राज्यवर्धन सिंह राठौड़
बीजेपी - झोटवाड़ा
जीत
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड की गोपनीयता वाले प्रावधान पर भी सवाल किया कि जिसके जरिए जनता ही नहीं, यहां तक कि दानदाता कंपनी भी राजनीतिक दलों को चंदे का विवरण नहीं जान सकते।
यहां यह बताना जरूरी है कि 2018 में लाया गया, चुनावी बांड एसबीआई और कुछ अन्य बैंक जारी करते हैं। इससे कॉर्पोरेट और यहां तक कि विदेशी संस्थाओं को दान पर 100% टैक्स छूट मिलती है। दानदाताओं की पहचान बैंक और प्राप्तकर्ता राजनीतिक दलों दोनों ही गोपनीय रखते हैं। हालाँकि, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अदालत के आदेश या कानूनी जांच एजेंसियों की मांग पर विवरण का खुलासा करने के लिए बाध्य हैं। अदालत ने सरकार के अटॉर्नी जनरल तुषार मेहता से कहा-
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चुनावी बांड योजना के साथ समस्या यह है कि इसमें दानदाता की पहचान छिपाना चयनात्मक है। यानी यह पूरी तरह से पहचान नहीं छिपा पाती। एसबीआई या कानूनी जांच एजेंसियों के लिए दानदाता गोपनीय नहीं है। इसलिए, कोई बड़ा दानकर्ता किसी राजनीतिक दल को देने के लिए इन बांडों को खरीदने का जोखिम कभी नहीं उठाएगा। एक बड़े दानकर्ता को बस दान को कई लोगों में बांटना है जो आधिकारिक बैंकिंग चैनल के जरिए छोटे बांड खरीदेगा। एक बड़ा दानकर्ता कभी भी एसबीआई के बही-खातों के झमेले में खुद को दांव पर नहीं लगाएगा। इस योजना से ऐसा करना मुमकिन है क्योंकि इसमें पहचान छिपाना चयनात्मक है।
-सुप्रीम कोर्ट, 1 नवंबर 2023 सोर्सः लाइव लॉ
एजी तुषार मेहता ने दलील दी कि संभावित दुरुपयोग इस योजना को कानून की दृष्टि से खराब ठहराने का आधार नहीं हो सकता है, जबकि इसका उद्देश्य वास्तव में कैश में मिलने वाले राजनीतिक दान को बैंकिंग चैनलों के जरिए लाना था। इस पर जस्टिस मनोज मिश्रा ने कहा कि ईबी योजना की यही "अस्पष्टता" चुनावी राजनीति में समान अवसर देने में नाकाम है, क्योंकि अधिकांश धन हमेशा सत्ता में रहने वाली पार्टी को जाएगा, चाहे वह केंद्र में हो या राज्य में।
एजी तुषार मेहता ने चुनावी बांड स्कीम के गोपनीयता हिस्से को इस योजना का "हृदय और आत्मा" कहा। उनका तर्क था कि इसका मकसद दान देने वालों के पहचान की रक्षा करना उन्हें नकदी आधारित अर्थव्यवस्था को कानूनी अर्थव्यवस्था में लाने के लिए प्रोत्साहित करना था।
इस पर अदालत ने अटॉर्नी जनरल से पूछा कि क्या यह पता लगाने का कोई तरीका है कि गोपनीयता प्रावधान एक तरह के समझौते का रास्ता नहीं खोलता। क्या यह रिश्वत को वैध बनाने की संभावना को जन्म नहीं देता है? आइए इसके पॉजिटिव पहलू पर बात करें...आप फंडिंग को वैध बना रहे हैं। फंड पाने की प्रेरणा चाहे जो भी हो, यह पार्टी को मिलता है, न कि लोगों को। लेकिन हमारे पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि क्या फंड उस मकसद को वैध बना रहा है।'' अदालत ने साफ किया-
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हमें इस बात की चिंता नहीं है कि इससे वर्तमान सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को फायदा होगा या नहीं। हम संवैधानिकता के सवाल का परीक्षण कर रहे हैं। हम आपकी बात मानते हैं कि यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा है कि जो भी सत्ता में है उसे बड़ा हिस्सा मिलता है...कोई इसे पसंद करे या नहीं, यह राजनीतिक व्यवस्था है। इसी तरह यह संचालित होता है। आपका कहना है कि आपने कम से कम इसमें सुधार करने का प्रयास किया है। लेकिन तथ्य यह है कि हम सफल नहीं हुए हैं, यह योजना की संवैधानिक वैधता तक नहीं पहुंचता है।
-सुप्रीम कोर्ट, 1 नवंबर 2023 सोर्सः लाइव लॉ
एसजी मेहता ने इस बात पर जोर दिया कि 2018 से पहले के युग मुकाबले इससे एक एक बड़ा बदलाव आया है। पहले तो कैश राजनीतिक दान हावी था। अगर मैं इस योजना के खिलाफ सबसे खराब स्थिति भी मान लूं, तो पैसा अब सफेद रंग में और बैंकिंग चैनलों के माध्यम से आएगा। इस पर बेंच ने जवाब दिया: “नहीं, यह रिश्वत को वैध बना रहा है। बस इतना ही। कठिनाई यह है कि भले ही पैसा चुनावी बांड के माध्यम से दिया जा रहा है, लेकिन सब कुछ गोपनीय है।
अदालत ने सुझाव दिया कि केंद्र एक ऐसी योजना पर विचार कर सकता है जहां सभी दान को संबंधित पार्टियों को बांटने के लिए भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को सौंप सकता है। यदि आप वास्तव में योजना को समान स्तर पर लाना चाहते हैं तो ये सभी दान भारत के चुनाव आयोग के पास जाने चाहिए और उन्हें इसे वितरित करने देना चाहिए। तब आपको एहसास होगा कि कोई दान नहीं आएगा। मेहता अदालत से सहमत नजर आए कि तब शायद कोई भी चुनाव निगरानी संस्था के माध्यम से दान देने के लिए आगे नहीं आएगा।
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