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'क़ौल-ए-फ़ैसल' पुस्तक समीक्षा: अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट को जब मौलाना आज़ाद ने कहा था…

कुछ लेखकों की किताबें या कुछ रचनाकारों की रचनाएँ ऐसी होती हैं जो किसी भी कालखंड में लिखी गईं हों पर प्रासंगिक बनी रहती हैं। समय और काल का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। उन किताबों या रचनाओं की प्रासंगिकता को बनाये रखने में हमारे समाज और राजनीति की बड़ी भूमिका होती है। इन किताबों की प्रासंगिकता भले ही लेखक या रचनाकार की सफलता हो सकती है लेकिन एक राष्ट्र के रूप में यह हमारी विफलता की गवाही देता है। साथ ही यह हमें सामूहिक रूप से आत्म चिंतन, आत्म मंथन, आत्म निरिक्षण और आत्म विश्लेषण के लिए एक अवसर भी प्रदान करता है। 

ऐसी ही एक रचना क़ौल-ए-फ़ैसल है, जो कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का अदालत में दिया गया तहरीरी (लिखित) बयान है। मूलतः यह रचना उर्दू में है। इसका हिंदी अनुवाद मोहम्मद नौशाद ने किया है। फिलवक़्त मोहम्मद नौशाद दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोधरत हैं। 

21 दिसंबर 1921 को मौलाना आज़ाद को कोलकाता  में गिरफ़्तार कर लिया गया। अपने केस की कार्रवाई  में मौलाना हिस्सा नहीं ले सके। लेकिन 24 जनवरी 1922 को उन्होंने अदालत में एक लिखित ब्यान "क़ौल-ए-फ़ैसल" (अंतिम निर्णय, आख़िरी बात) के उन्वान से दिया। 9 फ़रवरी को उन्हें एक साल की क़ैद बा मशक़्क़त की सज़ा दी गई और उनको अलीपुर जेल भेज दिया गया। 

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मौलाना आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सर्वोच्च सेनानियों में से एक थे। 1923 में वह सबसे कम उम्र के कांग्रेस प्रेसिडेंट बने। तब उनकी आयु 35 वर्ष थी। मौलाना आज़ाद ने जब स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की थी, उस समय तक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भारत में आगमन नहीं हुआ था, वो अब भी दक्षिण अफ़्रीक़ा में थे। उस समय तक जवाहरलाल नेहरू का भी पदार्पण नहीं हुआ था। अपने शुरूआती दिनों में मौलाना आज़ाद को हिंसा से भी आज़ादी हासिल करने में कोई गुरेज़ नहीं था। बंगाल की जुगांतर और अनुशीलन समिति के वो सदस्य थे। श्री अरविंदो और श्याम सुन्दर चक्रवर्ती उनके क़रीबी सहयोगियों में से थे। 

बाद में आगे चलकर महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने हिंसा को हमेशा के लिए त्याग दिया।  

इसके अलावा मौलाना आज़ाद एक उच्च कोटि के विद्वान्, कवि, लेखक और पत्रकार भी थे। उन्होंने क़ुरआन का तफ़्सीर लिखा जिसे क़ुरआन के बेहतरीन व्याख्याओं में से एक माना जाता है। जैसा कि असग़र अली इंजीनियर लिखते हैं कि मौलाना आज़ाद ने अपनी तफ़्सीर लिखने से पहले उस समय की लगभग सभी लेखकों की टीकाओं को पढ़ रखा था। लेकिन उनकी लिखी गई सभी किताबों और रचनाओं में सबसे चर्चित इंडिया विन्स फ़्रीडम है। इसका एक बहुत बड़ा कारण उस किताब में मौलाना आज़ाद की मृत्यु के तीस बरस के बाद जोड़े गए वो हिस्से हैं जिसमें उन्होंने भारत के विभाजन के लिए नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया है। 

हालांकि मशहूर लेखिका, सामाजिक और महिला अधिकार कार्यकर्ता डॉ. सैयदा हमीद इससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखती हैं। उनका कहना है कि यह हुमायूं कबीर की अपनी व्याख्या है। मौलाना की बातों को हू-ब-हू न लिखकर  हुमायूँ कबीर ने उनकी बातों को अपनी व्याख्या के रूप में पेश किया है। मौलाना तो वैसे भी अंग्रेज़ी में लिखते नहीं थे। सैयदा हमीद के पिता ख़्वाजा ग़ुलाम-उस-सैयदैन मौलाना आज़ाद के साथ लगभग सात साल तक रहे। पहले जॉइंट सेक्रेट्री फिर एडिशनल सेक्रेट्री और उसके बाद सेक्रेट्री बने। 

हालांकि क़ौल-ए-फ़ैसल मौलाना आज़ाद का अदालत में दिया गया बयान मात्र है। लेकिन ये कई अहम् मसलों पर हमें राह दिखाती है। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में लाहौर और अमृतसर में रॉलेट एक्ट लागू था। जिसकी वजह से उस वक़्त न तो कोई पब्लिक जलसे का आयोजन किया जा सकता था और न ही कोई पब्लिक तक़रीर की जा सकती थी। उस दौरान महात्मा गाँधी ने भी कोई पब्लिक तक़रीर नहीं की। लेकिन मौलाना ने क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी की। उनकी यह तक़रीर जुमे के नमाज़ के बाद हुई थी। इन्हीं कुछ तक़रीरों के आधार पर उनके विरुद्ध राजद्रोह 124 (ए ) का मुक़दमा दायर कर दिया गया था। 'क़ौल-ए-फ़ैसल वही ब्यान है जिसे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने इस मुक़दमे के प्रतिवाद में पेश किया था। यह औपनिवेशिक सरकार द्वारा उनपर लगाए गए आरोप का जवाब था। इसी सन्दर्भ में पेश है पुस्तक के कुछ अंश -

"तारीख़-ए-आलम की सबसे बड़ी नाइंसाफ़ियाँ मैदान-ए-जंग के बाद अदालत के ऐवानों में ही हुई हैं। दुनियां के मुक़द्दस बानियान-ए-मज़हब से लेकर साइंस के मुहक़्क़िक़ीन (दार्शनिक) और मुक्तश्फ़ीन (शोधार्थी) तक कोई पाक और हक़ पसंद जमात नहीं है जो मुजरिमों की तरह अदालत के सामने खड़ी न की गई हो। ..... अदालत की नाइंसाफियों की फ़ेहरिश्त बड़ी ही तोलानी (लम्बी) है। तारीख़ आजतक इसके मातम से फ़ारिग़ न हो सकी। हम इसमें हज़रत ईसा जैसे पाक इंसान को देखते हैं जो अपने अहद की अजनबी अदालत के सामने चोरों के साथ खड़े किये गए।

हमको इसमें सुक़रात नज़र आता है, जिसको सिर्फ़ इसलिए ज़हर का प्याला पीना पड़ा कि वो अपने मुल्क का सबसे ज़्यादा सच्चा इंसान था। हमको इसमें फ़्लोरेंस के फ़िदाकार-ए-हक़ीक़त गैलिलिओ का नाम भी मिलता है, जो अपनी मालूमात व मुशाहिदात को इसलिए झूठला न सका कि वक़्त की अदालत के नज़दीक उनका इज़हार जुर्म था। ........  मुझ पर सिडीशन का इल्ज़ाम आएद किया गया है लेकिन मुझे "बग़ावत" के मानी समझ लेने दो। क्या "बग़ावत" आज़ादी की उस जद्दोजेहद को कहते हैं जो अभी कामयाब नहीं हुई है ? अगर ऐसा है तो मैं इक़रार करता हूँ। लेकिन साथ-साथ याद दिलाता हूँ कि इसी का नाम क़ाबिल-ए-एहतराम हुब्बुल वतनी (देश प्रेम) भी है जब वो कामयाब हो जाए।……….आज जो कुछ हो रहा है, उसका फ़ैसला कल होगा। इंसाफ़ बाक़ी रहेगा। नाइंसाफ़ी मिटा दी जायेगी। हम मुस्तक़बिल के फ़ैसलों पर ईमान रखते हैं।……… अलबत्ता ये क़ुदरती बात है कि बदलियों को देख कर बारिश का इंतज़ार किया जाये। हम देख रहे हैं कि मौसम ने तबदीली  की तमाम निशानियाँ क़ुबूल कर ली हैं। अफ़सोस उन आँखों परजो निशानियों से इंकार करें।” 

मैंने उन्हीं तक़रीरों में जो मेरे ख़िलाफ़ दाख़िल की गईं हैं, कहा था, “आज़ादी का बीज कभी बार-आवर (कामयाब) नहीं हो सकता जब तक जब्र-ओ-तशद्दुद के पानी से उसकी आबयारी न हो।" लेकिन गवर्नमेंट ने आबयारी शुरू कर दी है।. ......... मैं मजिस्ट्रेट की निस्बत भी कुछ कहना चाहता हूँ। ज़्यादा से ज़्यादा सजा जो उसके अख़्तियार में है, मुझे दे दे दे मुझे शिकायत या रंज का कोई अहसास न होगा।मेरा मामला पूरी मशीनरी से है किसी एक पुर्ज़े से नहीं है। मैं जानता हूँ कि जब तक मशीन नहीं बदलेगी, पुर्ज़े अपना फ़े'ल (काम) नहीं बदसल सकते। ........  मैंअपना ब्यान इटली के शहीद ब्रूनो के लफ़्ज़ों पर ख़त्म करता हूँ जो मेरी ही तरह अदालत के सामने खड़ा किया गया था। ‘ज़्यादा से ज़्यादा सज़ा जो दी जा सकती है, बिला-तआमुल दे दो। मैं यक़ीन दिलाता हूँ कि सज़ा का हुक्म लिखते हुए जिस क़दर जुम्बिश तुम्हारे दिल में पैदा हुई होगी, उसका अशर-ए-अशीर इज़्तेराब भी सजा सुनकर मेरे दिल को न होगा।’ 

....... मिस्टर मजिस्ट्रेट ! अब मैं और ज़्यादा वक़्त कोर्ट का न लूंगा। ये तारीख़ का एक दिलचस्प और इबरतअंग्रेज बाब है, जिसकी तरतीब में हम दोनों यकसां तौर पर मशग़ूल हैं हमारे हिस्से में ये मुजरिमों का कटहरा (कटघरा)  आया है। तुम्हारे हिस्से में वो मजिस्ट्रेट की कुर्सी। मैं तस्लीम करता  हूँ कि इस काम के लिए वो कुर्सी भी उतनी ही ज़रूरी चीज़ है, जिस कदर ये कटहरा। आओ, इस यादगार और अफसाना बनाने वाले काम को जल्द ख़त्म कर दें। मोअर्रिख़(इतिहासकार) हमारे इंतज़ार में है, और मुस्तक़बिल कब से हमारी राह तक रहा है। हमें जल्द-जल्द यहाँ आने दो, और तुम भी जल्द-जल्द फ़ैसला लिखते रहो। अभी कुछ दिनों तक ये काम जारी रहेगा। यहाँ तक कि एक दूसरी अदालत का दरवाज़ा खुल जाए। ये ख़ुदा के कानून की अदालत है। वक़्त उसका जज है। वो फ़ैसला लिखेगा, और उसी का आख़री फ़ैसला होगा।” 

क़ौल फ़ैसल में मौलाना आज़ाद ने न सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुकूमत के ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी का प्रतिकार किया है, बल्कि उस दौर के जो भी महत्वपूर्ण मुद्दे थे उनका भी समाधान सुझाया है। मुस्लिम समुदाय को वो ख़ास तौर से उनके कर्तव्य के प्रति भी आगाह करते हैं। वो मुसलमानों से अपील करते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में उन्हें दूसरे समुदायों और खास तौर से हिन्दुओं के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर इस  जद्दोजेहद में शरीक हों।

चाहे नौकरशाही का मामला हो राष्ट्रवाद का हो या फिर लोकतंत्र का या धर्मनिरपेक्षता का जिसे लेकर मुस्लिम समुदाय दुविधा का शिकार था। मौलाना आज़ाद क़ुरआन की रौशनी में इन सबका जवाब दिया है। और बताया है कि देशप्रेम, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का पालन इस्लाम के विरुद्ध नहीं है।
लेकिन आजकल मौलाना आज़ाद सत्ता और सरकार के निशाने  पर हैं। उनके नाम से दिए जाने वाले स्कालरशिप को बंद किया गया है। उनके शैक्षणिक योग्यता और विश्वसनीयता पर सवाल उठाये जा रहे हैं। मौलाना आज़ाद ने अपने बारे में शायद सही ही कहा था कि  "मेरी ज़िन्दगी का सारा मातम ये है कि मैं इस अहद और महल का आदमी न था। मगर इसके हवाले कर दिया गया।" 
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पुस्तक-क़ौल-ए-फ़ैसल

लेखक- मौलाना अबुल कलम आज़ाद

अनुवाद-मोहम्मद नौशाद

प्रकाशक-सेतु प्रकाशन

पेज- 200 

मूल्य- 325 

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क़मर वहीद नक़वी
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