महिलाओं, बच्चों, हाशिये पर रह रहे वर्गों के लिए बने विशेष क़ानून क्या अपेक्षित परिणाम ला पाए हैं? नहीं। क्योंकि व्यवस्था में कहीं न कहीं कोई दोष है। विधि विचारक अंटोनी अल्लोट भी पूछते हैं कि अधिकतर देश सामाजिक परिवर्तन के लिए हद से अधिक क़ानून बनाने पर क्यों ज़ोर देते हैं?

ताज़ा ख़बरें

आदर्श न्याय से मज़बूत होता है लोकतंत्र

न्यायालय के फ़ैसले को स्वीकार किया ही जाना चाहिए। यदि असहमति है तो अपील का प्रावधान है। हालाँकि, अपील की भी अपनी सीमाएँ होती हैं। विवाद के पक्ष-विपक्ष तथा उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति कई मायनों में न्याय की प्रकृति को प्रभावित कर सकती है। आदर्श न्याय की स्थिति लोकतंत्र को मज़बूत ज़रूर करती है। लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का विश्वास बनाए रखती है। समाज को सकारात्मक रूप से आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

भीड़ अपराध के बाद जश्न यूँ ही नहीं मानते दिखती, इसके ठोस कारक और कारण, दोनों हैं। भीड़-जनित अपराध किसी एक-दो व्यक्तियों और समूह का नहीं होता। कई बार तो सामूहिक मौन सहमति भी दिखती है। यह मौन अपराध बोध का भी हो सकता है और शून्य चेतना का भी।

पाठकों के विचार से ख़ास

राही मासूम रज़ा 'टोपी शुक्ला' में लिखते हैं, 'आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है तब भी बिना आत्मा के उसके बदन को लाश ही कहते हैं। भाषा कितनी ग़रीब होती है। शब्दों का कैसा ज़बरदस्त अकाल है। ...बलवाई के हाथों परंपरा मरती है, सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है… कबीर की राम की बहुरिया मरती है। जायसी की पद्मावती मरती है। कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर की राधा मरती है, अनीस के हुसैन मरते हैं… कोई लाशों के इस अम्बार को नहीं देखता। हम लाशें गिनते हैं। सात आदमी मरे। चौदह दुकानें लुटीं। दस घरों में आग लगा दी गयी। जैसे कि घर, दुकान और आदमी केवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में मंडराने को छोड़ दिया गया हो।'

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
क़मर वहीद नक़वी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

पाठकों के विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें