शिवराज सिंह चौहान
बीजेपी - बुधनी
जीत
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का पूरा फ़ोकस इन दिनों बंगाल से बाहर जाकर चुनाव लड़ने पर है। ममता की पार्टी टीएमसी गोवा के चुनाव मैदान में उतर रही है और ख़ुद ममता यहां का दौरा कर रही हैं। लेकिन सवाल यहां यह है कि ममता आख़िर बंगाल के बाहर के राज्यों में चुनाव लड़कर क्या साबित करना चाहती हैं। विशेषकर ऐसे राज्यों में जहां उनका सियासी आधार शून्य है।
एक ओर ममता बनर्जी बीजेपी के ख़िलाफ़ एक मज़बूत फ्रंट बनाने की बात कहती हैं, दिल्ली आकर सोनिया व राहुल गांधी से मिलती हैं, वहीं दूसरी ओर वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस को कमजोर करती दिखाई देती हैं।
गोवा जैसे राज्य में जिसकी अपनी सियासी हैसियत बहुत ज़्यादा नहीं है और टीएमसी का वहां कोई संगठन भी नहीं है, ऐसे में ममता बनर्जी के वहां जाकर चुनाव लड़ने का मतलब समझ नहीं आता। ममता के गोवा में चुनाव लड़ने का सबसे ज़्यादा विपरीत असर कांग्रेस पर ही होगा। वह तोड़ भी कांग्रेस के नेताओं को ही रही हैं। उन्होंने गोवा के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता लुईजिन्हो फलेरो को टीएमसी में शामिल किया है।
यह बात तय है कि फलेरो भी बिना कांग्रेस संगठन की मदद के टीएमसी के साथ जाकर कुछ ख़ास नहीं कर पाएंगे। लेकिन वह चूंकि कांग्रेस के नेता रहे हैं, इसलिए कांग्रेस के ही वोटों में सेंध लगाएंगे। इसका सीधा नुक़सान कांग्रेस को होगा और बीजेपी को सत्ता में वापस आने में मदद मिलेगी।
निश्चित रूप से ममता की यह सियासी कोशिश पश्चिम बंगाल के बाहर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को कमजोर करने की मालूम पड़ती है।
कांग्रेस ने कहा है कि टीएमसी इस बात पर आत्ममंथन करे कि वह गोवा में चुनाव लड़कर बीजेपी को ही मज़बूत कर रही है। कांग्रेस ने तंज कसा है कि चुनाव कोई पर्यटन या सैर-सपाटा नहीं है।
गोवा में लुईजिन्हो फलेरो लगातार कांग्रेस नेताओं को टीएमसी में शामिल कर रहे हैं। ममता भी वहां कार्यक्रम कर रही हैं और ऐसा करना उनकी जम्हूरी हक़ भी है। लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि उनके इस क़दम से बीजेपी का सत्ता में आना आसान हो जाएगा।
ऐसा भी नहीं है कि ममता गोवा में चुनाव लड़कर वहां दो-चार सीटें झटकने की हालत में हों, सरकार बनाना तो बहुत दूर की बात है। ऐसे में वहां के चुनाव मैदान में उतरकर वह कांग्रेस को कमज़ोर ही करेंगी।
ममता की ख़्वाहिश 2024 के आम चुनाव तक टीएमसी को देश में कांग्रेस की जगह पर मुख्य विपक्षी दल बनाने की जान पड़ती है। लेकिन यह बेहद मुश्किल काम है। क्योंकि बंगाल के बाहर ममता कांग्रेस और दूसरे दलों से आए नेताओं के दम पर चुनाव में सिर्फ़ रेंग सकती हैं, खड़े होना बहुत दूर की बात है।
तो क्या ममता बनर्जी ऐसा करके बदले की राजनीति कर रही हैं। ममता का टीएमसी का सियासी विस्तार करना ग़लत नहीं है लेकिन यह सियासी विस्तार विपक्षी एकता को कमज़ोर करने की क़ीमत पर हो तो सवाल ज़रूर खड़े होते हैं। ऐसा क्या वे किसी के इशारे पर कर रही हैं?
लेकिन उनके ऐसा करने से राष्ट्रीय स्तर पर एंटी बीजेपी फ्रंट नहीं बन सकता क्योंकि निर्विवाद रूप से इस संभावित फ्रंट का सबसे बड़ा दल कांग्रेस ही है और कांग्रेस को ममता की यह चुनावी चाल क़तई रास नहीं आ रही है।
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