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गाय की पवित्रता सदियों से, गो रक्षा के नाम पर हत्या नयी बात!

गो हत्या और गो मांस का सेवन किस काल-खंड में होता रहा है या नहीं होता रहा है, और अब इसके प्रति किस धर्मावलम्बियों की क्या भावना है और क्या इसका अन्य धर्मों के लोगों को आदर करना चाहिए, इस पर एक नया विवाद छिड़ गया है।
एन.के. सिंह

एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार देश का हर तीसरा पुलिसकर्मी यह मानता है कि गाय के तस्करी, गोवध या गौमांस के मुद्दे पर इनमें लिप्त होने के शक में जिन लोगों को सरेआम तथाकथित ‘गौरक्षकों’ द्वारा पीट-पीट कर मार दिया जाता है वह न्यायोचित है। यह अध्ययन एक मकबूल संस्था सीएसडीएस यानी सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ़ डेवेलपिंग सोसाइटीज़ ने एक स्वयंसेवी संस्था कॉमन कॉज़ के साथ मिलकर की है। ‘देश में पुलिसकर्मियों की मनोदशा’ शीर्षक वाला यह अध्ययन देश भर के 21 राज्यों में 12000 पुलिसकर्मियों और उनके परिवार के 11000 सदस्यों से बातचीत के निष्कर्षों पर आधारित है।

अगर यह भाव देश के तीन में से एक पुलिसकर्मी का है तो उत्तर प्रदेश, बिहार-झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पुलिस की सोच क्या होगी, यह समझा जा सकता है। और तब यह भी समझा जा सकता है कि साक्ष्य के अभाव में मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में 63 अल्पसंख्यकों को मारने, सैकड़ों घरों में आगजनी करने वालों और दर्जनों बलात्कार करने वालों को साक्ष्य के अभाव में अदालत क्यों छोड़ देती है और कैसे इसी साक्ष्य के अभाव में पहलू ख़ान को सरेआम मारने वाले भी क़ानून को ठेंगा दिखाते हुए ‘बाख’ जाते हैं। 
तबरेज़, पहलू ख़ान, जुनैद, और अखलाक को मारने का भाव और तरीक़ा एक तरह का था- भीड़ में उन्माद पैदा करना और फिर इन्हें पीट-पीट कर मार देना। यह सब हुआ गो रक्षा के नाम पर। तो गो रक्षा पर इतना ज़ोर क्यों?
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वैदिक काल में गाय

गो हत्या और गो मांस का सेवन किस काल-खंड में होता रहा है या नहीं होता रहा है, और अब इसके प्रति किस धर्मावलम्बियों की क्या भावना है और क्या इसे अन्य धर्मों के लोगों को आदर करना चाहिए, इस पर एक नया विवाद छिड़ गया है। लेकिन हर शोधकर्ता वह वामपंथी विचारधारा का हो या दक्षिणपंथी विचार का, यह मानता है कि पिछले 2000-2500 साल में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों, परम्पराओं या नियमों ने इसे निषिद्ध किया और गाय को सम्मान और गोवंश को आदर का भाव दिया। अगर किसी 1300 साल के धार्मिक आदेशों के सम्मान के लिए भारत के संविधान में समान नागरिक संहिता प्रभावकारी बनाने के लिए राज्य को शक्तियाँ नहीं दी गयीं (और इसे नीति-निर्देशक तत्वों में रखा गया है) तो क्या हिन्दुओं की इस आस्था के प्रति राज्य का कर्तव्य अलग हो जाता है? और क्या अन्य धर्मों के लिए भी उतना ही उचित नहीं कि इस आस्था का सम्मान करें ताकि पारस्परिक सहभाव व शांति बनी रहे?

उधर तर्कशास्त्र की एक परेशानी है यह कि तर्क करने वाला अगर निरपेक्ष न हो तो अपने मतलब का तथ्य लेकर उसे वजन दे कर अपनी अवधारणा को सिद्ध कर सकता है। ऐसा करना तब और आसान हो जाता है जब अपवाद स्वरूप कुछ तथ्य मिल जाएँ। एकेडेमिक दुनिया में अपवाद को लेकर मूल अवधारणा को ग़लत क़रार देना और इसे शोध की संज्ञा देना सहज होता है बगैर यह जाँचे हुए कि अपवाद का मूल कारण क्या था। 

‘प्राचीन सत्य’ को ढूँढने में एक अन्य समस्या यह है कि किस काल खंड का तथ्य तर्क-वाक्य में शामिल किया जाता है, इसे भी देखना चाहिए। तीसरी प्रमुख समस्या है सामाजिक–सांस्कृतिक व भावनात्मक मुद्दों पर अदालत के फ़ैसले की।

सुप्रीम कोर्ट के दो अलग-अलग फ़ैसले

अगर सन 1959 में सुप्रीम कोर्ट ने 16 साल के ऊपर की गाय का वध इस आधार पर सही ठहराया कि यह अनुत्पादक हो जाती है और चारा और अन्य संसाधनों पर भार पड़ता है तो सन 2005 में उसी अदालत ने इस फ़ैसले को उलटते हुए गो-हत्या पर पाबंदी को जायज़ भी बताया। अदालत ने पशु से संबंधित राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा, ‘यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि 16 साल की उम्र के बाद गाय और बैल बेकार (यूजलेस) हो जाते हैं। वे जीवन पर्यंत गोबर और मूत्र देते हैं जिससे बायो-गैस और खाद बनता है। एक बूढ़ा बैल अपने इस काल में प्रतिवर्ष पाँच टन गोबर और 343 पौंड मूत्र देता है जिससे 20 ठेला कम्पोस्ट खाद बनाया जा सकता है।’

इतिहासकार डी. एन. झा ने एक लेख में लिखा है कि वैदिक काल में गो मांस न केवल खाया जाता था बल्कि मेहमाननवाजी का चरम माना जाता था। उन्होंने याज्ञवल्क्य के कथन का हवाला दिया जिसमें (उनके अनुसार) ऋषि ने गो मांस अपनी पसंद बताई थी। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि उत्तर मौर्य काल में इस पर पाबंदी लगने लगी और बाद में इसे पूर्ण रूप से हिन्दुओं के लिए निषिद्ध किया गया।

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हिन्दुओं की चिंता सही, पर हिंसा ग़लत

हमारे देश में तीन तरह के बुद्धिजीवी हैं। एक, जो भारत में हज़ारों साल पहले ‘विमान बनाने की क्षमता थी’ या ‘गणेश जी के मुँह की ग्राफ्टिंग कर प्राचीन शल्य चिकित्सकों ने हाथी का सूंड लगा दिया’ के अतार्किक और अवैज्ञानिक ‘(अंध?) विश्वास’ को भारत पर थोपना चाहते हैं। ऐसे लोग अखंड भारत के रूप में इस देश का क्षेत्रफल फिर से 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर से बढ़ा कर 80 लाख वर्ग किलोमीटर करने के लिए वर्तमान दुनिया के आठ देशों को भारत में समाहित करने के लिए तर्क और उत्साह पैदा कर रहे हैं। यानी वे पाकिस्तान, नेपाल, बर्मा, अफ़ग़ानिस्तान सब अखंड भारत में मिलाने का जज़्बा लिए घूम रहे हैं। उन्हें मोदी के नए भारत के विकास से ज़्यादा हिन्दू राष्ट्र बनाने की चिंता है। दूसरे बुद्धिजीवी वे हैं जो हिन्दू शब्द सुनकर ही ऐसा भड़कते हैं जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो। उनके लिए हिन्दू कुछ भी करे वह ग़लत है। गौ मांस खाना इस वर्ग का जन्म सिद्ध अधिकार है, हिन्दुओं की भावना भड़के तो भड़के। ऐसे लोगों के लिए अगर कोई मुसलामनों के आराध्य मुहम्मद साहेब सलाल्लाहु अलहए वसल्लम का अक्स बना दे (जो उसकी सकारात्मक अभिव्यक्ति भी हो सकती है) तो वह कट्टरवादी।

एक तीसरा वर्ग बुद्धिजीवियों का है जो निरपेक्ष भाव से स्थिति का विश्लेषण करता है; जैसे, बसहरा में मुसलमान की हत्या को ग़लत बताता है तो इसलाम में पुनर्समीक्षा के अभाव को कट्टरपंथ का मूल कारण बताता है। यह न तो संघ को और न ही सत्ता पक्ष, ‘सेकुलरवादी बुद्धिजीवियों’ को सुहाता है।

उत्तर-मौर्य काल में और ख़ासकर तत्कालीन ब्राह्मण ग्रंथों में भोजन के लिए गो हत्या को ग़लत ठहराना शुरू हुआ और धर्मग्रंथों ने गो-हन्ता को समाज से बहिष्कार करना का प्रावधान किया। व्यास-स्मृति में इसे पूर्णरूप से निषिद्ध किया गया। मध्ययुगीन भारत में गो हत्या हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनाव का बड़ा कारण रहा। सैकड़ों सांप्रदायिक दंगे गोकशी को लेकर होते रहे।

अगर कोई लेखक यह स्वीकार करता है कि पिछले कम से कम ढाई हज़ार साल से गाय को पवित्र मानते हुए इसकी पूजा की जाने लगी और हत्या निषिद्ध की गयी तो फिर क्या यह उचित नहीं कि आज हिन्दुओं की इस भावना का सम्मान किया जाए? यहाँ पर किसी जस्टिस काटजू को या किसी शोभा डे को व्यक्तिगत आज़ादी की याद आ जाती है। देवी दुर्गा की नंगी पेंटिंग बनाना मकबूल फ़िदा हुसैन की अभिव्यक्ति की आज़ादी का नमूना है लेकिन मुहम्मद साहेब का कार्टून बनाने पर फ़्रांस में हमला करना उचित हो जाता है।

आइन्स्टीन के अनुसार किसी समस्या को सोच के उसी स्तर पर सुलझाना जिस सोच के स्तर पर हमने इसे खड़ा किया था संभव नहीं। लिहाज़ा ‘Us vs Them’ (हम बनाम वो) के भाव से यह समस्या दूर नहीं हो सकेगी। लेकिन अगर दूसरा पक्ष पहले पक्ष की भावना की कद्र रंचमात्र भी नहीं करता तो पहला पक्ष उसे कब तक बर्दाश्त कर सकता है?

विचार से ख़ास

ऋग्वेद में गाय के प्रति आदर का भाव

मैंने ऋग्वेद पढ़ा और पाया पूरे ग्रन्थ में गाय को लेकर आदर का भाव है और इसकी हत्या या भोज्यता को वर्जना के भाव से देखा गया है। बल्कि कई जगह इसे स्पष्ट रूप से निषिद्ध भी किया गया। लेकिन चूँकि यह वेद कोई एक दिन या दस वर्ष में नहीं लिखा गया है, बल्कि हज़ारों साल का सामाजिक, अभ्यास, सोच और दर्शन का संकलन है लिहाज़ा विश्लेषक को यत्र-तत्र वह सब भी मिल जाएगा जो वह अपनी बात खड़ी करने के लिए चाहता है। डॉ. आम्बेडकर हों या अन्य साम्यवादी विश्लेषक सभी ने इसी तर्क-दोष का सहारा लिया।

उदाहरण के लिए : ऋग्वेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद तीनों में अश्वमेध ही नहीं पुरुषमेध का ज़िक्र है। अब इसको लेकर कोई विश्लेषक कह सकता है कि वैदिक काल में न केवल अश्व की बलि बल्कि पुरुष की बलि भी दी जाती थी। लेकिन पूरे काल में और बाद में एक भी ऐसी घटना नहीं है और दरअसल पुरुषमेध कर्मकांड में प्रतीक के रूप में था। महाभारत काल में स्थिति यहाँ तक आयी कि अहिंसा को सबसे बड़ा कर्तव्य और शाकाहार को सबसे बड़ी शिक्षा बताया गया’।

ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त (86-14) : 

उक्षणो ही मे पञ्चदश साकं पचन्ति विन्शतिम, 

(इंद्र कहते हैं- इन्द्राणी द्वारा प्रेरित याज्ञिक मेरे लिए 15 या 20 बैल पकाते हैं, उन्हें खाकर मैं मोटा होता हूँ) केवल इतना ही पढ़ कर कोई यह कह सकता है कि बैलों के मांस से इंद्र को भोजन का आह्वान किया जाता था। लेकिन अगर कोई भी इसकी संदर्भिता देखे तो वह पायेगा कि इस दशम मंडल के 86वें सूक्त में सभी श्लोकों -ऋचा 1 से लेकर 23 तक में इंद्र–इंद्राणी संवाद में इंद्राणी वृषाकपि के ख़िलाफ़ इंद्र से शिकायत कर रही हैं। यह उसी संदर्भ में है। ज़ाहिर है यह सब उस काल-खंड का और उस क्षेत्र का है जहाँ तथाकथित अ-वेदी समाज (जिसे राक्षस कहा गया है) रहता था और यह ऋग्वेद में प्रक्षिप्त किया गया है या मूल आत्मा से भिन्न है।

लेकिन उसी मंडल के आगे वाले यानी 87वें सूक्त में अग्नि से प्रार्थना की गयी है कि मांस-भक्षी राक्षसों को काट कर अपने मुँह में रख लें’। 

उसी मंडल के उसी सूक्त के श्लोक 17वें में अग्नि देवता से प्रार्थना है कि राक्षसों को गाय के अमृत-तुल्य दूध को पीने पर उनके मर्मस्थल को जला दें।

ऋग्वेद के ही मंडल 6, सूक्त 28 (1) को देखें :

आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयंत्वसमे...

(गाय हमारे घर आएँ और हमारा कल्याण करें, वे हमारी गौशाला में बैठें एवं हमारे ऊपर प्रसन्न हों’)।

वेदों में गो वध का ज़िक्र क्यों?

ऐसे में यह मान लेना कि गो मांस खाना वैदिक काल में प्रचलित था ग़लत होगा। हाँ, चूँकि हज़ारों साल की परम्पराएँ और अभ्यास का समावेश ऋग्वेद में या अन्य वेदों में है लिहाज़ा किसी काल- या खंड विशेष में बैल- वध को मान्यता मिली देखी जा सकती है। लेकिन ऊपर का वर्ग इसे हमेशा वर्जित करता रहा है और गो को माता का दर्ज़ा अपने-अपने रूप में देता रहा है। दरअसल जैसे-जैसे वन्य क्षेत्र से समतल में बसना शुरू हुआ जीव हत्या से समाज दूर होने लगा और कृषि तक आते-आते गो वध पूर्णरूप से निषिद्ध हो गया। लेकिन चूँकि यह परिवर्तन हज़ारों साल में हुआ लिहाज़ा कहीं-कहीं वेदों में गो वध और गो मांस के प्रचलन का ज़िक्र मिल जाता है। लेकिन यह वैदिक काल की मूल आत्मा के अनुरूप नहीं बल्कि अपवाद स्वरूप है।

अथर्ववेद की यह ऋचा (9-15-4 ) देखें: 

‘उप ह्वये सुदुघाम धेनुमेता सुहस्तो गोधुगुत दोहदेनाम 

श्रेष्ठं सवं सविता साविषन्नो अभीद्धो घर्मस्तदु षु प्र वोचत 

(शोभन हाथों से गाय को दुहने वाला मैं सरलता से दुही जाने वाली गाय का दूध दुहता हुआ उसे अपने समीप बुलाता हूँ। सविता मुझे श्रेष्ठ गौ प्रदान करें। उसी में तेजस्वी धर्म का कथन भी है।) 

गाय को देवी की संज्ञा 

अगले श्लोक में भी गाय को यजमान ने अपना सौभाग्य माना है। लिहाज़ा यह कहना कि गो मांस वैदिक समाज में ‘प्रचलित’ था, सत्य को नकारना होगा।

स्वयं डॉ. आम्बेडकर ने, जिन्होंने एक लेख लिख कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वैदिक काल में भी एक वर्ग गो मांस खाता था, कहा और इस लेखक ने भी उनकी तस्दीक की कि ऋग्वेद में गाय को रूद्र की माँ, वासु की पुत्री और आदित्य की बहन और अमृत का केंद्र कहा गया है। जबकि एक अन्य जगह गाय को देवी की संज्ञा दी  गयी है और अघन्य माना गया है।

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