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सुर्खियां बटोरने पर केंद्रित है यह बजट!

प्रचारात्मक बजट है। हेडलाइन मैनेजमेंट के लिए अच्छी सुर्खियां मिलेंगी। पर इससे कुछ होना जाना नहीं है। निर्यात संवर्धन के लिए घोषणा ज़रूर है लेकिन अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए इतना भर ही पर्याप्त नहीं है। सरकार ‘जीएसटी वसूली बढ़ी’ के प्रचार से ‘अर्थव्यवस्था पटरी पर आ रही है’ का दिखावा तो करती ही रही है आज बजट भाषण में, अलग से ही सही, वसूली का आंकड़ा देकर भी उसी लाइन पर चलने का संकेत दे दिया गया।

अगर जीएसटी वसूली बढ़ने की ही बात की जाए तो यह जबरन और दिखावटी है। तंबाकू उत्पादों की खपत कम हो इसके लिए उस पर टैक्स बढ़ाने की मांग वर्षों से की जा रही है। वह नहीं किया जा रहा है और प्रदूषण के नाम पर कंपनी बंद है। लेकिन वहां की हवा दिल्ली के मुकाबले साफ है। या वैसे दूसरे शहरों जैसी ही है। ऐसे में सरकार की नीति-रीति को समझना मुश्किल नहीं है। वह स्पष्ट है – प्रचार और सिर्फ प्रचार। 

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सब कुछ गुडी गुडी दिखाने के लिए पीपीपी मॉडल पर रेलवे में सुविधाएं बढ़ जाएंगी। नई महंगी ट्रेन चल जाएगी। जो दे सकता है उससे पैसे लिए जाएंगे। उसके लिए शायद सुविधाएं उपलब्ध भी हो जाएं लेकिन आम आदमी को क्या मिला या उसके लिए तो (रेल) बजट में कुछ नहीं है। 

इसी तरह पीपीपी मॉडल पर टोल रोड बनाते जाइए। उस पर चलेगा कौन? जब-तक बाजार नहीं होगा, व्यक्ति की कमाई नहीं होगी, संरचनाओं का क्या होगा। सबसे ज़रूरी है कि लोगों को काम मिले। यह कम पैसे में कैसे ज्यादा प्रभावी हो सकता है, इस पर विचार करके काम किया जाना चाहिए। पर बजट भाषण से ऐसा नहीं लगा कि उसमें कोई तैयारी थी। आत्मनिर्भरता, अमृत महोत्सव, स्वतंत्रता के 100 वर्ष के लक्ष्य जैसी बातें प्रचार हैं। उसमें दम नहीं है।

मेरा मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था नोटबंदी, उसके बाद बिना तैयारी जीएसटी लागू किए जाने और फिर लॉकडाउन के कारण खराब हुई है और खूब खराब हुई है। यह साधारण उपायों से ठीक नहीं होगा। प्रचार यह ज़रूर किया जा सकता है कि जीडीपी बढ़ रही है पर वह पुराने स्तर पर पहुंची या उससे पीछे ही है – यह खबर है। उस पर किसी का ध्यान नहीं है और सिर्फ़ प्रचार चल रहा है। 

कहने की ज़रूरत नहीं है कि नोटबंदी और जीएसटी जैसा आइडिया देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुक़सानदेह साबित हुआ है।

ऐसा नहीं लग रहा है कि स्थिति नियंत्रण में है। जाहिर है, इसके लिए विशेषज्ञों की ज़रूरत है, पर वह है नहीं। तो जो है उससे लीपापोती ही होनी है और वही हुआ है। हालात इतने बुरे हैं कि पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का अब ज़िक्र ही नहीं है। 

यह अलग बात है कि अब बजट पेश किया जाना पहले जैसा नहीं रह गया है। पहले रेल बजट अलग होता था तो रेलवे से संबंधित पर्याप्त जानकारी होती थी। टैक्स बढ़ाने घटाने की घोषणा होती थी जो अब जीएसटी कौंसिल करता है और पूरे साल चलता रहता है। ऐसे में बजट में जो नई गंभीरता या जानकारी दी जा सकती थी वैसा कुछ इस साल के बजट में तो नहीं ही था।

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लेकिन आयकर में संशोधित रिटर्न प्रावधान करने की बात मुझे नहीं जमी। अव्वल तो सरकार लगभग हर व्यक्ति को साल भर के अपने आय-व्यय का हिसाब देने के लिए मजबूर करती है। लाखों लोगों को बिना-वजह रिटर्न फाइल करना पड़ता है, उनका टीडीएस कटता और फंसा रहता है जो लगभग पूरा वापस कर दिया जाता है। 

ऐसे लोगों को रिटर्न फाइल करने के झंझट से मुक्त करने की बजाय ग़लती करने और रिटर्न संशोधित करने का प्रावधान पूरी व्यवस्था के ठीक से नहीं चलने का ही सबूत है। अभी तक सरकार कहती रही है और लोग जानते व मानते हैं कि आयकर रिटर्न की रैनडम चेकिंग होती है। कुछेक मामले ही स्क्रूटनी में आते हैं। पकड़े जाने पर जुर्माना लगना और स्वयं सही जानकारी देने का कानूनी और नैतिक दबाव अपनी जगह था और तभी रिटर्न फाइल करने का मतलब है। अगर गलती करने की गुंजाइश दी जा रही है तो इसका दुरुपयोग क्यों नहीं होगा और इसमें मिलीभगत क्यों नहीं होगी?

अब जब सारा लेन-देन बैंकों के ज़रिए होता है, कंप्यूटर पर काम चल रहा है तो गलती होने और नहीं पकड़े जाने की संभावना बहुत कम है। ऐसे में सरकार दो साल का समय ही नहीं गलती करने की गुंजाइश क्यों दे रही है, समझना मुश्किल है।

एक तरफ तो सरकार ऐसी ‘राहत’ दे रही है दूसरी ओर, वर्षों से महामारी, बेरोजगारी और मंदी झेल रहे लोगों के लिए कोई राहत नहीं है। नौकरियाँ नहीं हैं पर नौकरियां कैसे मिलेंगी या नौकरी की संभावना कैसे बनेगी, इस संबंध में भी कुछ नहीं है। दूसरी ओर, नियम कानून ऐसे कर दिए गए हैं कि छोटे स्तर पर काम करना मुश्किल है। 

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पकौड़े बेचना रोजगार है– यह प्रधानमंत्री ने ही कहा है और पकौड़े बेचकर आदमी जी सकता है इस पर यक़ीन किया जाए तो ऐसा काम करने वालों को प्रोत्साहन क्यों नहीं दिया जाए। बड़े कारखाने और कारोबार खोलना मुश्किल है, विदेशी निवेश की सीमा है। इसके बावजूद विदेशी चंदा या दान लेना मुश्किल कर दिया गया है। उसमें भी कोई ढील नहीं है। 

मुझे लगता है कि अगर व्यक्ति को अपनी योग्यता, प्रतिभा, कौशल आदि से कमाने का मौक़ा और प्रोत्साहन दिया जाए तो बहुत सारे लोग कम से कम अपनी व्यवस्था कर सकते हैं। कोई टिफिन पहुँचा कर कोई अचार बनाकर जी रहा था। पर यह सब अब मुश्किल कर दिया गया है। यह समय ऐसे लोगों की सहायता और प्रोत्साहन का था। इस मामले में योजनाबद्ध तरीके से कोई काम नहीं है। विशेषज्ञों का कोई पैनल नहीं है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि संकट जितना बड़ा है उसका इलाज करने की क्षमता इस बजट या डॉक्टर के प्रेसक्रिप्शन में नहीं दिखती है।

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संजय कुमार सिंह
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