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कल कोई मेरा क़त्ल कर दे तो?

मेरे लिये जान से मारने की धमकी मिलना कोई नई बात नहीं है। गालियों, धमकियों का मैं अब आदी हो चुका हूँ। 2013 के बाद से ही जब-जब मैंने मोदी, बीजेपी, आरएसएस की तीख़ी आलोचना की है, मुझे गालियाँ मिली हैं। थोक के भाव गालियाँ मिली हैं। एक मित्र ने मुझसे कहा कि ये गालियाँ प्रायोजित हैं। एक टीम बना कर विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा है। गाली देने वालों को गाली देने के पैसे मिलते हैं। इसका मक़सद बहुत साफ़ है कि विरोध की आवाज़ को चुप कराया जाये। 
आशुतोष
28 अगस्त की शाम को मैं एक टीवी डिबेट में था। मसला था - राहुल गाँधी की कश्मीर पर की गई टिप्पणी को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र को भेजी अपनी शिकायती चिठ्ठी में उद्धृत किया था। इसके आधार पर बीजेपी और टीवी एंकरों ने राहुल की लानत-मलानत करनी शुरू कर दी थी। यह साबित करने का प्रयास शुरू कर दिया गया था कि राहुल पाकिस्तान की भाषा बोलते हैं। राहुल ने अपना स्पष्टीकरण भी दिया लेकिन हमला तीख़ा और तीख़ा होता चला गया। यही विषय था जिसपर मुझे बहस के लिये बुलाया गया था। 
जब मुझ से सवाल पूछा गया तो मैंने दो टूक कहा, ‘मैं इस डर से कश्मीर पर कुछ न बोलूं क्योंकि पाकिस्तान मुझे कोट कर देगा, तो यह मेरी वाणी की स्वतंत्रता पर हमला है। इस बहाने यह कोशिश की जा रही है कि कश्मीर में जो हो रहा है उस पर कोई कुछ न बोले। सब अपने होंठ सी लें।’ 
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मैंने आगे कहा, ‘राहुल गाँधी ने क्या कहा यह मेरा विषय नहीं है। मेरा विषय यह है कि मैं या देश का कोई भी नेता कश्मीर पर कुछ बोले या न बोले क्योंकि अगर वह कश्मीर में जो हो रहा है उसको बयान करेगा तो पाकिस्तान उसे कोट कर देगा और फिर देश की सरकार, सत्ताधारी पार्टी मुझे या उसे देशद्रोही घोषित कर देगी और यह आरोप मढ़ दिया जायेगा कि मैं पाकिस्तान की भाषा बोल रहा हूँ।’
इस पर एंकर और बीजेपी के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन से मेरी तीख़ी नोकझोंक होने लगी। मेरे ऊपर यह आरोप लगाया गया कि मैं प्रोपेगेंडा कर रहा हूँ। फिर मैं भी भड़क गया और बोलने लगा कि जो पत्रकारिता आज हो रही है उस पर कुछ सालों के बाद आप लोगों को शर्म आयेगी या पश्चात्ताप होगा। इस बीच मेरा फ़ोन लगातार बजे जा रहा था। मैं टीवी पर लाइव था। लिहाज़ा फ़ोन नहीं उठा सकता था। जब उस नंबर पर फ़ोन नहीं उठा तो दूसरे नंबर से फ़ोन आया। तब भी नहीं उठा तो फिर पहले वाले नंबर से फ़ोन आने लगा।
मुझे लगा शायद कोई मुझसे अर्जेंटली संपर्क करना चाहता है, कहीं कोई इमरजेंसी न हो इसलिये मैंने पास बैठे अपने सहयोगी को फ़ोन दे दिया और कहा कि वह फ़ोन रिसीव कर ले। नेटवर्क की वजह से कई बार उसकी बात बीच में कटी और अंत में बात हुई। इस बीच टीवी पर ब्रेक हो गया। मैंने उससे पूछा कि किसका फ़ोन था। उसने बताया कोई आदमी बहुत ग़ुस्से में था और आपको (आशुतोष को) जान से मारने की धमकी दे रहा था। मैंने कहा, पूरी बात बताओ। उसने कहा, वह कह रहा था कि, ‘आशुतोष गद्दार है, इससे कहो डिबेट में न आया करे, अगर मुझे ये पब्लिक में मिल गया तो मैं इसे जान से मार दूँगा।’ तब तक टीवी डिबेट फिर शुरू हो गयी थी।
डिबेट ख़त्म होने के बाद मैंने उससे फिर पूछा कि हुआ क्या। उसने फिर कहा “सर, मैं बता नहीं सकता कि वह कितने ग़ुस्से में था। वह चिल्ला रहा था कि और आपका क़त्ल करने की बात कर रहा था।” मेरा साथी हिल गया था। वातावरण में तनाव व्याप्त हो गया। 
मेरे लिये इस तरह की धमकी कोई नई बात नहीं है। मैंने अपना फ़ोन उठाया तो मैसेज बाक्स में कई संदेश पड़े थे। दो-तीन लोगों ने मुझे गाली बकी थी। मेरी माँ को भी नही बख़्शा था। दूसरे ने पाकिस्तानी दल्ला घोषित कर रखा था।

ऐसी गालियों का मैं अब आदी हो चुका हूँ। 2013 के बाद से ही जब-जब मैंने मोदी, बीजेपी, आरएसएस की तीख़ी आलोचना की है, मुझे गालियाँ मिली हैं। थोक के भाव गालियाँ मिली हैं। शुरू-शुरू में मैं कमेंट्स पढ़ कर डिप्रेशन में चला जाता था। ख़ुद से पूछता था कि मैंने क्या ग़लती की है। कहीं मैं ग़लत तो नहीं हूँ। पर धीरे-धीरे समझ में आया। 

तीख़ी आलोचना तो मैं कांग्रेस की भी करता था। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। उनकी सैकड़ों बार धज्जियाँ उड़ायीं, कभी किसी ने धमकी नहीं दी। ट्विटर पर कभी गाली नहीं दी। मेरी माँ, बहन और पत्नी का नाम नहीं लिया।
फिर मैंने बीजेपी और आरएसएस के अपने आत्मीय मित्रों से बात की! उनसे पूछा। कुछ जानकार और शुभचिंतक लोगों ने कहा कि आप ज़्यादा न बोला करें। सावधान रहें। मैंने कहा, ‘भाई मैं पत्रकार हूँ। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। जो सही लगता है, वह बोलता हूँ।’ 

विरोधियों को चुप कराने की कोशिश

इस बीच मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि ये गालियाँ प्रायोजित हैं। एक टीम बना कर विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा है। गाली देने वालों को गाली देने के पैसे मिलते हैं। इसका मक़सद बहुत साफ़ है कि विरोध की आवाज़ को चुप कराया जाये। आलोचना बंद हो और जो लोग न मानें उन्हें डिस्क्रेडिट किया जाये, उनको मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाये। ताकि वे घबरा कर सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म छोड़ दें या फिर मेरे जैसे एंकर-संपादक आलोचना करना बंद कर दे। एक तरह का गिरोह है। जो कहता है कि यह रास्ता छोड़ दो नहीं तो मारे जाओगे।
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मेरे कई मित्र रातों-रात बदल गये। वे जो आलोचक थे, सरकार के गुण गाने लगे। ढोल पीटने लगे। हालाँकि वे अब भी अपने को पत्रकार कहते हैं। ख़ैर, मैंने ट्विटर के नोटिफ़िकेशन देखना-पढ़ना बंद कर दिया। मैंने ख़ुद से सवाल किया। मैं लिखना तो बंद नहीं करूँगा। क्योंकि यह अपने से समझौता करना होगा। लेकिन लिखे पर पढ़ना ज़रूरी नहीं है। वह आत्ममुग्धता है। छह साल हो गये हैं। मैं ट्विटर या फ़ेसबुक पर कोई भी पोस्ट डालने के बाद पढ़ता नहीं हूँ। जब भी पाँच छह महीने बाद नज़र पड़ी तो बिलकुल वही भाषा मिली और मैं पहले से ज्यादा क़ायल हो गया कि एक “पेड सिंडिकेट” स्वतंत्र पत्रकारों और स्वतंत्र विचार रखने वालों को टारगेटेड तरीके से सोशल मीडिया पर अटैक करता है। ये एक रणनीति का हिस्सा है। 

‘पाकिस्तान के दल्ले हैं’

ये रणनीति सोशल मीडिया तक ही नहीं रुकी। आगे बढ़ी। टीवी डिबेट में लोगों को टारगेट किया जाने लगा। स्वतंत्र पत्रकारों और एंकरों पर डिबेट के दौरान ओछी और भद्दी टिप्पणियाँ की जाने लगीं। ऐसे लोगों को कांग्रेस का दलाल कहा जाने लगा। लिबरल होना ख़तरनाक हो गया। बड़े-बड़े नेता कहने लगे कि ऐसे लोगों और नेताओं को पाकिस्तान भेज दो। “ये पाकिस्तान की बात करते हैं। पाकिस्तान के दल्ले हैं।” हम जैसे लोगों की एक तस्वीर बनायी जाने लगी कि ये सब देशद्रोही हैं। ये नैरेटिव शीर्ष से नीचे तक आया है। आज की तारीख़ में आप कश्मीर पर सरकार की लाइन से अलग बोलेंगे तो आपको पाकिस्तान परस्त घोषित कर दिया जायेगा। आप पुलवामा हमले को लेकर सुरक्षा एजेंसियों की कमी पर सवाल नहीं उठा सकते। उसकी जाँच की बात नहीं कर सकते कि इतना बड़ा हमला कैसे हो गया?

आप यह नहीं पूछ सकते कि बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक पर भारत को कितनी कामयाबी मिली, कितने पाकिस्तानी हलाक हुये? पहले वाले सर्जिकल स्ट्राइक का  “रैशनेल” अगर आप पूछेंगे तो आप देश के ग़द्दार माने जायेंगे। सेना पर सवाल पूछना मना है। पुलिस पर सवाल पूछना मना है। देश के प्रधानमंत्री से सवाल पूछना मना है। बीजेपी के अध्यक्ष से सवाल पूछना मना है। सरकार से सवाल पूछना मना है। ये नया राष्ट्रवाद है। आपसे सवाल पूछा जायेगा कि आप देश के साथ हैं या दुश्मन देश के साथ। मुझे अपने देश भक्त होने का प्रमाण देना पड़ेगा। ये नैरेटिव टीवी और प्रचार माध्यमों के जरिये पिछले कई सालों से देश में फैलाया जा रहा है। 

पिछले दिनों बीजेपी की एक टीवी पैनेलिस्ट निगहत अब्बास ने ट्विटर पर एक सर्वे कराया। सर्वे का विषय था - देश का सबसे बड़ा ग़द्दार कौन। चार नाम डाले गये। फ़ारूक़ अब्दुल्ला, महबूबा मुफ़्ती, शहला रशीद और आशुतोष। जी हाँ। मेरा नाम भी था। इन नेताओं की जमात में मेरा क्या काम?

देश का सबसे बड़ा गद्दार घोषित

आपको जानकर हैरानी होगी कि मुझे सबसे ज़्यादा वोट मिले। यानी मुझे देश का सबसे बड़ा ग़द्दार घोषित कर दिया गया। महबूबा मुफ़्ती और शहला रशीद से भी अधिक वोट मुझे मिले। 35% वोटों के साथ मैं पहले नंबर पर था और 25% वोट के साथ महबूबा मुफ़्ती दूसरे पर। यानी दस फ़ीसदी से मैं आगे था। यह क्या है? यह एक प्रायोजित कार्यक्रम था। मुझे बदनाम करने के लिये। मुझे देश का ग़द्दार साबित करने के लिये। मेरे ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल बनाने के लिये। यह क्यों किया गया? मेरा अपराध क्या है? क्या सिर्फ इसलिये कि मैं ईमानदार पत्रकारिता करता हूँ और सच को सच कहता हूँ।
मैं आपसे पूछता हूँ। एक मासूम सा आदमी जो अपने घर में बैठा है, जब वह ट्विटर पर हुए इस सर्वे को देखेगा-पढ़ेगा तो मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह मुझे देश का ग़द्दार मानेगा या नहीं? मुझको देख कर उसका ख़ून खौलेगा या नहीं?

किया जा रहा ब्रेन वॉश 

दरअसल, बड़े क़रीने से टीवी और सोशल मीडिया के जरिये देश के मासूम लोगों का ब्रेन वॉश किया जा रहा है। एक प्रक्रिया के तहत यह समझाया जा रहा है कि देश में कुछ ऐसे लोग हैं जो देश की बात नहीं करते। वह पाकिस्तान की बात करते हैं। ऐसे लोग देश के असल दुश्मन हैं और इन लोगों की “दोगलयी” और ऐसे देश के दुश्मनों की वजह से ही देश पिछले सत्तर साल में तरक़्क़ी नहीं कर पाया। हिटलर भी अपनी आत्म कथा में ऐसे ही देश के अंदरूनी दुश्मनों की बात करता है। वह लिखता है कि ये लोग “दीमक” हैं जो देश को धीरे-धीरे खोखला कर रहे है। सीमा के शत्रुओं से लड़ाई तब तक जीती नहीं जा सकती, जब तक अंदर के शत्रु को हम नहीं मिटा देते। उसके निशाने पर यहूदी थे। बाद में उसने यहूदियों को कैसे निपटाया यहाँ बताने की ज़रूरत नहीं है। 
क्या यह अकारण है कि एक टीवी डिबेट में बीजेपी के प्रवक्ता गौरव भाटिया ऐसे लोगों को दीमक कहते हैं और खुलेआम धमकी देते हैं कि ऐसे लोगों की जगह जेल की सलाखें हैं। मैंने तब भी उनकी भाषा पर आपत्ति की थी।
जब यह भाषा एक आम भारतीय सुनता है तो वह धीरे-धीरे एक धारणा बनाने लगता है और कुछ समय के बाद वह “कनविंस” हो जाता है कि सरकार तो अच्छा काम कर रही है लेकिन “दोगले” किस्म के लोग नहीं चाहते कि देश तरक़्क़ी करे। ये नहीं चाहते कि पाकिस्तान को सबक़ सिखाया जाये, ये नहीं चाहते कि आतंकवाद ख़त्म हो, ये नहीं चाहते कि नक्सलवाद ख़त्म हो; ये चाहते हैं कि कश्मीर में जनमत संग्रह हो और कश्मीर देश से अलग हो जाये। 
दो वक़्त की रोटी के लिये दिन-रात मेहनत करने वाले मज़दूर किसान, सुंदर भविष्य का सपना संजोये स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय के युवा, घर से दफ़्तर, दफ़्तर से घर जाने वाले आम शहरी और उद्यमी का ख़ून क्यों नहीं ऐसी बातों को सुनकर खौलेगा? ऐसे में एक मासूम युवा अगर मुझे देश का दुश्मन मान ले और फ़ोन पर जान से मारने की धमकी दे या देशभक्ति के जज़्बे में आकर मुझे गोली मार दे तो इसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा?  वह तो बस एक मोहरा है। गोली चलाने वाला हाथ है। उसको गोली चलाने के लिये किसने तैयार किया? कौन उसे दिन-रात गोली चलाने के लिये उकसा रहा है?

पटेल की आरएसएस प्रमुख को चिट्ठी

ऐसे में मुझे सरदार पटेल की आरएसएस प्रमुख गोलवाल्कर को 11 सितंबर 1948 को लिखी चिठ्ठी याद आती है। यह चिठ्ठी गाँधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे बैन के संदर्भ में लिखी गयी थी। सरदार पटेल ने लिखा था, “उनके भाषण सांप्रदायिक ज़हर से भरे थे। ज़हर फैलाना और हिंदुओं को उत्तेजित और अपनी रक्षा के लिये संगठित करना ज़रूरी नहीं था। इस ज़हर का अंतिम नतीजा था कि देश को गाँधी के बहुमूल्य जीवन की क़ीमत चुकानी पड़ी।” 
सरदार पटेल मानो कह रहे थे कि नाथूराम गोडसे तो महज़ एक हथियार था। उसको उकसाने वाला, हथियार उठाने के लिये मजबूर करने वाला दिमाग कोई और था। नफ़रत का जो माहौल पैदा किया गया, 1947 के समय गाँधी जी के ख़िलाफ़ जो ज़हर उगला गया, दरअसल उसी वजह से गाँधी जी की हत्या हुई। आज सत्तर साल बाद देश में फिर वही माहौल बनाया गया है। गाँधी जी की हत्या और देश विभाजन का दंश झेल चुके भारत को इतिहास से सबके लेना चाहिये। जो सबक़ नहीं लेते वो दुहराने के लिये अभिशप्त हैं। क्या देश फिर किसी गाँधी की हत्या का इंतज़ार कर रहा है?
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