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फूल तोड़ने से दलितों का सामाजिक बहिष्कार? 

15 वर्षीय लड़की का किसी और के पौधे से एक फूल तोड़ने की स्वभाविक परिणति क्या हो सकती है? हद से हद कि उस लड़की को समझाया जाए कि फूल तोड़ना ग़लत बात है और विशेषकर जब बिना आज्ञा के तोड़ा जाए। परंतु अगर वह लड़की दलित हो और फूल का मालिक सवर्ण हो तब? इस सवाल का जवाब भारतीय इतिहास में तमाम स्मृतियां, हमारी सामाजिक विरासत और हाल फ़िलहाल ओडिशा के ढेनकनाल जिले में कांटियो केटनी गाँव के सवर्ण परिवारों ने दिया है।

सामाजिक बहिष्कार

दलित लड़की के फूल तोड़ने की घटना के बाद दो हफ्ते से 40 दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार किया गया है। इन 40 परिवारों को सार्वजनिक दुकानों, सामाजिक कार्यक्रमों, पीडीएस की सरकारी दुकान, सरकारी विद्यालयों से बहिष्कृत रखा गया है। गाँव का कोई सवर्ण इन से बात नहीं कर रहा है।
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बराबर होना वह न्यूनतम अधिकार है जो विश्व भर में लोग मनुष्य जाति के उद्भव से ही मांगते आ रहे हैं। गोरी चमड़ी काली चमड़ी को बर्बर और असभ्य नस्ल मानती आई, मर्द जाति ने औरतों को सुकुमारी और नेतृत्व के अयोग्य माना, मिल मालिकों ने मजदूरों को औज़ार मात्र, और दलितों को सवर्ण मानसिकता ने।
दलितों को मनुष्य मात्र मानने से उन्हें अपनी स्थिति ख़तरे में क्यों लगती है? दलित के घोड़ी चढ़ने, उनके मूछें रखने, उनके मंदिर प्रवेश, उनके कुएं के प्रयोग से, उनकी छाया तक से ख़तरा क्यों लगता है?

गाँव के बाहर दलित बस्ती

उत्तर भारत में अधिकतर गाँव बसाने का कार्य अतीत में कुछ सवर्ण परिवारों ने किया, जो अपने साथ कुछ दलित कामगार को लेकर नये स्थान पर गए। पुरानी धारणा के अनुसार मृत्यु और महामारी का प्रवेश गांव में दक्षिण से होता है। परिणामस्वरूप दलितों को दक्षिण में बसाया गया और स्वयं गाँव के बीच में। आरक्षण का पुरजोर विरोध करने वाले आज भी उत्तर भारत में सवर्ण दलित की शादी में चावल ग्रहण नहीं करते। वे बराबर हो जाने की कल्पना से भी चिंतित क्यों हो जाते हैं?
कारण उत्पादन के साधनों पर वर्चस्व का है। बेमेल अधिकारों की इसी संस्कृति ने सवर्णों को जाति व्यवस्था के प्रथम सोपान पर रख दलितों को इनके चाकर के रूप में स्थापित किया। पुरोहितों ने जातिगत सोपान को धार्मिक जामा पहना दिया। इस विभेदकारी सोपान का विरोध धर्म का विरोध बन गया।

दलितों की दुर्गति

पुराने समय में गाँवों में बलात्कार की घटना के पीछे जातिगत अहम की भूमिका प्रमुख रही है। किसी पुरुष दलित के ‘भूल’ की कीमत उसके स्त्री के बलात्कार से वसूली जाती थी। हालाँकि यहां भी स्त्रियों को कमोडिटी से ज़्यादा नहीं समझा गया।
कई इलाक़ों में हरवाही करने वाले दलितों के हिस्से में वे अनाज आते थे जो मवेशी अपने गोबर में साबुत छोड़ देते थे। दरअसल अनाज की दँवरी करते समय पशु अनाज खाते और हडबड़ी में साबुत निगल लेते थे। बाद में गोबर में वे अनाज निकाल देते।
दलित हरवाहे उस गोबर को धोकर छान लेते थे और उस अनाज को पिसवाकर खाते थे। यह बात सदियों पुरानी नहीं बल्कि 4-5 दशक पुरानी ही है।

दलित राजनीति

दलित चुनाव में उंगलियों पर गिने जाने वाले वोट मात्र समझे गए। दलित नेताओं ने इन्हें सीढ़ी बनाकर स्वयं की मूर्तियाँ लगवा लीं और स्वयं भगवान के समकक्ष आ गए। आज भी कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था और जन्म आधारित का भेद बता कुछ सवर्ण इस सोपान के औचित्य सिद्धि का प्रयत्न करते हैं। जवाब एक ही है- इस व्यवस्था को तोड़ा जाए। सुधार की संभावना तब तक नहीं है जब तक सब बराबर नहीं हैं।

दलितों का बहिष्कार करते सवर्णों को समझना होगा कि जिस दिन ग़ैर- सवर्णों ने बहिष्कार शुरू किया उस दिन यह सामाजिक संरचना टूट जाएगी।
संविधान हमारी धार्मिक स्मृतियों (विशेषकर मनुस्मृति) को पदच्युत नहीं कर पाई है। दलितों के घर में बाबा साहेब आंबेडकर की तसवीर और उनके हाथ में संविधान की एक प्रति, भरोसा पैदा करती है दलित जनमानस में। एक दिन आएगा जब सब बराबर होंगे। जब मूंछों वाला फैशन जाति देखकर नहीं चलेगा और अपनी दुल्हन को घोड़ी पर ब्याहने जाते दलित की तस्वीर आम होगी। हम वह दिन देखेंगे।

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आशुतोष कुमार सिंह
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