यदि राजनीति में सफलता मापने का कोई मीटर हो तो उसकी जाँच निरन्तरता से ही की जा सकती है। कामयाब नेता अपने संरक्षण में सफल उत्तराधिकारियों को नेतृत्व देकर आगे बढ़ाने के बाद ही अपने पीछे लंबे समय तक चलने वाली विरासत छोड़ जाते हैं। राजनीतिक दल आदर्श रूप में नीतियों और सिद्धांतों से चलते हैं, व्यक्ति विशेष से नहीं, इसलिए नेताओं का अस्तित्व पार्टी से जुड़ने वाले नए सदस्यों पर निर्भर करता है, जो पार्टी का झंडा लेकर आगे बढ़ सकें। हालाँकि इन पार्टियों की अगुआई दिग्गज करते हैं, ये बड़े नेता अपने काडर में से सही उम्मीदवारों का चयन नहीं कर पाते हैं। वामपंथियों को छोड़ कर तमाम दल ऐसे लोगों को ख़रीद लाते हैं, जिनके जीतने की संभावना पार्टी की विचारधारा के प्रति उनकी निकटता से नहीं ताक़त, पैसे और उनके समुदाय पर पकड़ की वजह से होती है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही ज़मीनी स्तर पर लोगों को समझाने-बुझाने के बजाय दूसरे दलों से लोगों को तोड़कर लाने में अपनी ऊर्जा ख़र्च कर रहे हैं। विचारधारा मर चुकी है। व्यक्ति जिन्दाबाद!
11 करोड़ सदस्यों में से 542 नहीं ढूँढ पाए?
यह विडंबना ही है कि 135 साल पुरानी कांग्रेस और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी, जिसके सदस्यों की संख्या 11 करोड़ है, 542 सीट भरने में भी सफल नहीं लग रही हैं। चुनाव के सात में से दो चरण पूरे हो जाने के बावजूद इनमें से किसी दल ने अब तक अपने उम्मीदवारों की पूरी सूची जारी नहीं की है। साफ़ है, मुख्य धारा की राष्ट्रीय पार्टियाँ अपनी विचारधारा या कामकाज के आधार पर जीत हासिल करने को लेकर असुरक्षित महसूस करती हैं और इसलिए वे गठबंधनों और ऐसे उम्मीदवारों पर निर्भर हैं जिनके पास ताक़त है या जिनका अपने समुदाय पर असर है। वर्ना इसकी क्या व्याख्या हो सकती है कि कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ही हरियाणा और दिल्ली में अपने आधिकारिक उम्मीदवारों के नामों की घोषणा नहीं कर रही हैं। किसी समय इंदिरा गाँधी का वह कद था कि यदि वह किसी लैम्प पोस्ट को भी उम्मीदवार चुनतीं तो वह जीत जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी प्रमुख अमित शाह चुनाव सभाओं को काफ़ी आक्रामक ढंग से संबोधित कर रहे हैं और खूब डींगें हाँक रहे हैं कि उन्होंने किस तरह 2014 में किए गए तमाम वायदे पूरे कर दिए। कांग्रेस यह कहने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रही है कि यदि वह जीत गई तो ‘न्याय’ लागू करेगी। इसके बावजूद इन दलों को यह यक़ीन नहीं है कि उनके पुराने और तपे हुए कार्यकर्ता अपनी विश्वसनीयता और स्वीकार्यता के बल पर चुनाव जीत लेंगे।
बीजेपी ने तो चुनाव में अपनी संभावनाएँ बढ़ाने के लिए कट्टर मार्क्सवादियों का भी स्वागत किया है। वहीं, कांग्रेस ने बीजेपी छोड़ कर आए हुए दल-बदलुओं की आरएसएस की 'ज़हरीली' पृष्ठभूमि की भी अनदेखी कर दी है।
झंडा वही, नए किस्म के लोग
पिछले दो दशकों में राजनीतिक दलों के झंडों के रंग भले न बदले हों, उनमें मौजूद लोगों में नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। चुनाव आते ही राजनीतिक लेनदेन बढ़ जाता है। बीते हफ़्ते बीजेपी, जिसका उत्तर प्रदेश के दो-तिहाई हिस्से पर राज है, उसने गोरखपुर सीट के लिए कांग्रेस छोड़ कर आए एक दल-बदलू को चुना। इस सीट पर राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पाँच बार चुने जा चुके हैं। बीजेपी ने भोजपुरी फ़िल्मों के अस्त हो रहे सितारे रवि किशन को एसपी-बीएसपी महागठबंधन के उम्मीदवार के जवाब में उतारा है। रवि किशन ने दो साल पहले कांग्रेस छोड़ी थी और वह अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए बेचैन थे। बीजेपी ने उन प्रवीण निषाद को भी गोद ले लिया है, जिन्होंने विपक्ष के साझा उम्मीदवार के रूप में 2017 का उपचुनाव जीता था। उन्हें संत कबीरनगर से मैदान में उतारा गया है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश को संघ का गढ़ माना जाता है। जाति के मामले में इसकी सामाजिक संरचना सत्तारूढ़ दल के पक्ष में झुकी हुई है। इसके बावजूद बीजेपी को अपने कार्यकर्ताओं में से ऐसा कोई नहीं मिला जो इस सीट को बचाए रखता।
इसने पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को आज़मगढ़ में चुनौती देने के लिए मनोरंजन करने वाले एक दूसरे कलाकार निरहुआ को चुना है। सिनेमा के सितारों के प्रति बीजेपी का अत्यधिक प्रेम इससे भी साफ़ है कि उसने समाजवादी पार्टी की पूर्व नेता जया प्रदा को रामपुर से लोकसभा का टिकट दिया है।
संघ के गढ़ में अभियुक्त
इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि बीजेपी ने भोपाल में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को चुनौती देने के लिए आतंकवादी वारदात की अभियुक्त प्रज्ञा सिंह को चुना है। कांग्रेस ने बीजेपी से उसी के गढ़ में लड़ने के लिए पूर्व राजा को भेजा है। भोपाल संघ का पारंपरिक गढ़ रहा है। आज़ादी के बाद से अब तक हुए 16 लोकसभा चुनावों में बीजेपी या जनसंघ ने यहाँ 10 बार जीत दर्ज की है। उसके उम्मीदवारों को यहाँ औसतन 50 प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिले हैं। भगवा की जड़ें यहाँ इतनी मजबूत हैं कि 1991 में जब कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता पर कब्जा कर लिया था, क्रिकेट के राष्ट्रीय प्रतीक और स्थानीय नवाब टाइगर पटौदी यहाँ एक रिटायर्ड सिविल सर्वेंट से एक लाख वोटों से हार गए थे।इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व उमा भारती और कैलाश जोशी जैसे पूर्व मुख्यमंत्री कर चुके हैं। पूर्व नौकरशाह एस. सी. वर्मा यहाँ बड़े अंतर से चार बार जीत चुके हैं। साल 2014 के चुनाव में यहाँ अपेक्षाकृत अनजान आलोक संजर को कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी से दुगने वोट मिले थे। राज्य के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने तब बीजेपी को चौंका दिया जब उन्होंने दिग्विजय सिंह से अपील की कि वह भगवा के शेर की माँद में घुस कर उसकी दाढ़ी नोचने की उनकी महत्वाकांक्षा पूरी कर दें।
बीजेपी, कांग्रेस के इस जाल में फँस गई और उसने वरिष्ठ और मध्य क्रम के समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए आतंकवादी वारदातों की अभियुक्त साध्वी प्रज्ञा को चुन लिया। इससे न केवल आतंकवाद से लड़ने की बीजेपी की साख को बट्टा लगा, बल्कि उसकी सांगठनिक अपंगता भी उजागर हो गई।
ऐसा लगता है कि बीजेपी की रणनीति सिर्फ़ दिग्विजय सिंह का विरोध करना है जो अपने कुटिल और मुखर संघ विरोध के कारण उसके ज़बरदस्त दुश्मन बन गए हैं।
बीजेपी के 'शत्रु' कांग्रेस में
बाहरी लोगों को अपने पाले में लाने में कांग्रेस और दूसरी पार्टियाँ भी पीछे नहीं हैं। इसने करिश्माई बॉलीवुड अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा का स्वागत किया है, जो पिछले तीन दशक से बीजेपी में थे। कांग्रेस बिहार में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। सिन्हा इसकी सबसे तीख़ी आलोचना 1989 से ही कर रहे थे। भगवा की तरफ मुड़ने से पहले शॉटगन ने राजीव गाँधी की अगुआई वाली कांग्रेस को हराने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह के साथ चुनाव प्रचार किया था। समाजवादी पार्टी ने सिन्हा की पत्नी पूनम को लखनऊ में गृह मंत्री राजनाथ सिंह से लड़ने का न्योता दिया। कांग्रेस ने नागपुर में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का सामना करने के लिए महाराष्ट्र से बीजेपी के एक पूर्व सांसद को टिकट दिया। कोई राज्य या दल व्यक्तित्व के प्रति अत्यधिक मोह से ग्रसित होने का अपवाद नहीं है।
पूर्वोत्तर में बीजेपी का विस्तार असम के वित्त मंत्री हिमंत विस्वशर्मा के आने के बाद से ही हुआ है। कांग्रेस में 25 साल रहने के बाद वह 2015 में बीजेपी में शामिल हुए। उसके बाद उन्होंने क्षेत्र के सभी राज्यों से कांग्रेस को बाहर निकालने में मदद की है।
हालाँकि ओडिशा और पश्चिम बंगाल में बीजेपी के प्राथमिक सदस्यों की संख्या बहुत बढ़ी है, पर इसके प्रमुख उम्मीदवारों में स्थानीय संगठनों से रूठ कर आए हुए दलबदलू बड़ी तादाद में हैं। राहुल भी अधिग्रहण और विलय की कला में माहिर हो गए हैं। स्थानीय नेताओं को हतोत्साहित करने और सीमित रखने की राष्ट्रीय नेताओं की रणनीति की वजह से जाति और क्षेत्र पर आधारित पार्टियों का जन्म हुआ। लगभग 300 संगठनों में से 200 से अधिक ऐसे हैं, जिनकी स्थापना राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने की जो बेहतर स्थिति की तलाश में अपने-अपने दलों को छोड़कर बाहर निकल आए। उनकी पूछ बढ़ी हुई है। यह चिंताजनक है कि 2019 में अखिल भारतीय अपील वाले नेता भी तब तक अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हो जाते हैं जब तक वे पेशेवर रूप से पार्टी बदलने वालों के साथ कोई समझौता न कर लें। सिद्धांतविहीन सत्ता के लालच में हमारे नेता नैतिकता और विचारधारा के आधार पर भविष्य के लिए नेतृत्व तैयार करने की कला भूल गए हैं।
साभार - संडे स्टैंडर्ड
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