एक तरफ़ चकाचौंध भरी दुनिया में उम्मीदें लिए लोग खुद को खपा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ घुप अंधेरा लिए एक ऐसी भी दुनिया है, जहाँ बुनियादी ज़रूरतों को लेकर लंबा संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष पेट की आग बुझाने का है, न्याय पाने का है, अधिकारों के लिए लड़ने का है, हाशिए से आगे बढ़ मुख्यधारा से जुड़ने का है, लेकिन ये चीजें इतनी आसान नहीं हैं। 21वीं सदी का भारत अब भी इन मुद्दों को लेकर संघर्षरत है। न्यू इंडिया का नारा भले ही उत्साहित करने वाला हो, लेकिन असल भारत की तसवीर इससे मेल नहीं खाती, बल्कि एक भयावह सच से सामना कराती है।
हाशिए पर छूटे भारत का दर्द है 'एक देश बारह दुनिया'
- साहित्य
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- 23 Dec, 2022

शिरीष खरे की किताब 'एक देश बारह दुनिया' आज के भारत और पाठकों के लिए क्यों महत्वपूर्ण है, यह समझने की ज़रूरत है। पढ़िए, कृष्णन मुरारी की समीक्षा।
हम लगातार सुनते आ रहे हैं कि भारतीय शहरों और गाँवों के बीच दूरी कम हो रही है, लेकिन क्या सच में ऐसा है? क्या सच में गाँवों की सूरत बदल रही है, अगर बदल रही है तो क्या वहाँ मूलभूत चीजों की जद्दोजहद कम हुई है? क्या अभावग्रस्त लोगों की स्थिति बेहतर हो सकी है, महिलाओं की दशा में बदलाव आया है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें दुरुस्त किए जाने की ज़रूरत लंबे अरसे से चली आ रही है। नौकरशाहों से लेकर सरकार तक इन बातों को ज़रूर समझती होंगी, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस प्रयास होता दिख नहीं रहा है।