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प्रेमचंद 140- 23वीं कड़ी: कुआँ और कुआँ : सार्वजनिकता का धँसना और उसकी खुदाई

लोग कुएँ अक्सर धर्म की भावना से बनवाते हैं। लेकिन उन्हें जाना जाता है उनके नाम से: कुआँ ठाकुर का है, साहू का है। कुएँ गाँव में हैं लेकिन गाँव के नहीं हैं। या यह कहना पूरी तरह ठीक नहीं। वे गाँव के हैं, लेकिन गंगी और जोखू गाँव के नहीं हैं। गाँव के लिए हो सकते हैं।
अपूर्वानंद
2012 में ओडिशा के एक गाँव में नयना ने हाड़ी जाति के लोगों से जब उनकी ज़रूरतों के बारे में पूछा तो उन्होंने सूची में सबसे ऊपर रखा, कच्चा कुआँ। यह माँग अजीब थी। गाँव में कुआँ तो होगा। हाँ! वह था। लेकिन उससे पानी भरने में बहुत झंझट थी।
झंझट, झमेला, इन शब्दों से मालूम नहीं होता कि वह क्या है जिससे हाड़ी जाति के लोग बचना चाहते हैं और वे खुश रहेंगे अगर उनके लिए एक कच्चा कुआँ भी सरकारी पैसे से बन जाए। वह झंझट क्या है, पानी और जाति का क्या रिश्ता है, इन प्रश्नों पर काफी मंथन हुआ है। कच्चे कुएँ की माँग पर नयना की उलझन पढ़कर प्रेमचंद याद आए। याद आई प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ।’

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2012 में भी कुएँ की माँग थी, यह पढ़कर इतिहासकार रामशरण शर्मा की याद आ गई। बरसों पुरानी याद। पटना कॉलेज में हुई एक गपशप की। प्रोफ़ेसर शर्मा कुओं के लुप्त होते जाने पर अफ़सोस जाहिर कर रहे थे। 

कुआँ सिर्फ जल का स्रोत नहीं था, वह एक संस्था था, एक सार्वजनिक स्थल जहाँ पानी ही नहीं भरा जाता था। जानकारियों का आदान-प्रदान होता था, योजनाएँ बनाई जाती थीं, मंत्रणाएँ होती थीं। कुएँ गाँव की साझेदारी के प्रतीक थे। खासकर औरतों के।

‘ठाकुर का कुआँ’

चलिए चलते हैं ‘ठाकुर का कुआँ’ की तरफ। कहानी बहुत छोटी है। छोटी और सख्त! प्रेमचंद हिंदी कहानी पर लिखते समय कम समय में ही हासिल की गई उसकी जिन कलात्मक उपलब्धियों की चर्चा करते हैं, वे सब इस कहानी में मौजूद हैं: 'एक प्रसंग का, आत्मा की एक झलक का सजीव मर्मस्पर्शी चित्रण।।' प्रेमचंद इसे ‘एक-तथ्यता’ कहते हैं। इसने  उसमें ‘प्रभाव, आकस्मिकता और तीव्रता’  भर दी है।

कहानी का आरंभ ही एक आशंका से होता है। चार छोटे वाक्य: 

'जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख़्त बदबू आयी। गंगी से बोला - यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है!'

जोखू और गंगी, नाम ही उनकी जाति की तरफ इशारा हैं। पति, पत्नी! पति की असहायता और उसके चलते उसकी झुंझलाहट!

कहानी को जैसे वक्त नहीं है। पानी में बदबू क्यों, यह एक सवाल है, लेकिन यह एक लोटा पानी कितना कीमती है, इसका हल्का आभास जो पहले पैराग्राफ में है, वह दूसरे में उसकी व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है, 

'गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। जरूर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा,  मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?'

यह छोटा सा अंश आपको उन खाली जगहों को भरने का न्योता, बल्कि चुनौती दे रहा है जो इसमें हैं। गंगी क्यों प्रतिदिन शाम को पानी भर लिया करती थी? क्यों एक ही बेला का जिक्र है? शाम के पहले गंगी का दिन कैसे गुजरता होगा? कुआँ दूर क्यों था? उस कुएँ और गंगी की इस झोपड़ी के बीच (अब तक उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया है) गाँव कैसा होगा?
उनके बीच की दूरी कितनी होगी? गंगी किस पात्र या कितने पात्रों में पानी लाती होगी? क्या यह सिर्फ पीने का पानी था? और कामों के लिए पानी का और स्रोत क्या होगा? और कुआँ कैसा था? आखिर कोई जानवर उसमें कैसे गिर गया होगा? क्या वह कच्चा कुआँ था, जगतवाला नहीं?

दूसरा पानी है, लेकिन गंगी के लिए नहीं।  

'ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बतायेंगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा? कोई चौथा कुआँँ गाँव में है नहीं।'

यह कहानी, ये वाक्य, ये शब्द पिछले 90 साल में अलग-अलग वक़्त, अलग-अलग पीढ़ियों के द्वारा पढ़े गए होंगे। अब भी पढ़े जा रहे हैं जब कुएँ तकरीबन धरती में समा चुके हैं। लोग कुएँ अक्सर धर्म की भावना से बनवाते हैं। लेकिन उन्हें जाना जाता है उनके नाम से: कुआँ ठाकुर का है, साहू का है।
कुएँ गाँव में हैं लेकिन गाँव के नहीं हैं। या यह कहना पूरी तरह ठीक नहीं। वे गाँव के हैं, लेकिन गंगी और जोखू गाँव के नहीं हैं। गाँव के लिए हो सकते हैं।
और अब कहानीकार की निगाह लोटे से उतर कर उसपर आती है जो होठों तक ले जाकर मारे बदबू के उसे वापस रख देता है।

'जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला - अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।'

जोखू बीमार है, लाचार और दोनों की वजह से झुंझलाया हुआ। लेकिन वह यह नहीं कह सकता पत्नी को कि वह दूसरा पानी ले आए। प्यास गहरी कितनी ही क्यों न हो, वह उस दूर कुएँ तक जाकर फिर से पानी भर लाने को गंगी को न कह सकता था।

कहानी आगे बढ़ती है,

'गंगी ने पानी न दिया। खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी ख़राबी जाती रहती हैं। बोली - यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।'

रिश्ते के अभाव की तकलीफ़ 

गंगी क्यों एक बात तो जानती है और दूसरी नहीं? क्या यह नहीं जानना उसी का दोष है? कहानीकार का बस चले तो शायद कहानी में घुसकर वह गंगी को बता दे कि इस पानी को उबाल लो! वह एक हिमाकत पर उतर आती है, 'कुएँ से दूसरा पानी लाए देती हूँ।'

जोखू बीमारी के कारण  शरीर से लाचार है, लेकिन होशो हवास में है। प्यास ने उसका सामाजिक बोध सोख नहीं लिया है:

'जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा - पानी कहाँँसे लायेगी ?'

‘ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?’

‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे। ग़रीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’

इस एक संवाद में इस जोड़े के गाँव से रिश्ते की व्याख्या जितनी होती है, उससे कहीं ज्यादा उच्च जातियों के गुणों की भी। लेकिन इस अंश को ध्यान से पढ़िए। यह भारतीय गाँव पर, उस परंपराशील गाँव पर जोखू की तीव्र भर्त्सना भी है। मर जाने पर जो पुरसा करने न आए, वह क्योंकर हमसे जुड़ा हुआ हो! ग़रीबों का दर्द क्या है? क्या वह सिर्फ एक लोटा साफ़ पीने का पानी है? वह तकलीफ़ उस रिश्ते के अभाव की है जो एक मानवीय समाज बनाने का सूत्र है।
आख़िरी वाक्य को और ग़़ौर से पढ़िए। जोखू को इस तरह के लोगों के आदमी होने पर ही शक है: 'ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?' इस प्रश्न में ‘ऐसे लोग’ को फिर से सुनिए,  उसकी ध्वनि! वह इस पारंपरिक समाज को फटकार है, लानत है। इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।
गंगी ने जोखू को पानी पीने नहीं दिया। इसका मतलब यह है कि उसने उस दुस्साहस की ठान ली जिसमें उसकी जान को ख़तरा है। वह ठाकुर के कुएँ की तरफ बढ़ रही है। गाँव के मातबर लोग। ठाकुर ठाकुर हैं। वीरता के लिए प्रसिद्ध जाति के सदस्य, लेकिन मूर्ख नहीं हैं। वीरता की बदली परिभाषा में खुद को फिट कर लिया है। इस अंश को भी पढ़िए। गाँव का सामाजिक और श्रम विभाजन इससे बेहतर समझाया नहीं जा सकता: 

'रात के नौ बजे थे। थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ निकल गये। कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती। कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने का ढंग चाहिए।'

क़ानूनी बहादुरी का ज़माना

ज़माना कानूनी बहादुरी का है। वह क्या होती है? क़ानून जिसके राज की हम सब माँग करते आ रहे हैं। कानून, जिसकी प्रमुखता ने मोहनदास की ब्रिटिश साम्राज्य में आस्था जगाई थी। क़ानून तो वही है जिसे इस्तेमाल किया जा सके, जिसे इस्तेमाल करने की हिक़मत आपको आती हो। उस हिक़मत के बिना कानून की क्या हैसियत! तो वीरता मौक़ा महल देखकर काम करने का नाम है। इस अंश में ‘थके-माँदे’ और ‘बेफिक्रे’  इन दोनों शब्दों के एक ही वाक्य में अगल बगल होने पर भी विचार कीजिए। 

कहानी गंगी के साथ आगे चलती हुई ठाकुर के कुएँ तक पहुँच गई है :
 'इसी समय गंगी कुएँँ से पानी लेने पहुँची।कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।'
गंगी का पूरा ध्यान चुपके चुपके पानी भर पाने के लिए उपयुक्त घड़ी मिल जाने पर है। लेकिन मन विद्रोह से भरा हुआ है:

'गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं?  यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!'
गाँव में आने का मतलब क्या है ? तो क्या गंगी गाँव में नहीं रहती है?

विद्रोह की प्रवक्ता स्त्रियाँ

क्या यह इत्तफाक़ है कि प्रेमचंद के कथा संसार में विद्रोह की प्रवक्ता स्वाभाविक रूप से स्त्रियाँ हैं। लगभग हर जगह। ‘गले में तागा’, ‘एक से एक छंटे’, इन सभी ऊँची जाति के पुरुषों की असलियत तो यही है,

'कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!'
आहट होती है, लेकिन इस ऊँचेपन की विवेचना का कर्म टूटता नहीं:    
'कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख लें तो गजब हो जाय। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अँधेरे साये मे जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं।'
कहानी कुएँ पर पहुँच गई है। आहट औरतों के आने की है। यह गाँव के भीतर की ही कथा है। ऊँच और नीच के भेद के एक और स्तर की। श्रम के शोषण की:

'कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी। इनमें बात हो रही थी।

‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’

‘हमलोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।’

‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’

‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम?  रोटी-कपड़ा नहीं पातीं? दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’

‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता। यहाँ काम करते-करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।'

वह गाँव था तो यह परिवार है, घर है। गाँव टिका हुआ है 'नीच' जातियों के श्रम पर, घर टिका हुआ है स्त्रियों के श्रम पर। जोखू उस बीमारी में पानी भरने जाने से रोकता है, यहाँ 'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताज़ा पानी लाओ।'

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जाति, जेंडर और श्रम के रिश्तों की आलोचना

गंगी भी औरत है। ये दोनों भी औरतें हैं। जाति, जेंडर और श्रम के बीच के रिश्तों की इतनी तीखी आलोचना और किस तरह की जा सकती थी? गंगी और इन दोनों में फिर भी फर्क है। गंगी नामक औरत का इस कुएँ से पानी भरना एक घटना है, पराक्रम है। लेकिन गाँव की निगाह में चोरी है, नाजायज़:

'दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गए थे। ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।'
‘क्षणिक सुख की साँस’, ’मैदान तो साफ हुआ’, ’विजय का अनुभव’ : पूरी जद्दोजहद, हिकमत सिर्फ एक घड़ा पानी के लिए है!

'उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।'
देवता हैं, क्या उसके भी वही हैं जो ठाकुर के और साहू के हैं? जैसे गंगी ने दम साध रखा है, कहानी ने भी:

'घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा भी आवाज न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।'

कुएँ के भीतर मुँह किए, उस अँधेरे में कुएँ की जगत पर पाँव जमाकर झुकी हुई गंगी की कल्पना कीजिए, उसके हाथों की रस्सी पर पकड़ और एकाग्रता का ध्यान कीजिए:

'गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।

गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं।

ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुएँ की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।'

इस अंश में आरम्भ की खामोशी अंत में घड़े के धड़ाम से गिरने और कई क्षण पानी के हिलकोरे की आवाज़ में टूटती है।
कितना वक्त बीत गया होगा गंगी के घर से निकलने, ठाकुर के घर की हलचल के खत्म होने, दोनों सजातीय औरतों के पानी भरकर लौटने, और फिर गंगी के घड़े के पानी में डुबकी लगाकर ऊपर खामोशी से ऊपर पहुँचने और गंगी के हाथ से रस्सी छूट जाने के बीच! इतना समय इतना है कि जोखू की प्यास का धीरज ख़त्म हो जाता है:  

  'घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।'

कहानी यहीं रुक जाती है। स्वर में कोई तरलता नहीं है। एक बेरहम निगाह है।
गाँव की वह कौन सी साझेदारी थी जो कुएँ के साथ लुप्त हो गई? ठाकुर के कुएँ के धँस जाने का अफ़सोस प्रोफ़ेसर शर्मा को हो सकता है, लेकिन क्या गंगी को भी वही अफ़सोस होगा?

कहानी बहुत छोटी है। लेकिन वह एक माँग है पाठक से। वह किस किस्म की कल्पना की सक्रियता की माँग है?

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