पिछले काफ़ी दिनों से जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा फिर से पढ़ रहा था। पेज नंबर 265 पर आ कर अटक गया। यहां नेहरू गांधी जी के बारे में बात कर रहे हैं और गांधी की व्याख्या करते-करते समझाते हैं कि दरअसल गांधी की नज़र में लोकतंत्र क्या है। नेहरू लिखते हैं, “गांधी जी की नज़र में लोकतंत्र एक पराभौतिकीय व्यवस्था है। सामान्य अर्थ में इसका बहुमत, संख्या बल और प्रतिनिधित्व से कोई लेना-देना नहीं है। यह सेवा और त्याग पर आधारित है और नैतिक दबाव का इस्तेमाल करती है।”

आज़ादी की वर्षगांठ के मौक़े पर तकलीफ इस बात की है कि देश गांधी के सपनों से बहुत पीछे रह गया है। लोकतंत्र नैतिक मूल्य न रह कर, येन-केन प्रकारेण सत्ता पाने का एक औज़ार हो गया है। नैतिकता की बात करना अब मज़ाक का विषय बन गया है।
जाहिर है गांधी के लोकतंत्र को देखने का नज़रिया पश्चिम की अवधारणा से अलग था। वे लोकतंत्र को सिर्फ़ मैकेनिकल या वैधानिक अंदाज से नहीं देखते थे। उनके हिसाब से लोकतंत्र सिर्फ़ चुनाव लड़ने और जीतने का नाम नहीं था। वे सिर्फ़ बहुमत हासिल करने को ही अपनी नैतिक विजय नहीं मानते थे। उनके लिए लोकतंत्र नैतिक सवाल था।
नेहरू ने गांधी जी की अवधारणा को कोट किया है। गांधी लिखते हैं, “हमें ये मानना चाहिये कि कांग्रेस का लोकतांत्रिक स्वरूप इसलिए नहीं है कि उसके पास ज़्यादा डेलीगेट्स हैं या फिर उसके सालाना जलसों में अधिक लोग आते हैं। कांग्रेस इसलिए लोकतांत्रिक है कि वह लोगों की खूब सेवा करती है।”
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।