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नाटककार राम गोपाल बजाज के नाटक में आधुनिक मजनूं ।

'लैला मजनूं' पुरुषवादी समाज के खिलाफ एक बग़ावत

सदियों से लैला मजनू की कहानी अल्हड़ प्रेम की दीवानगी के रूप में कही सुनी जाती है। नाटकों से लेकर फ़िल्मों तक इसे दो कबीलों के झूठे स्वाभिमान की लड़ाई के रूप में पेश किया जाता रहा है। लेकिन लैला तो औरत की आज़ादी के संघर्ष की कहानी  है। औरत जो स्त्री विरोधी समाज की जकड़न से निकलना चाहती है। औरत जो अपने होने के अस्तित्व के लिए लड़ती है। और मजनू ? वो तो उस समाज के ख़िलाफ़ एक विद्रोह है, जो कविता, कला, साहित्य और प्रेम का उपहास करता है। जो परंपरा के एक ऐसे जकरन में है जो उस समाज ही नष्ट कर रहा है। राम गोपाल बजाज जैसे नाटककार जब किसी पौराणिक पात्र को छूते हैं तो वो भी एक नया आधुनिक रूप धारण कर लेता है। निर्देशक बजाज ने लैला मजनू नाटक के ज़रिए एक ऐसा ही जादू मंच पर पेश किया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) रेपटरी के मज़े हुए कलाकारों ने इस नाटक को नया मायने दे दिया। 
लैला मजनू की कहानी अरब के सरज़मीं पर रची गयी है। एक ऐसा समाज जो स्त्री को ग़ुलाम समझता है। उसके पास अपने भविष्य के बारे में फ़ैसला करने का अधिकार नहीं है। इस समाज में शायरी और प्रेम महज़ एक पागलपन है। और मजनू एक बग़ावत है जो अपनी दीवानगी में समाज से ख़ामोश युद्ध लड़ता है। अरब के दो क़ाबिले,  जिसमें पुरुष का मतलब सिर्फ़, और सिर्फ़ युद्ध का औज़ार होता है। ऐसा समाज एक शायर मजनू और एक विद्रोही औरत लैला के प्रेम को स्वीकार नहीं कर पता है। वह जन्म से मजनू नहीं है। उसका नाम तो क़ैस है। वह एक क़बीले के सरदार का बेटा है। लेकिन घोड़ों,तलवारों और युद्धों से दूर उसका मंज़िल शायरी है। उसे लैला से प्रेम भी है। लेकिन लोग उसे मजनू या दीवाना घोषित कर देते हैं। प्रेप विछोह में क़ैस ऐसी स्थिति को पहुँच जाता है , जब लैला को सामने पाकर भी उसे पहचान नहीं पाता है। तब तक लैला उसके अपने ही व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुकी है। लैला उसमें अंतर्निहित हो चुकी है। उसे अपने से बाहर किसी लैला की मौजूदगी का एहसास ही नहीं है। 
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नाटक के लेखक इस्माइल चुनारा हैं। उन्होंने अरब जगत के अंतर्द्वंद को बहुत सफ़ाई से इस नाटक में उभारा है। राम गोपाल बजाज की प्रस्तुति इसे आधुनिक समाज से जोड़ता है। प्रस्तुति को मनोरंजक बनाए रखने के लिए उन्होंने किस्सगो के रूप में दो विदूषक चरित्रों को भी उभारा है। ये विदूषक सिर्फ़ पुराने अरब समाज पर व्यंग न होकर आधुनिक भारत के सामाजिक द्वन्द पर भी कटाक्ष करते प्रतीत होते हैं। 
Laila Majnu play:  a rebellion against patriarchal society - Satya Hindi
नाटककार राम गोपाल बजाज के लैला मजनूं में लैला का किरदार
राम गोपाल बजाज अब 83 साल के हैं और क़रीब 50 सालों से नाटक से जुड़े हैं। संगीत इस नाटक का एक और मज़बूत हिस्सा है, जिसे सह निर्देशक राजेश सिंह ने बख़ूबी अंजाम दिया। अंबा सान्याल ने वेशभूषा में अरब की प्राचीनता को बरक़रार रखते हुए आधुनिक अन्दाज़ भी दिया है। अनंत शर्मा ने क़ैस उर्फ़ मजनू और मधुरिमा तरफ़दर ने लैला की भूमिका में अपने सहज अभिनय से दर्शकों को बांधे रखा। नाटक एक सवाल छोड़ कर ख़त्म होता है। क्या धर्म या ईश्वर कभी महिलाओं की व्यथा को समझ पाएगा ? 
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शैलेश
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