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प्रेमचंद 140: 22वीं कड़ी: मुसलिमों, दलितों से बर्ताव पर प्रेमचंद, गाँधी में समानता

प्रेमचंद का पूरा जीवन दर्शन तार्किकता और विवेक की नींव पर टिका हुआ है। लेकिन गांधी उन्हें किसी भी दूसरे नेता से अधिक अपने दिल के करीब दीखते हैं। दो प्रसंगों में उनका और गांधी का मन एक है। एक मुसलमानों के साथ बर्ताव का प्रश्न और दूसरा दलितों के साथ व्यवहार का मामला। 

अपूर्वानंद
दलित प्रश्न के कई पक्ष थे। उसका एक पक्ष हिंदू धर्म से उसके संबंध को फिर से परिभाषित करने का था। दूसरा आर्थिक था और तीसरा, बल्कि महत्त्व की दृष्टि से उसे शायद पहला होना चाहिए था, राजनीतिक था। प्रेमचंद गांधी के मंदिर प्रवेश आंदोलन के पक्ष में हैं और डॉ. आंबेडकर से इस विषय में अपना मतभेद जाहिर करते हैं।

समानता के व्यवहार की जाँच

समानता के व्यवहार की जाँच कैसे की जाए, प्रेमचंद के सामने यह समस्या है। खान पान, विवाह, आदि में इसे लागू करने में उन्हें अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ दिखलाई पड़ती हैं। एक तो प्रत्येक स्तर पर स्तरीकरण, जो जाति की विचारधारा के कारण ही है, इस काम को मुश्किल बना देता है। सवर्ण हिंदू तर्क कर सकते हैं कि एक, यह तो निजी मसला है, दूसरे हम अपनी जाति में भी फलाँ-फलाँ उपजाति से रिश्ता नहीं करते, इसलिए यह कोई दलितों के ख़िलाफ़ मामला नहीं है। तीसरे, जाति की विचारधारा के प्रभावी होने के कारण दलितों में भी इस प्रकार का स्तरीकरण और भेद मौजूद है। 
साहित्य से और खबरें
खानपान को भी खाद्य,अखाद्य, मांसाहार, शाकाहार आदि का तर्क देकर मेलजोल के छूत से बचा लेने की चतुराई की जा सकती थी। आज भी यह चालाकी इस रूप में दिखलाई पड़ती है कि किसी को, वह दलित हो या मुसलमान, अगर मकान न देना हो, तो सभ्यता ने जो छल सिखलाया है, उसके अभ्यास में निष्णात 'उच्च जाति' के मकान मालिक अपने खानपान के निषेधों की आड़ लेते हैं।

तो समानता का सिद्धांत सिर्फ दो सार्वजनिक क्षेत्रों में प्रभावी रूप से दिखलाया जा सकता है। एक मंदिरों को सबके लिए खोल कर और दूसरे असेम्बलियों में 'हरिजन' सदस्यों की संख्या को प्रभावी तरीके से बढ़ाकर। गांधी ने अपने उपवास के जरिए पृथक् निर्वाचन के सिद्धांत को परास्त कर दिया था, लेकिन उन्हें मालूम था कि भले ही वे इसे धार्मिक मानें, इसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ थे।
पूना समझौते का अर्थ था संयुक्त निर्वाचन का सिद्धांत। लेकिन उसमें संकल्प था दलित समुदाय को न सिर्फ विधायिकाओं में बल्कि सारी सार्वजनिक संस्थाओं और सेवाओं में प्रतिनिधित्व। इसका रास्ता था आरक्षण।
किसी भी सेवा या स्थान के लिए तथाकथित ‘प्रतिभा’ और  ‘योग्यता’ के सिद्धांत के खिलाफ़ पूना समझौते की आत्मा थी।हिंदुओं को स्वीकार करना था कि इसके पहले तक जो चल रहा था, वह दलितों की प्रतिभा और योग्यता का अपहरण था, जिसे धर्म और आचार के नाम पर वैधता दी गई।  

पूना समझौते की सफलता निर्भर ही इस बात पर थी कि ‘वर्णवाले’ हिंदू अपना मन और बर्ताव बदलते हैं या नहीं। उनका आचरण समानता और न्याय के सिद्धांतों के अनुकूल परिवर्तित होता है या नहीं। गांधी की आलोचना इस कारण की जाती रही है कि उन्होंने एक न्यायपूर्ण माँग को निरस्त करने का यह तरीका अपनाया। क्या पूना समझौता सफल होगा? इससे तीन पक्ष जुड़े हुए थे। एक सरकार, दूसरे ‘वर्णवाले’ हिंदू और तीसरे दलित जिन्हें गांधी ‘हरिजन’ कहते थे। 

पूना समझौते के बाद उन्होंने बहुत स्पष्टता से कहा कि उनकी सभाओं में जो लाखों सवर्ण आते रहे हैं, यह उनकी जिम्मेवारी है कि यरवदा (पूना) समझौता सफल हो सके। उन्हें दलित भाइयों और बहनों को अपना मानना है, उनके लिए मंदिरों, अपने घरों और स्कूलों के दरवाजे खोलने हैं। सवर्णों के आचरण से ही मालूम होगा कि दलितों की जंजीरें तोड़ डाली गई हैं। उन्हीं के बर्ताव से दलितों को अहसास होगा कि वे किसी भी प्रकार हीन नहीं हैं। वे दूसरे ग्रामीणों की तरह ही उसी ईश्वर की उपासना करते हैं और उन्हें वही अधिकार और सुविधाएँ हासिल हैं जो दूसरे गाँववालों को प्राप्त हैं।
इसे गांधी ने सुधार कहा। सुधार सवर्णों को अपना करना होगा। तर्क दिया गया था था कि सवर्णों से बराबरी के पहले दलितों को इसके लिए खुद को योग्य साबित करना होगा। गांधी ने उन्हें जवाब दिया कि दलितों की स्थिति के लिए सवर्ण हिंदू ही जिम्मेवार हैं,

 'इस तथाकथित उच्च जातियों ने उन्हें उन तमाम साधनों से वंचित कर दिया है जिनसे वे खुद को साफ़-सुथरा रख पाएँ..' 

तर्क था कि उनके पेशे ही ऐसे हैं। गांधी ने उन पेशों के लिए, जिस रूप में वे थे, सवर्ण हिन्दुओं की मुज़रिमाना उपेक्षा उर उदासीनता को जिम्मेवार ठहराया।' गांधी ने कहा, 

'हम बिलकुल गलत होंगे अगर सवर्णों ने यह समझा कि वे कोई सरपरस्त हैं और हरिजनों को लाभ दे रहे हैं। अभी जो कुछ भी सवर्ण करेंगे वह पीढ़ियों से उनके ख़िलाफ़ किए जा रहे अपराध की मामूली और विलंबित भरपाई भर होगी।' 

हिंदू धर्म से धोखा

गांधी ने चेतावनी दी कि दूसरा उपवास निकट भविष्य में ही किया जाना होगा और उसका कारण होगा यरवदा समझौते का स्पष्ट उल्लंघन। वह भी सवर्णों की तरफ से उसे लागू किए जाने के रास्ते में मुजरिमाना रुकावटें खड़ी करके किया जाएगा। गांधी के मुताबिक़ यह हिंदू धर्म से उनका धोखा होगा और वे इसे चुपचाप नहीं देख सकते।

गाँधी के आरोप तीखे थे
 'सामाजिक रूप से उनके साथ कुष्ठ रोगियों जैसा बर्ताव होता है। आर्थिक रूप से वे और बुरी हालत में हैं। धार्मिक रूप से उन्हें इन स्थानों में प्रवेश नहीं जिन्हें हम ग़लती से भगवान के घर कहते हैं। सार्वजनिक सड़कों, स्कूलों, हस्पतालों, कुओं, सार्वजनिक पानी के नलों, मैदानों, पार्कों, आदि का वे उसी तरह  इस्तेमाल नहीं कर सकते जैसे सवर्ण करते हैं। अगर वे एक ख़ास सीमा का पालन न करें तो इसे अपराध माना जाता है और कई बार उनका दीखना ही अपराध है। उन्हें गाँवों और शहरों में सबसे खराब जगहों में रहने के लिए धकेल दिया जाता है जहाँ कोई सामाजिक सुविधा नहीं है। सवर्ण हिंदू डॉक्टर और वकील उनके लिए काम नहीं करते।... ब्राहमण उनके धार्मिक अवसरों पर पुरोहिती नहीं करते। यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि इसके बावजूद वे अपना वजूद बनाए हुए हैं और अभी भी वे खुद को हिंदू धर्म के भीतर मानते हैं।' 
1932 के आख़िरी महीने में रत्नगिरी जेल में एक सवर्ण अप्पाराव पटवर्धन ने इसलिए उपवास शुरू किया कि उन्हें पाखाना साफ़ करने की इजाजत नहीं दी जा रही थी। गाँधी ने 3 दिसंबर को उनके समर्थन में उपवास करना शुरू कर दिया। यह एक दिन से भी कम ही चला क्योकिं अगले ही दिन भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों से पूछताछ शुरू की कि इस मामले में जेल के क़ायदे कैसे बदले जा सकते हैं।

गांधी ने इस उपवास के बारे में एक प्रेस इंटरव्यू में कहा, 

मेरी स्थिति बड़ी विचित्र है। हालाँकि मैंने अपने दिल को काफी सख़्त बना लिया है, कुछ मामलों में मेरी प्रकृति अतिशय संवेदनशील है। मेरे लिए अभी के मसलों में कम या बेशी महत्त्व का फर्क करना संभव नहीं। अगर मैं किसी बड़े मसले के लिए जान दे सकता हूँँ तो एक कामरेड के जीवन के लिए भी अपना जीवन दे सकता हूँ। इस प्रसंग में मुझे इसके बीच  चुनाव करना था कि या तो मैं एक प्रिय कामरेड को मरने दूँ और उससे निश्चिंत जीता रहूँँया (उनके साथ) अपनी जान भी जोखिम में डालूँ। अगर मैं उन्हें छोड़ देता तो इसका मतलब यह है कि मैं हरिजनों को भी छोड़ सकता हूँँऔर जो अपने साथियों को छोड़ देता है, उसका कोई मोल नहीं है।'

गाँधी ने कहा,

'कौन जानता है कि मुझे एक के बाद एक कई उपवास करने पड़ें और मैं तिल तिल करके मरूँ! मेरा जीवन प्रायः तर्क से संचालित होता है, लेकिन जहाँ वह बेकार हो जाए, वहाँँएक उच्चतर शक्ति यानी आस्था उसे चलाती है।'

तार्किकता और विवेक की नींव

प्रेमचंद का पूरा जीवन दर्शन तार्किकता और विवेक की नींव पर टिका हुआ है। लेकिन गांधी उन्हें किसी भी दूसरे नेता से अधिक अपने दिल के करीब दीखते हैं। दो प्रसंगों में उनका और गांधी का मन एक है। एक मुसलमानों के साथ बर्ताव का प्रश्न और दूसरा दलितों के साथ व्यवहार का मामला। 
प्रेमचंद गांधी के एक एक कदम को देख रहे हैं, नोट कर रहे हैं और उसपर लगातार टिप्पणी कर रहे हैं। मानव मन और सामाजिक मन की साहित्यकार के तौर पर उनकी जो समझ है, उसके कारण वे गांधी की पद्धति की उपयोगिता समझ पा रहे हैं। इस राजनीति में एक तीव्र नैतिक आकर्षण भी है।
1933 में गांधी फिर से उपवास पर जाते हैं। उनके सहयोगी केलप्प्न दक्षिण के गुरुवयूर मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए उपवास करना चाहते हैं। गांधी उन्हें रोकते हैं, लेकिन आखिरकार वे खुद अप्रैल में तय करते हैं कि उन्हें उपवास करना ही होगा। यह तीन हफ़्ते का होगा। लेकिन अब क्यों? गांधी के सारे सहयोगी, उनके आत्मा के संरक्षक राजा राजगोपालाचारी, उनके घनिष्ठ डॉक्टर अंसारी, जनरल स्मट्स, मीरा बेन, उनके सबसे छोटे बेटे देवदास, मीरा बेन और खुद कस्तूरबा इस उपवास के सख्त ख़िलाफ़ हैं।
यरवदा समझौते के बाद से सात महीने बीते हैं। गांधी अपने उपवास का कारण बताते हैं, 

'सितंबर से अब तक इन महीनों में मैं पत्राचार और जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसे गौर से पढ़ रहा हूँ और।…हर तरह के) हरिजनों और गैर हरिजनों से लंबी चर्चा भी कर रहा हूँ। मैंने जितना समझा था, यह बुराई उससे कहीं अधिक गहरी है।..'

यह उपवास किसी के ख़िलाफ़ नहीं है। अपनी शुद्धि के लिए? क्या उन्हें अहसास हो रहा है कि डॉक्टर आंबेडकर को दिया गया वादा पूरा नहीं किया जा सकता क्योंकि सवर्ण मन साफ़ नहीं है? फिर क्या उन्होंने अपने अनशन के जरिए उनसे छल किया था? अगर वे सवर्ण समाज की चालाकी नहीं जानते थे तो वे भोले या मूर्ख थे? जो भी हो, इसका प्रायश्चित्त तो उन्हें ही करना होगा।

गांधी के राजनीतिक मित्र उनके इस निर्णय के बेतुकेपन से हैरान थे। उनके मित्र दीनबंधु एंड्रूज ने लिखा, 'मानता हूँ और समझता हूँ।' रोमा रोलां ने कहा कि वे उनके साथ हैं और नेहरू ने, जो आधा तार्किक थे और आधा संशयवादी, अपनी ख़ास शैली में लिखा,
जिन मामलों को मैं नहीं समझता, उनके बारे में क्या कहूँ? मैं एक अजनबी देश में खोया हुआ सा महसूस करता हूँँ जहाँँआप ही एक परिचित रौशनी हैं और मैं अँधेरे में टटोलने की कोशिश करता हूँ। लेकिन मैं लड़खड़ा जाता हूँ। जो भी हो, आपके साथ मेरा प्यार और मेरा ख्याल है।'

टैगोर ने, जो एक दूसरे तर्कवादी हैं, गाँधी से अनुरोध किया कि वे यह उपवास न करें। वे लेकिन जानते हैं कि  कुछ है जो उनकी समझ के बाहर है। प्रेमचंद को इस उपवास से पूरी हमदर्दी है। पूना समझौते के बाद जगह जगह सामूहिक खान-पान और सफाई के आयोजन हो रहे थे। प्रेमचंद इसपर ‘महात्मा गाँधी का व्रत’ शीर्षक टिप्पणी में लिखते हैं,

'...यह यथार्थ है कि अभी जो कुछ हो रहा है, उसमें दिखावे का भाव ही प्रधान है, और दिलों की सफाई, महात्माजी के शब्दों में, आत्म-शुद्धि, अभी बहुत दूर की बात है।..'

प्रेमचंद ऐसा मानना चाहते हैं कि सनातनधर्मियों में भी अधिकतर अब गांधी को समझ रहे हैं। फिर भी वे कहते हैं कि सांसारिक बुद्धि से गांधी के इस निर्णय को समझना कठिन है। फिर भी, 

'महात्माजी को इस कठिन परीक्षा में हम जो सहायता दे सकते है, वह यही कि स्वयं आत्म-शुद्धि का यत्न करें।'

प्रेमचंद गांधी का अनकहा सुन रहे हैं, 

'महात्माजी शब्दों में कहें न कहें, पर यह स्पष्ट ही है कि वह उद्धार की वर्तमान प्रगति से असंतुष्ट है, और उसे अधिक सजीव बचाने का साधन उनके पास केवल यही है कि राष्ट्र की आत्मा में शुद्धि का संचार करें। और इसका साधन अपनी आत्म-शुद्धि के सिवा और क्या हो सकता है। महात्माजी उन लोगों में नहीं हैं, जो दूसरों पर ज़िम्मेदारी रखकर आप संतुष्ट हो जाएँ। वह आत्मा की व्यापकता का अनुभव कर चुके हैं और उसी शक्ति से हम निर्जीव अकर्मण्यता पर विजय पा सकते हैं।'

अहिंसा का साहित्यिक तर्कनिरूपण

गांधी का दूसरा उपवास आरम्भ हो ही जाता है। प्रेमचंद की भाषा अवसर के अनुरूप उत्साह से भरी हुई है, 

'तपस्वी गांधी ने सोमवार आठ मई से, अपना महान व्रत आरम्भ कर दिया। हमारे ये इक्कीस दिन इक्कीस युग की भाँति कटेंगे।...अंत में जब इक्कीसवें दिन का प्रभात आएगा, उस दिन राष्ट्र का ह्रदय कितनी तेजी से धड्केगा और व्रत के सकुशल समाप्त होने पर कितने वेग से उछलेगा, कितने उन्माद से नाचेगा। यह वह व्रत है, जो त्यागमूर्ति पं. जवाहरलालजी के शब्दों में, विफल हो ही नहीं सकता।'

प्रेमचंद गांधी को विश्व के सत्य के तपस्वियों की पंक्ति में खड़ा देखते हैं, उनकी परंपरा में जिन्होंने अपने सत्य के संधान में अपनी जान की बाजी लगा दी,
'यह वह संग्राम है, कि इधर तलवार हाथ में ली और विजय हाथ बांधे आकर सामने खड़ी हो। महात्मा ईसा ने सलीब पर चढ़कर ही संसार को विजय किया, सुकरात ने ज़हर का प्याला पीकर ही मिथ्या पर विजय पाई। दस कदम आगे बढ़ने को विजय और दस कदम पीछे हटने को पराजय कहना भौतिक जगत् की बात है। अब अध्यात्म-जगत् में साधना ही विजय है। साधना से रक्त की नदी नहीं बहती, जीवन का स्रोत निकलता है, और सम्पूर्ण जगत् को स्फूर्ति से भर देता है।'
इसका अंतिम वाक्य गांधी के अहिंसा का साहित्यिक तर्कनिरूपण भी है। गांधी आत्म शुद्धि कर रहे हैं। अवसर पवित्र है। इस मौके पर क्रोध जैसे भाव का स्थान नहीं।
लेकिन प्रेमचंद को अहसास है कि गाँधी को नहीं, सवर्णों को आत्म-शुद्धि की आवश्यकता है। गांधी चूँकि खुद को अपने देश के हरेक व्यक्ति के लिए जिम्मेवार महसूस करते हैं, वे उनके अपराध के लिए अपनी जान खतरे में डाल रहे हैं।
प्रेमचंद का रोष इस समाज को लेकर छिपता नहीं,
'क्या अब भी हम अपने बड्डपन का, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटते रहेंगे। यह ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेद हिन्दू-जीवन के रोम-रोम में व्याप्त हो गया है।...'
प्रेमचंद सवर्ण समाज के जीवन के क्षण को इस अहंकार से ग्रस्त देखते हैं, 

'हमारे अभिवादन की प्रथा भी उसी भेदभाव से जकड़ी हुई है। तिवारीजी की अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन की पैदाइश है, दूध के दांत भी नहीं टूटे, लेकिन वे किसी के सामने सर नहीं झुका सकते।...दंडवत की समस्या ...का साम्प्रदायिक आधार नष्ट करना होगा। ... बड़प्पन  दूसरों को नीच समझने में नहीं, सज्जनता और शिष्टता में है। हमें इन छोटे-छोटे भेद-पोषक साधनों का संस्कार करना होगा, उन्हें उस अग्नि कुंड में डालना होगा, जो महात्मा गांधी ने अपने तेज से प्रज्ज्वलित किया है। एक दिन हाथ में झाडू लेकर सडकों पर तमाशा कर देने से यह अहंकार न मिटेगा।..'

सवर्णों का धोखा

पूना या यरवदा समझौते में अन्तर्निहित थी सवर्णों से आशा कि वे धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक, सारे प्रसंगों में आगे बढ़कर दलितों के लिए जगह बनाएँगे। प्रेमचंद देख रहे थे कि यह नहीं हो रहा था। 1932 के दिसंबर में उन्होंने कानपुर के म्युनिसिपल चुनाव पर टिप्पणी की, 

'...हम नागरिकों को इसलिए बधाई देते हैं कि उन्होंने दोनों महिलाओं को बहुमत से अपना प्रतिनिधि चुना, वहाँ हमें उनसे यह शिकायत भी है कि उन्होंने दोनों हरिजन भाइयों के साथ अन्याय किया। हरिजन उम्मीदवारों के मुकाबले जो महाशय खड़े हुए थे, उन्हें देश की परिस्थिति का विचार करके खुद बैठ जाना चाहिए था।...पर कानपुरवालों ने अनुदारता का परिचय दिया।' 

‘श्री देवरुखकर की हार’ शीर्षक टिप्पणी में कानपुर की तरह बंबई कारपोरेशन के चुनाव में देवरुखकर साहब की हार पर अफ़सोस जाहिर करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं, 
'श्री देवरुखकर हरिजन हैं और हरिजनों की ओर से बंबई कारपोरेशन के चुनाव में खड़े हुए थे। लेकिन उनका मुकाबला एक हिन्दू सज्जन से हो गया और वह इस बुरी तरह हारे कि उनकी ज़मानत एक रुपए भी जब्त हो गए।'

कानपुर और दिल्ली में भी यही हुआ था। फिर शोर-शराबा होने पर जीते हुए हिन्दू मेम्बरों को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। प्रेमचंद इसे ग़लत मानते हैं कि जो चुनाव की सारी परेशानी और जेरबारी झेलकर जीते, उसे अलग किया जाए। उनका सुझाव है,
'अभी बोर्ड या म्युनिसपैलिटी में हरिजनों की संख्या नहीं के बराबर है। कोई हिन्दू उनके मुकाबले खड़ा ही क्यों हो? उनकी निश्चित संख्या आ चुकने के बाद तब मुकाबला किया जा सकता है। अगर सजातीय हिन्दू इस तरह हरिजन उम्मीदवारों को हतोत्साह करते रहेंगे तो आपस में वैमनस्य और असंतोष बढ़ेगा और पूना के समझौते का जो उद्देश्य था वह गायब हो जाएगा।'
आज भी हम जानते हैं कि किसी ऐसे विधानसभा या लोकसभा चुनाव क्षेत्र से किसी दलित के जीतने की संभावना नहीं जो अनुसूचित जाति के किसी उम्मीदवार के लिए आरक्षित न हो। प्रेमचंद जो निराशा 90 साल पहले व्यक्त कर रहे थे, क्या उसका कारण अब समाप्त हो गया है? क्या सवर्ण या सजातीय हिन्दू किसी दलित को अपना प्रतिनिधि मानने को सोत्साह तैयार होंगे?

सवर्णों की धोखाधड़ी से नाराज़ प्रेमचंद ने एक सख्त लेख लिखा, 'क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?' इसका उपशीर्षक है: ‘टके-पंथी पुजारी, पुरोहित और पंडे हिन्दू जाति के कलंक हैं।’ इस लेख में वे किसी व्यंग्य का सहारा लेना भी ज़रूरी नहीं समझते। बात साफ़ साफ़ की जानी है, 

'यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह हममें से बहुत थोड़े आदमियों में आयी है।...हम अभी तक केवल मुँह से राष्ट्र-राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में वही जाति-भेद का अन्धकार छाया हुआ है। और यह कौन नहीं जानता कि जाति-भेद और राष्ट्रीयता में अमृत और विष का अन्तर है।'

जातिभेद सजातीयों के लिए भी आत्मघाती 

प्रेमचंद ने यह लेख आत्मरक्षा में लिखा है। 'भारत’ में ‘किन्हीं’ निर्मल महाशय ने प्रेमचंद को ब्राह्मणद्रोही तो बताया ही, हिन्दूद्रोही भी सिद्ध किया है। कारण यह है कि

'हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखलाया है।' 

प्रेमचंद पूछते हैं,

'तो क्या आप चाहते हैं कि हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें, जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिन्दू जाति को उसकी सतांश हानि नहीं पहुँची है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुँची और पहुँच रही है। मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता।'

प्रेमचंद लेख के अंत में कहते हैं, 

'...राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊँच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है।'

इस भेदभाव को हिमाकत बताते हुए प्रेमचन्द एक दूसरी टिप्पणी में एक घटना का जिक्र करते हैं। एक सजातीय स्त्री कुएँ में गिर पड़ी। सजातीय भीड़ में किसी में साहस न था कि कुएँ में उतरे। जो हरिजन वहाँ आए, वे उतरकर उस स्त्री को निकालने को तैयार हुए। लेकिन वे हरिजन थे। पानी अपवित्र हो जाता। नतीजा? अभागिनी स्त्री कुएँ में मर गई।जातिभेद सजातीयों के लिए आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता है। लेकिन शायद वे हानि लाभ देखकर इसे अब तक अपने लिए लाभकर मानते चले आए हैं। गांधी के उपवास और प्रेमचंद के लिखे हुए 90 साल गुजर चुके हैं!

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