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न्यायपालिका केवल अंपायर बनी रही तो मॉब-लिंचिंग होगी ही

पिछले हफ़्ते सर्वोच्च न्यायालय ने ‘भीड़ न्याय’ के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ दिखाया तो लेकिन घटनाएँ बढ़ गयीं। क्योंकि चेतावनी यह होनी चाहिए थी कि अगर ‘भीड़ न्याय’ की घटना हुई तो यह मान कर कि प्रशासन ज़िले में असफल रहा, लिहाज़ा एसपी और डीएम को अगले दस साल तक प्रोन्नति नहीं मिलेगी।
एन.के. सिंह

दंगों में 65 मौतें लेकिन 41 में 40 मामलों में सब बरी!

तबरेज़, पहलू ख़ान, जुनैद, अख़लाक़ और दर्जनों अन्य मारे गए। 

मूल कारण : शक। घर में या टिफ़िन में या साइकिल पर या ट्रक में गोवंश या गोमांस। 

अन्य कारण : ‘वन्दे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ बुलवाने पर उनका नए ‘राष्ट्र-भक्ति टेस्ट’ में फ़ेल होना या कई बार महज पोशाक या चेहरे पर दाढ़ी के आधार पर हमला कर राष्ट्रवाद की सीख देना या शक करना (कई बार हक़ीक़त भी) कि पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा लगा रहा था या आदमी का बच्चा या कई बार बकरी का बच्चा चुरा रहा था। 

तरीक़ा : भीड़ में उन्माद पैदा करना और फिर इन्हें पीट-पीट कर मार देना। आदत बढ़ती गयी तो अब ये सामान्य चोर को या चोरी के शक में भी मारने लगे हैं; जैसे बिहार के छपरा और वैशाली में। ‘राष्ट्रवाद’ इन दिनों गोमाता या गोमांस, वन्दे मातरम और भारत माता से फिसलता हुआ आदतन ‘भीड़ न्याय’ में बदल चुका है। भारत के संविधान की उद्देशिका के प्रथम वाक्य ‘हम भारत के लोग’ का स्थान शायद ‘हम भीड़ तंत्र के लोग’ लेता जा रहा है।

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भारत के 2014 के आम-चुनाव के एक साल पहले उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगों के, जिनमें 65 लोगों मारे गए थे और बलात्कार की कई घटनाएँ हुई थीं। 41 मामलों में से 40 में अभियुक्तों को ट्रायल कोर्ट ने बरी कर दिया और जिस एक मामले में आजीवन कारावास की सज़ा हुई उन सात अभियुक्तों के नाम हैं- मुजम्मिल, मुजस्सिम, फुरकान, नदीम, जनन्गिर, अफजल और इक़बाल। इन पर आरोप था कि पहले उनकी बहनों से छेड़ख़ानी की और फिर विरोध करने पर गौरव और सचिन को मार डाला। उसके बाद जो हमला मुसलमानों पर किया गया, आगजनी और बलात्कार की घटनाएँ हुईं उनके आरोपी- साक्ष्य के अभाव, कमज़ोर साक्ष्य, गवाहों- यहाँ तक कि पुलिसवालों का मुकर जाना- के कारण छूट गए। बलात्कार के एक मामले में पीड़िता ने अदालत में बताया कि पुलिस ने तीन महीने बाद मेडिकल जाँच कराया। अखिलेश यादव की सरकार का समय भी था और 2017 से भारतीय जनता पार्टी की योगी सरकार है। हमला करने वालों में अधिकांश आसपास के गाँवों के जाति-विशेष के लोग थे। अखिलेश यादव ने इस जाति के नेता से 2017 के चुनाव में हाथ मिलाया था, जबकि बीजेपी ने भी इस वोट बैंक पर पूरी नज़र रखी थी। अफ़सोस की बात यह है कि भारत की अपराध प्रक्रिया संहिता के सेक्शन 176 और 190 अदालत को अधिकार देती है कि वह पूरी जाँच फिर से करा सके लेकिन उसका उपयोग शायद ही होता हो।

एक विज्ञापन में आता है ‘सब कुछ आंधी में उड़ गया पर परफ़्यूम बच गया’। आज केवल न्यायपालिका ही जन-विश्वास के सहारे के रूप में बची है।

यह सही है कि भारत में एक्युजिटोरियल यानी अभियोगात्मक न्याय व्यवस्था है जिसमें अभियोग पक्ष आरोप लगाता है, अभियोगपत्र दाखिल करता है, गवाह खड़े करता है और दूसरी तरफ़ से अपने बचाव में अभियुक्त भी यही सब करता है। अदालत क्रिकेट के उस अंपायर की मानिंद है जो गेंद बगैर फ़ील्ड पर टप्पा पड़े बाउंड्री के पार जाये तो उर्ध्वाधर यानी वर्टिकल और टप्पा पड़ कर जाये तो समानान्तर हाथ हिला कर फ़ैसला देता है, साक्ष्य के अभाव में बरी करता है, पुलिस साक्ष्य ले आये तो सज़ा दे देता है बगैर यह सोचे कि साक्ष्य कैसे बनाये या पलटाये जाते हैं या आख़िर मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में 65 लोग कैसे ‘मर’ (या मारे) जाते हैं और कैसे दर्जनों घरों में आग लगा दी जाती है या गाँव की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है और फिर भी कोई अपराधी नहीं होता। कुछ देशों जैसे फ़्रांस में इन्क्वीजिटोरिअल सिस्टम है जिसमें अदालत सत्य जानने के प्रति आग्रह रखता है लिहाज़ा सत्य जानने के लिए जाँच में भी भूमिका निभाता है।

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आरोपियों को मिल रही किनकी शह?

घर में गोमांस के शक पर अख़लाक़ को मार दिया गया। पर आरोपी नोएडा में मुख्यमंत्री के आने पर पहली पंक्ति में बैठते हैं। रकबर ख़ान को अलवर में जब मारा जा रहा था तो पीटने वालों में अग्रणी भूमिका निभाते हुए कुछ लोगों ने बुलंद आवाज़ में कहा, ‘एमएलए साहेब हमारे साथ हैं, हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता’। इसमें भले ही ‘एमएलए साहेब’ की कोई ग़लती हो या न हो, क़ानून को हाथ में लेने वाली भीड़ को यह मालूम था इस (कु) कृत्य की कोई सज़ा नहीं होगी अगर एमएलए साहेब साथ हैं या ऐसा कह कर सिस्टम को (जिसमें क़ानूनी प्रक्रिया भी है) डरवाया जा सकता है। यानी ऐसा भरोसा कि क़ानून व्यवस्था को एक विधायक पंगु बना सकता है। और यह भरोसा हो भी क्यों न! उन्नाव के एक विधायक पर बलात्कार का आरोप लगा, शिकायत करने पर सरेआम लड़की के बाप को पीट-पीट कर मरवा दिया गया और पुलिस ने गिरफ़्तार भी किया तो लड़की के परिजनों को। 

और फिर जब उसी भाव को प्रश्रय देने वाले अगुवा लोग यह बयान देते हैं कि ‘लोग गोमांस खाना छोड़ दें तो ‘भीड़ न्याय’ बंद हो जाएगा यानी पहलू ख़ान, रकबर, जुनैद या अख़लाक़ सड़कों पर पीट-पीट कर नहीं मारे जाएँगे तो यह सलाह से ज़्यादा धमकी लगती है– एक ऐसी धमकी जो संविधान के लिए ख़तरा बनती जा रही है। बयान देने वाले ने यह नहीं कहा कि संसद गोहत्या या गोमांस के ख़िलाफ़ सख़्त क़ानून बनाये क्योंकि इससे जनोन्माद-जनित वोट का कोई रिश्ता नहीं होता और फिर उसे यह भरोसा नहीं है कि क़ानून का पालन हो सकेगा।

और संभवतः इसी भाव का विस्तार आगे होता रहा तो एक दिन यह बयान भी आ सकता है कि ‘महिलाएँ विरोध न करें तो बलात्कार होगा हीं नहीं’। और तब भारत एक आदिम सभ्यता में फिर वापस चला जाएगा जिससे निकलने में हज़ारों साल लगे।

यह सब तब होता है जब क़ानून प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करता है, न्यायपालिका दशकों तक फ़ैसले नहीं करती और फिर अगर करती भी है तो धमकी के कारण गवाह मुकर चुके होते हैं। लिहाज़ा न्याय मूकदर्शक बन जाता है। पिछले हफ़्ते सर्वोच्च न्यायालय ने ‘भीड़ न्याय’ के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ दिखाया तो लेकिन घटनाएँ बढ़ गयीं। क्योंकि चेतावनी यह होनी चाहिए थी कि अगर ‘भीड़ न्याय’ की घटना हुई तो यह मान कर कि प्रशासन ज़िले में असफल रहा, लिहाज़ा एसपी और डीएम को अगले दस साल तक प्रोन्नति नहीं मिलेगी। इसमें न तो विधायक का ज़ोर चलेगा न ही संविधानेत्तर दुष्प्रयास होंगे और न हीं क़ानून-व्यवस्था का ‘भीड़ न्याय’ रूपी ख़तरनाक विकल्प तैयार होगा।

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