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फ़ोटो क्रेडिट- pixabay.com

21वीं सदी में भी जादू-टोना, तंत्र-मंत्र के नाम पर हो रही हत्याएं, उत्पीड़न

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में बसौड़ा गांव के बृजेश केवट ने कुल्हाड़ी से अपनी पत्नी का सिर काट डाला। पत्नी का शव अपने घर में ही गाड़ दिया और उसका कटा सिर कुलदेवी के समीप ले जाकर ज़मीन में दबा दिया। बृजेश तांत्रिक था। उसने यह सब किसी तरह की कथित सिद्धि हासिल करने के लिए किया। हाल के महीनों में इस तरह की तमाम घटनाएं सामने आई हैं। इस तरह के जो भी मामले आते हैं, वे ज्यादातर दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग से जुड़े परिवारों के होते हैं।

यह इकलौती घटना नहीं है, जो आदिवासी बहुल पिछड़े जिले सोनभद्र में हुई है। महिलाओं के उत्पीड़न की घटनाएं भयावहता के चरम पर हैं। लॉकडाउन के कारण दहेज और विवाह करने के खर्च में कमी आई तो लोग कम उम्र की लड़कियों का विवाह करने लगे। 

महाराष्ट्र में दहेज घटने की वजह से बाल विवाह में तेजी आ गई। मई से जुलाई के बीच सरकार की नोडल एजेंसी चाइल्डलाइन के पास बच्चियों के उत्पीड़न के 93,203 मामले आए, जिनमें से 5,584 मामले बाल विवाह से जुड़े थे। इसके पीछे कोविड-19 के बाद लोगों की खराब होती आर्थिक दशा को अहम कारण माना जा रहा है।

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प्रेम विवाह पर पति की हत्या

समाज में महिलाओं को लेकर उनकी पहरेदारी भी कम होने का नाम नहीं ले रही है। उत्तर प्रदेश के ही जालौन जिले के उरई में महिला कांस्टेबल रिंकी राजपूत ने घरवालों की मर्जी के ख़िलाफ़ अपने सजातीय प्रेमी मनीष से शादी की थी। वह आत्मनिर्भर थी। सरकारी नौकरी करती थी, वह भी पुलिस विभाग में। उसके बावजूद रिंकी राजपूत के पिता, मामा और भाई ने उसके पति को काट डाला, अब वह विधवा है और उसका एकमात्र बेटा अनाथ।

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के नगला गुरबख्श गांव में 35 साल की एक विधवा के ऊपर आरोप लगाया गया कि उसके संबंध गुरमीत कठेरिया नाम के शख़्स के साथ हैं। गांव वालों ने दोनों के बाल काट डाले, उनके चेहरों पर कालिख पोतकर गांव में घुमाया। इसका वीभत्स वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ।

अव्वल दर्जे की बेवक़ूफ़ी

देश में जादू-टोना, इज्जत बचाने के नाम पर उत्पीड़न और हत्याएं आम हैं। इसका अनुकूलन भी हो चुका है। राजस्थान में एक देवी के मंदिर के बारे में मान्यता है कि अगर महिलाएं अपने पति के साथ मंदिर आएंगी और पति के पैरों के जूते को उतरवाकर उन जूतों में पानी पिएंगी तो उनका भला होगा। अगर महिला के ऊपर भूत का साया होता है तो मंदिर के तांत्रिक महिलाओं को उन्हीं जूतों से बेरहमी से मारते हैं। उसके बाद उन जूतों को मुंह में दबाकर महिला को पूरे गांव का चक्कर लगाना होता है। इसमें स्वेच्छा और जोर-जबरदस्ती दोनों शामिल होते हैं।

इस तरह की ज्यादातर घटनाएं समाज के कमजोर तबक़े में ज्यादा होती हैं। महिलाओं को पीटे जाने, उन्हें नंगा करके घुमाने, उन्हें चुड़ैल या जादू टोना करने वाली बताने के जितने भी मामले आते हैं, वे सामान्यतया दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग के परिवारों से जुड़ी महिलाओं के होते हैं।

पढ़ाई को अहमियत देना ज़रूरी

अशिक्षा, धार्मिक मान्यताएं, अंधविश्वास इसमें अहम भूमिका निभाते हैं। यह सब कुछ इन परिवारों की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति से जुड़ा हुआ मसला है। अगर इस तबक़े का सामाजिक और शैक्षणिक विकास होता है तो इनकी स्थिति में सुधार आने की पूरी संभावना है।

लेकिन यह होगा कैसे? देश के आर्थिक विकास के मॉडल में कहीं यह विचार ही शामिल नहीं है कि देश के सभी समुदायों, समूहों, समाजों तक शिक्षा का लाभ पहुँचाया जा सके, लोगों में आधुनिक सोच विकसित की जा सके, अन्धविश्वासों, सामाजिक रूढ़ियों और पोंगापंथ के ख़िलाफ़ व्यापक चेतना जगायी जा सके। होता तो यहाँ बिलकुल उलटा है। जो लोग या छोटे-मोटे कुछ संगठन अपने स्तर पर लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते हैं, उनके हत्यारे पकड़े नहीं जाते, बेख़ौफ़ घूमा करते हैं। 

बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था 

उधर, देश की अर्थव्यवस्था पिछले छह सालों से लगातार पटरी से उतर रही है और अब रही-सही कसर कोविड ने पूरी कर दी। संगठित क्षेत्र में करीब 2 करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं। इसके अलावा दिहाड़ी पर काम करने वाले और छोटे-मोटे धंधे करने वाले बेरोजगार हो चुके लोगों की संख्या 5 से 10 करोड़ के बीच मानी जा रही है। 

सरकार के पास असंगठित क्षेत्र के सटीक आंकड़े नहीं होते हैं और अनुमानित आंकड़े भी जारी होने बंद हो चुके हैं। ऐसे में यह सही-सही अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति क्या है।

छोटे-मोटे काम करके रोजी-रोटी चलाने वालों में भी बड़ी संख्या दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग की है। ऐसी घोर आर्थिक आपदा की स्थिति में भूत, पिशाच, जिन्न और धर्म का धंधा और भी चमक जाता है।

धर्म और तंत्र-मंत्र का सहारा

लोग सरकार से किसी तरह की उम्मीद नहीं कर रहे हैं। आपदा की स्थिति में शायद अब लोगों को यह अनुभव और भी शिद्दत से हो रहा है कि यह ईश्वर की वजह से हो रहा है। हालांकि अगर देश की अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था, रोजगार की स्थिति बेहतर रहती तो स्वाभाविक था कि किसी वायरस के फैलने या महामारी का असर थोड़ा कम होता। लेकिन आम नागरिक इसके लिए सिस्टम को दोष न देकर प्रभु की लीला मानते हैं। ऐसे में धर्म और तंत्र-मंत्र के माध्यम से जीवन स्तर सुधारने, स्वास्थ्य सुधारने की कवायद तेज हो रही है।

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सरकार अपनी सुविधा के मुताबिक़ आर्थिक व स्वास्थ्य संबंधी दुर्दशा को ईश्वरीय आपदा बता रही है। ऐसे में लोग अपने मुताबिक़ ईश्वर को खुश करने और आपदा से बचने की कोशिश कर रहे हैं। इस स्थिति में आगे आकर कुछ करने की संभावना ही समाज को बेहतर बना सकती है।

हर जाति के अपने जातीय संगठन बने हुए हैं। उनकी पूरी कवायद यह होती है कि किस तरह से अपनी जाति को किसी राजे-रजवाड़े के खानदान का बताकर जातीय हिसाब से श्रेष्ठ साबित किया जाए। अगर जातीय संगठन अपनी जातियों में फैली इस तरह की कुरीतियों को दूर करें तो इस दिशा में बेहतर परिणाम आने की संभावना बनती है।

भारत को सांप-सपेरों का देश कहा जाता रहा है। लंबी यात्रा के बाद उस दौर से बाहर निकलकर आधुनिकता के कुछ पायदान चढ़ने में देश को कामयाबी मिली। ऐसे दौर में मंत्र-तंत्र और इस तरह के धार्मिक उत्पीड़न की घटनाएं हैरान करती हैं। महिलाओं का इस कदर उत्पीड़न करके हम एक उन्नत देश नहीं बन सकते और ऐसी स्थिति में कोई भी देश हमें विकसित तो दूर, सभ्य देश मानने को भी तैयार नहीं होगा।

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प्रीति सिंह
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