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ओवैसी की पार्टी को क्यों मिल रहा है मुसलमानों का समर्थन?

असदउद्दीन ओवैसी क्या भारत में इसलामी पनुरुत्थानवाद के प्रतीक हैं? या उनका बढ़ रहा जनाधार यह दिखाता है कि आम मुसलमान ग़ैर-बीजेपी दलों के हिन्दुत्ववाद से संघर्ष में हिचक और उनकी सुरक्षा में नाकाम रहने से एआईएमआईएम की ओर बढ़ रहे हैं? मशहूर लेखक अजाज़ अशरफ़ ने इस पर एक लेख लिखा, जिसे ‘द मिड डे डॉट कॉम’ ने प्रकाशित किया। पेश है उसका हिन्दी अनुवाद। 
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तहादुल-ए-मुसलिमीन (एआईएमआईएम) को मुसलिम समुदाय से मिला समर्थन बिहार और महाराष्ट्र में उनकी जीत से बढ़ कर है। यह ग़ैर-बीजेपी दलों को इस पर आत्ममंथन करने को मज़बूर करेगा कि बीजेपी के ख़िलाफ़ खड़ी ये पार्टियाँ हिन्दुत्व की चुनौती का सामना करने में क्यों हिचक रही हैं। 
ये दल ओवैसी को गालियाँ देते हैं, उन्हें 'वोटकटवा  कहते हैं, बीजेपी की ‘बी टीम’ कहते हैं, पर इसका विश्लेषण करने में नाकाम हैं कि क्यों ओवैसी अपने प्रति हो रही तारीफ़ को चुनावी जीत में तब्दील करने लगे हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम के 20 में से पाँच उम्मीदवारों ने जीत हासिल कर ली। इसके अलावा  महागठबंधन के एक भी उम्मीदवार को हराने में उनकी कोई भूमिका नहीं रही है। 
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क्या हैं संकेत?

इसके बावजूद बिहार में एआईएमआईएम का प्रदर्शन महाराष्ट्र में पिछले साल स्पष्ट हुए इस रुझान की पुष्टि करता है कि मुसलमानों का एक वर्ग इस धारणा पर वोट नहीं करता है कि कौन दल बीजेपी को सत्ता से बाहर रख सकता है। महाराष्ट्र में एआईएमआईएम ने 44 सीटों पर चुनाव लड़ा, दो पर जीत दर्ज की और चार पर दूसरे नंबर पर रहा। 
एआईएमआईएम कांग्रेस और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसी कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के लिए बुरी ख़बर की तरह है। इन दलों से मुसलमानों ने बड़ी तादाद में चुनाव लड़ा है, मुसलमानों के समर्थन के बग़ैर वे नहीं जीत सकते। बिहार और महाराष्ट्र ने साबित कर दिया है कि लोग ओवैसी की बातों पर यकीन करने लगे हैं। 
लगभग एक दशक से ओवैसी यह कहते रहे हैं कि ग़ैर-बीजेपी पार्टियाँ संविधान बचाने के नाम पर मुसलमानों का वोट हासिल करती हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे इस समुदाय के हितों की उपेक्षा करती हैं।

ओवैसी के आरोप 

वे ऐसा इसलिए करती हैं कि उनका मानना है कि मुसलमान बीजेपी को तो वोट देगा नहीं, जो उन्हें निशाने पर लेती है और प्रताड़ित करती है। ओवैसी का कहना है कि ये पार्टियाँ तब तक नहीं सुधरेंगी और अपने को नहीं बदलेंगी जब तक उन्हें हराया न जाए और यह पाठ न पढ़ाया जाए कि मुसलमानों को हल्के में न ले। ओवैसी अपने दल को इस रूप में पेश करते हैं जो ग़ैर-बीजेपी दलों को यह पाठ पढ़ा सके, विधायिका में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाए और समुदाय के लिए काम करे। 
Assembly Election 2020 : asaduddin owaissi AIMIM beat non-BJP parties in fighting Hindutva? - Satya Hindi
ग़ैर-बीजेपी दल मुसलमानों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने में नाकाम रहे।

नरेंद्र मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद ओवैसी ने रफ़्तार पकड़ी। मुसलमानों को लगा कि उनके वोट से ग़ैर-बीजेपी दल नहीं जीत रहे हैं। ऐसे में क्या उन्हें ऐसे किसी आदमी को वोट नहीं देना चाहिए जो उनका अपना हो, जो परंपरा और आधुनिकता का आकर्षक मिश्रण हो, जो संविधान की भाषा बोलता हो? इस सोच का रणनीतिक कारण भी है। 

ग़ैर-बीजेपी दल

ग़ैर-बीजेपी दल उन छोटी पार्टियों को भी लुभाने की होड़ में रहते हैं जो सिर्फ एक जाति तक सिमटी हुई है, ऐसे में मुसलमानों की एक मजबूत पार्टी ज़्यादा हिस्सा मांग सकती है और बेहतर मोल-भाव कर सकती है। एआईएमआईएम बिहार में यही काम करने जा रही थी, जहां त्रिशंकु विधानसभा तो बस होते-होते रह गयी। 
उत्तर भारत के ग़ैर-बीजेपी दलों ने मुसलमानों को हिन्दुत्व के ठेकेदारों से नहीं बचाया। उन्होंने नई नागरिकता नीति के ख़िलाफ़ लोगों को लामबंद नहीं किया। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 370 में हुए संशोधन और अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया।

केजरीवाल

वे दिल्ली दंगों की विवादास्पद जाँच पर चुप रहे, जिस आधार पर कई मुसलमानों को जेल में डाल दिया गया। इससे भी बुरी बात तो यह है कि ग़ैर-बीजेपी दल अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ते हैं। साल 2019 के आम चुनाव के तुरन्त बाद आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि उनकी पार्टी नहीं जीती क्योंकि मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया था। क्या केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से कभी यह कहा कि उनके अपने बनिया समुदाय ने उन्हें वोट क्यों नहीं दिया?
दिल्ली में फ़रवरी में हुए दंगों के दौरान दंगाइयों ने मुसलमानों पर हमला करने के पहले आम आदमी पार्टी का समर्थन करने के लिए उनका मजाक उड़ाया। इसके बावजूद अरविंद केजरीवाल मुसलमानों की स्थिति पर मोटे तौर पर चुप ही रहे। ऐसी स्थिति में मुसलमानों को ओवैसी की यह बात समझ में आती है कि मुसलमानों और दलितों को एकजुट हो जाना चाहिए। 

मुसलिम-दलित गठजोड़?

मुझे बिहार के कुछ दलित कार्यकर्ताओं ने कहा कि यह इस पर निर्भर करेगा कि मुसलमान नेता दलितों के मुद्दों को उठाते हैं या नहीं। यदि ऐसा होता है तो यह मुमकिन है कि उत्तर प्रदेश में ओवैसी मायावती के साथ हाथ मिलाएं जहाँ की राजनीति में वे पैराशूट की तरह आकाश से उतरना चाहते हैं।
जब तक ओवैसी यह साबित न कर दें कि मुसलमानों का वोट दलितों को मिलेगा, इसकी संभावना नहीं है कि मायावती ओवैसी की बात मान जाएं। ओवैसी के लिए उत्तर प्रदेश में यह दिखाना फ़िलहाल मुश्किल है कि वह ग़ैर-बीजेपी दलों को कितना नुक़सान पहुँचा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में 2019 के प्रतापगढ़ विधानसभा उपचुनाव में एआईएमआईएम तीसरे नंबर पर आया और दूसरे नंबर पर आने वाली समाजवादी पार्टी से सिर्फ 3,000 वोटों से पीछे रहा। 

अगला पड़ाव बंगाल

फ़िलहाल, ओवैसी का अगला पड़ाव पश्चिम बंगाल है, जहाँ बंगाली भाषी लोग अब उर्दू समझ लेते हैं। राजनीति शास्त्र के एक जानकार ने मुझे बताया कि इसकी वजह यह है कि तबलीग़ी जमात ने स्मार्टफ़ोन का सहारा लेकर लोगों की सांस्कृतिक बाधाओं को तोड़ा है। उसने मुझे कहा कि हिन्दुत्व से मुसलमानों के बीच प्रतिक्रिया के रूप में लोगों को एकजुट होने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
ममता बनर्जी की पहचान की राजनीति ने इसे वैधता दी है। इस वजह से कुछ निवार्चन क्षेत्रों में एआईएमआईएम को 5,000 से 10,000 तक वोट मिल सकते हैं। उनका प्रभाव अधिक इसलिए होगा कि राज्य में तीन-तरफा मुक़ाबला होगा। यह ओवैसी की पार्टी के लिए बड़े फ़ायदे की बात होगी। 
इससे ग़ैर-बीजेपी दलों को निराशा होगी और वह स्वाभाविक ही है। उन्हें हिन्दुत्व को रोकने में हिचक पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। ओवैसी का उत्थान मुसलमानों के मन में उस विश्वासघात की भावना का प्रतिफलन है जो उन्हें मिला है। ग़ैर-बीजेपी दलों के लिए यह वाकई चिंता की बात है कि बिहार और महाराष्ट्र में ओवैसी को मिल रहा समर्थन उनकी जीत से कहीं बड़ी बात है। 
(मिड डे डॉट कॉम से साभार)
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एजाज़ अशरफ़
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