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सरदार वल्लभभाई पटेल

सरदार पटेल ने कहा था- विभाजन नहीं होता तो भारत के कई टुकड़े हो जाते 

“हमने हिंदुस्तान के टुकड़े किए जाना कबूल कर लिया। कई लोग कहते हैं कि हमने ऐसा क्यों किया और यह गलती थी। मैं अभी तक नहीं मानता कि हमने कोई गलती की। साथ ही यह मानता हूं कि अगर हमने हिंदुस्तान के टुकड़े मंजूर नहीं किए होते तो आज जो हालत है, उससे भी बहुत बुरी हालत होनेवाली थी। तब हिंदुस्तान के दो टुकड़े नहीं, बल्कि अनेक टुकड़े हो जानेवाले थे। मैं आपको इस बात की गहराई में नहीं ले जाना चाहता हूं, लेकिन यह बात मैं अनुभव के आधार पर बताना चाहता हूं। मेरे सामने वह सारी तस्वीर है कि हम किस तरह एक साल सरकार चला पाए थे और अगर हमने यह चीज कबूल न की होती तो क्या होता?”

यह सरदार पटेल के भाषण का अंश है जिसमें उन्होंने भारत विभाजन को ‘ग़लती’ नहीं अनिवार्य बताया था। ज़ाहिर है, भारत विभाजन से कोई भी ख़ुश नहीं था, लेकिन परिस्थितियों को देखते हुए पहले पटेल और नेहरू और फिर स्वतंत्रता आंदोलन के सूत्रधार महात्मा गाँधी भी इसके पक्ष में हो गये थे। पराधीन भारत के 80 फ़ीसदी भूभाग पर स्वतंत्र भारत की इमारत बनाना और 20 फ़ीसदी जिन्ना की ज़िद के लिए छोड़ देना कहीं बेहतर समझा गया। ये अंग्रेज़ों की उस योजना से बेहतर विकल्प था जिसके मूल में भारत का बाल्कनाइजेशन (तमाम छोटे टुकड़ों में बाँटना) करना था। इतिहास किसी की इच्छाओं का ग़ुलाम नहीं होता बल्कि लोगों को ऐतिहासिक परिस्थितियों को देखते हुए फ़ैसला लेना होता है। इस फ़ैसले में नफ़ा ही नफ़ा हो यह ज़रूरी नहीं, कुछ नुकसान भी होता है। स्वतंत्रता आंदोलन को आज़ादी के मुहाने तक पहुँचाने वालों ने विभाजन की क़ीमत देकर स्वतंत्रता के भवन में प्रवेश करने का फ़ैसला किया था।

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दिलचस्प बात है कि जिन लोगों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी वे विभाजन को ग़लती नहीं मानते, लेकिन जो इस लड़ाई से दूर रहे, यहाँ तक कि अंग्रेज़ों का साथ देते रहे, वे अब विभाजन के दोषियों की शिनाख़्त करने का अभियान चला रहे हैं। 14 अगस्त 2021 को केंद्रीय गृहमंत्रालय की ओर से जारी राजपत्र में कहा गया था कि “भारत सरकार, भारत की वर्तमान और भावी पीढ़ियों को विभाजन के दौरान लोगों द्वारा सही गयी यातना और वेदना का समरण दिलाने के लिए 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस घोषित करती है।” और बीते दो साल से 14 अगस्त आने के कुछ दिन पहले से ही विभाजन के लिए कांग्रेस को कोसने का अभियान तेज़ हो जाता है।
प्रधानमंत्री मोदी द्वारा संसद में हालिया अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान भी कांग्रेस को भारत विभाजन के लिए कोसा गया था। ऐसा करते हुए उनका निशाना इतिहास में नेहरू और वर्तमान में गाँधी परिवार होता है। लेकिन क्या ये हमला सरदार पटेल और महात्मा गाँधी पर नहीं माना जाना चाहिए जो विभाजन की योजना से पूरी तरह सहमत थे। हक़ीक़त ये है कि देश में फैली अराजकता और सांप्रदायिक उन्माद को देखते हुए नेहरू और सरदार पटेल ने विभाजन की योजना को सबसे पहले सहमति दी थी। माउंटबेटन की योजना के मुताबिक विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस कार्यसमिति से पास कराने का ज़िम्मा भी सरदार पटेल ने ही लिया था जो पीएम मोदी के कथित प्रेरणास्रोत हैं।
सवाल उठता है कि सत्ता में सात साल रह लेने के बाद मोदी सरकार को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने की याद क्यों आयी? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा करके आज़ादी के पूरे आंदोलन को दाग़दार बनाने की साज़िश की जा रही है। यह तथ्य है कि आरएसएस ने स्वतंत्रता संग्राम से न सिर्फ़ दूरी बनाकर रखी थी, बल्कि हर महत्वपूर्ण मौक़े पर अंग्रेज़ों के साथ खड़ा हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम में अनुपस्थिति से जुड़ी हीनभावना को छिपाने का तरीक़ा है कि आज़ादी के मतवालों की कुर्बानियों को कमतर साबित करके विभाजन के ‘गुनाह’ का शोर मचाया जा रहा है। जबकि यह सरदार पटेल के मुताबिक कोई ‘गुनाह’ नहीं था।

कल्पना करिये कि भारत-पाकिस्तान विभाजन न होता तो क्या होता? 562 स्वतंत्र रियासतों को देखते हुए 80-90 टुकड़े तो होते ही। इतिहास बताता है कि बीजेपी के वैचारिक पुरखों को इससे दिक्कत नहीं थी। जब त्रावणकोर रिसायत ने भारत में विलय की जगह स्वतंत्र होने की घोषणा की तो सावरकर ने बधाई संदेश भेजा था। उन्होंने शासकों के इस रुख का समर्थन किया कि राज्य की संप्रभुता उसके लोगों में नहीं बल्कि भगवान पद्मनाभ से प्रवाहित होती है। सावरकर की जीवनी में इतिहासकार विक्रम संपत लिखते हैं-“सावरकर का त्रावणकोर के दीवान सर सी.पी.रामास्वामी अय्यर का समर्थन, जो हिंदू रियासत की स्वायत्तता और स्वतंत्रता की घोषणा करने की योजना बना रहे थे, नये भारतीय यूनियन की एकीकरण प्रक्रिया के लिए दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक था।”
वैसे यह आश्चर्य की बात नहीं है। सावरकर और आरएसएस की वैचारिकी में भारत हमेशा से ‘राष्ट्र’ था। इससे फर्क़ नहीं पड़ता कि इसके अंदर कितने ‘संप्रभु राज्य’ थे जो मौका पाते ही एक दूसरे पर टूट पड़ते थे। सिंहासन के लिए रक्त की नदियाँ बहायी जाती थीं और पराजितों के महलों से लेकर देवालयों तक धूलधूसरित कर दिये जाते थे। महिलाओं और पुरुषों को दास बना लिया जाता था। यह उस ‘राष्ट्र-राज्य’ की संकल्पना से बिल्कुल उलट है जिसकी नींव 15 अगस्त 1947 को पड़ी थी। मनुष्य से मनुष्य के बीच सभी तरह के भेद को अवैधानिक बनाने वाला यह वाक़ई नवीन भारत था।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सावरकर ने 1937 में हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में हिंदू और मुसलमान को ‘दो राष्ट्र’ होने का ऐलान कर दिया था। यानी मो.अली जिन्ना द्वारा ‘टू नेशन थ्योरी’ देने के दो साल पहले। 1943 में सावरकर ने नागपुर में एक बार फिर दोहराया था कि उनका जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है। यह संयोग नहीं कि जब कांग्रेस भारत छोड़ो आंदोलन चला रही थी तो सावरकर के नेतृत्व में हिदू महासभा और जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग बंगाल और सिंध में मिलकर सरकार चला रही थीं।
तो क्या विभाजन विभीषिका दिवस मनाने के क्रम में सावरकर की जिन्ना परस्त भूमिका की याद दिलायी जाएगी? दक्षिणपंथी इतिहासकार और आरएसएस खेमे में प्रशंसित रहे आर.सी.मजूमदार ने लिखा है कि “सांप्रदायिक आधार पर बँटवारे के लिए मुख्य रूपसे जिम्मेदार एक बड़ा कारक हिंदू महासभा थी, जिसका नेतृत्व क्रांतिकारी नेता वी.डी.सावरकर कर रहे थे।” (स्ट्रगल फ़ॉर फ्रीडम, पेज 611)  

विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का अर्थ है किसी बच्चे के जन्मदिन पर प्रसव के दौरान हुई पीड़ा का मातम मनाना। रंगीन गुब्बारों से सजावट की जगह प्रसव के रक्त से रंजित चादर दिखाना। इसमें शक़ नहीं कि विभाजन में लाखों लोग मारे गये। आबादी का स्थानांतरण तक़लीफ़ों की महागाथा है। लेकिन मोदी सरकार यह भूल गयी है कि मनुष्य ही नहीं राष्ट्रों के लिए भी जितना महत्व ‘स्मृति’ का है, उतना ही ‘विस्मृति’ का भी है। कड़वी यादों के भँवर से निकलकर कोई स्वस्थ यात्रा संभव होती है। 
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14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने का मतलब 15 अगस्त के लड्डुओं की मिठास को कम करना है। विभाजन की विभीषका को महसूस करने का वास्तविक अर्थ है धर्म को राजनीति या राष्ट्र का वाहक समझने के ख़तरनाक़ परिणामों के प्रति सचेत होना। लेकिन विभाजन विभीषिका दिवस मनाने वाले तो इससे उलट राह के राही हैं।

पुनश्च: अगर भारत-पाक विभाजन न होता तो सरदार पटेल के मुताबिक देश के अनेक टुकड़े होते। इस टुकड़े-टुकड़े आज़ादी में लोकतंत्र भी नहीं होता। ऐसे में मोदी जी देश के नहीं, किसी रियासत के सेंगोलधारी शासक के ही प्रधानमंत्री बन सकते थे! 

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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क़मर वहीद नक़वी
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