loader

बिहार चुनाव: एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स में बिहार 20 में से 19वें स्थान पर क्यों?

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 की तारीख़ें घोषित कर दी गई हैं। नीतीश कुमार पंद्रह साल से सत्ता में हैं। नीतीश सरकार की शिक्षा-व्यवस्था कैसी रही? नीति आयोग ने पिछले साल स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स जारी किया तो उसमें बिहार देश के बीस बड़े राज्यों में बस झारखंड से ऊपर 19वें स्थान पर था। आख़िर शिक्षा में कौन से काम को लेकर नीतीश वोट माँगेंगे?
समी अहमद

ज़ाहिर है ‘प्रोडिकल साइंस’ कोई साइंस नहीं लेकिन बिहार में 2005 के बाद शिक्षा के क्षेत्र में सबसे चर्चित शब्द शायद यही रहा है। एक छोटी सी कहानी है कि बिहार बोर्ड की एक टाॅपर से जब उसके विषय के बारे में पूछा गया तो उसने पाॅलिटिकल साइंस को इसी नाम से पुकारा था और तब बिहार में शिक्षा और परीक्षा प्रणाली का कच्चा चिट्ठा एक नये अंदाज़ में सामने आया था। 

इसी दौरान की एक तसवीर भी पूरी दुनिया ने देखी थी जिसमें एक नयी इमारत में छिपकलियों की तरह चिपके लोग परीक्षार्थियों को चिट-पुर्जे पहुँचा रहे थे। 

बिहार काफ़ी हद तक इन दो तसवीरों से उबरने में लगा है लेकिन गंभीर बात यह है कि प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा हो या उच्चतर शिक्षा, बिहार की स्थिति बद है और इसके वह बदनाम भी है।

ताज़ा ख़बरें

2005 से पहले लालू-राबड़ी राज में शिक्षा की हालत बाक़ी क्षेत्रों की तरह अच्छी नहीं मानी जाती लेकिन इसके बाद की नीतीश-सुशासन की सरकार की अगर सबसे अधिक बदनामी हुई है तो वह यही शिक्षा का क्षेत्र है। 

पहले वह बात जिसके लिए नीतीश-सुशासन की सरकार अपनी पीठ सबसे अधिक ठोकती है।

नीतीश सरकार ने एक ही साल के बाद क़रीब ढाई लाख नियोजित शिक्षकों को स्कूलों में लगाया। साइकिल और पोशाक के पैसे दिये और स्कूल में दोपहर के भोजन की व्यवस्था की गयी। यह सब हुआ विश्व बैंक संपोषित सर्व शिक्षा अभियान के पैसों से। इस बात की चर्चा कम होती है कि इतने पैसे पहले की सरकारों को उपलब्ध नहीं थे। पिछले दो वर्षों से बिहार में मैट्रिक और इंटरमीडिएट के रिजल्ट पूरे देश में सबसे पहले निकल रहे हैं।

यहाँ तक सबकुछ गुलाबी-गुलाबी लगता है मगर इसके बाद सबकी अपनी-अपनी परेशानी है।

नियोजित शिक्षकों को नियमित वेतन चाहिए और अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कह रहे हैं कि इन्हें नियोजित मत कहिए। मगर उन्हें वेतन वृद्धि के लिए अगले साल अप्रैल तक इंतज़ार करने को कहा गया है। इनका आंदोलन अपनी जगह मगर क्या इनकी बहाली से बिहार की स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार आया है? 

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले नवेन्दु प्रियदर्शी कहते हैं कि 2005 के बाद शिक्षक के रूप में बड़े पैमाने पर नियोजन हुआ। उस वक़्त तो ‘कागज लाओ, नौकरी पाओ’ का हाल था मगर उससे व्यवस्था में गुणात्मक अंतर नहीं आया।

उस समय जिन प्रमाण पत्रों और अंक पत्रों के आधार पर बहाली हुई उनमें से बहुत से फर्जी निकले और हाल तक ऐसे नियोजित शिक्षकों की जाँच होती रही है। उनके पास स्वयं पद छोड़ने या पता लगने पर प्राथमिकी का सामना करने का विकल्प था। काफ़ी संख्या में इसी आधार पर शिक्षकों के पद खाली होते गये।

इसी तरह कई जगहों पर प्राइमरी स्कूलों को मिडिल स्कूल और मिडिल स्कूलों को हाईस्कूल में उत्क्रमित किया गया यानी उनका दर्जा बढ़ाया गया मगर उस हिसाब से शिक्षकों की बहाली बिल्कुल नहीं हुई। इसका नतीजा यह निकला कि कई सालों तक विषयवार शिक्षकों के बिना ही छात्र-छात्राओं ने परीक्षाएँ दीं और वे पास भी हुए, कैसे पास हुए यह सबको पता है।

उन्होंने अपनी बात को समझाने के लिए एक मिसाल दी। समस्तीपुर ज़िले के ताजपुर प्रखंड मुख्यालय में एक स्कूल में बड़ी संख्या में नामांकन हुए लेकिन उनके लिए क्लासरूम उस अनुपात में नहीं बने। इसका नतीजा यह हुआ कि वहाँ यह व्यवस्था करनी पड़ी कि एक दिन लड़के स्कूल आएँगे और एक दिन लड़कियाँ।

इसी तरह गया के सर्वोदय विद्यालय, जेठियन में कृषि विषय की पढ़ाई शुरू की गयी, नामांकन भी हुए और लड़के पास भी हो गये मगर विषय शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई।

नीति आयोग की रिपोर्ट में फिसड्डी 

शिक्षकों के नियोजन, भवनों के रंग-रोगन, साइकिल-पोशाक के पैसों के बावजूद अगर बिहार में शिक्षा व्यवस्था का हाल बुरा माना जाता है तो इसकी पुष्टि नीति आयोग और अन्य रिपोर्ट से भी होती है।

नीति आयोग ने पिछले साल स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स जारी किया तो उसमें बिहार देश के बीस बड़े राज्यों में बस झारखंड से ऊपर 19वें स्थान पर था। हालाँकि संतोष की बात यह थी कि बिहार ने अपने पिछले प्रदर्शन को 7.3 प्रतिशत से बेहतर किया था। लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर और अन्य सुविधाओं में 10.9 प्रतिशत की कमी भी दर्ज की गयी। 

एएसईआर 2018 की रिपोर्ट में बताया गया था कि बिहार में 77.8 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं और 40.9 प्रतिशत स्कूलों में कोई लाइब्रेरी नहीं।

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले सरफराज कहते हैं कि शिक्षक नियोजन एक चुनावी नारा था, वह पूरा हुआ लेकिन सरकार शिक्षा के प्रति कुल मिलाकर उदासीन रही। शिक्षकों की भर्ती हुई मगर वे ख़ुद शिक्षण के लिए प्रशिक्षित नहीं थे। सीधे क्लासरूम में भेजने का जो नतीजा होता था, वही हुआ। सरकार ने इसे बहुत देर से समझा और नौकरी के दौरान ट्रेनिंग देने की जो व्यवस्था की वह अब तक बहुत कारगर नहीं हुई है।

अंग्रेज़ी के शिक्षक एचआर अहमद गल्फ में शिक्षण कार्य कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि एक बार आमस, गया के एक स्कूल में अंग्रेज़ी के टीचर की क्लास देखी। उस टीचर ने बताया कि अभी बड़का अक्षर बता रहे हैं, बाद में नन्हका बताएँगे और अपना हस्ताक्षर भी कैपिटल लेटर में ही किया। उनका कहना है कि यही कारण है कि गाँवों में प्राइवेट स्कूलों की संख्या सरकारी स्कूलों से अधिक है। अब सरकारी स्कूल नामांकन, भोजन, साइकिल, पोशाक और सर्टिफ़िकेट लेने तक सीमित हो गये हैं।

नैक और एनआईआरएफ़ रैंकिंग में ग़ायब 

प्राथमिक शिक्षा की ही तरह उच्चतर शिक्षा का हाल है। कहावत को ज़रा बदल कर कहें तो ‘छोटे मियाँ तो छोटे मियाँ, बड़े मियाँ सुबहान अल्लाह’!

बिहार सरकार के अधीन एक भी विश्वविद्यालय ‘नैक‘ से ए ग्रेड प्राप्त नहीं है। पटना विश्वविद्यालय सन 2000 तक काफ़ी प्रतिष्ठित माना जाता था और यहाँ से जुड़े पटना काॅलेज को यूपीएससी में कामयाबी का सेंटर माना जाता था। इसी तरह पटना साइंस काॅलेज में एडमिशन हर बिहारी का सपना होता था, यहाँ से आईआईटी में कामयाबी का जलवा होता था। मगर अब हालात बिल्कुल अलग हैं। डेढ़ सौ साल से अधिक पुराने पटना काॅलेज को ऑक्सफॅर्ड ऑफ़ द ईस्ट कहा जाता था मगर इसकी मौजूदा नैक ग्रेडिंग सी है। 

एक सौ साल से अधिक पुराने पटना विश्वविद्यालय को बी प्लस ग्रेड से संतोष करना पड़ा है जबकि इसके दो काॅलेजों बीएन काॅलेज और वाणिज्य महाविद्यायल को ग्रेडिंग के लिए अयोग्य करार दिया गया। पटना वीमेंस काॅलेज और कुछ अन्य काॅलेज कुछ हद तक नैक ग्रेडिंग में बिहार की नाक बचाते हैं।

इसी तरह एनआईआरएफ़ की रैंकिंग में बिहार सरकार का कोई संस्थान स्थान नहीं बना पाया है।

बिहार में लंबे समय से शिक्षा पर नज़र रखन वाले वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार कहते हैं कि जब तीस प्रतिशत शिक्षकों के सहारे उच्च शिक्षा चल रही हो तो आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

मिर्ज़ा गालिब काॅलेज में इकाॅनमिक्स के प्रोफ़ेसर अब्दुल कादिर का मानना है कि बिहार में उच्च शिक्षा की हालत जानने का अच्छा तरीक़ा नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट यानी नेट में बिहार के उम्मीदवारों की सफलता दर है जो उनके अनुसार काफ़ी कम है। वह बताते हैं कि हाल में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की जा बहाली हुई है उसमें अधिकतर बिहार के बाहर के उम्मीदवार हैं या बिहार के ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्होंने बिहार से बाहर रहकर पढ़ाई की है। इसीलिए बहाली के बाद उनके बिहार छोड़कर जाने की संख्या भी अच्छी है।

बिहार से और ख़बरें

यूनिवर्सिटी और वीसी

यूनिवर्सिटियों में वीसी की बहाली में राजनीतिक दखल की कहानी तो पुरानी है लेकिन कोरोना के कारण इस बार बिहार में एक बेहद दिलचस्प कहानी सामने आयी। बिहार के एक वीसी को छोड़कर सभी अपने मुख्यालय से बाहर थे। गया काॅलेज, गया में फिजिक्स के प्रोफ़ेसर आफाक अंजर कहते हैं कि वीसी की नियुक्ति बिहार के ही प्रतिष्ठित ईमानदार शिक्षकों में से होनी चाहिए। उनका कहना है कि बिहार के बाहर के वीसी को राज्य की स्थिति का सही अंदाज़ा नहीं रहता है और ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों से आये विद्यार्थियों के हिसाब से यूनिवर्सिटी की सोच नहीं बन पाती। इत्तिफ़ाक़ है कि शनिवार को जिन छह नये वीसी की घोषणा हुई उनमें से चार बिहार के हैं।

बिहार की अधिकतर यूनिवर्सिटी की पहचान जातिवाद के लिए जैसी थी, 2005 के बाद उसमें कोई ख़ास अंतर नहीं आया। अब भी बिहार के लोगों से पूछा जा सकता है कि किसी यूनिवर्सिटी में किसी जाति का वर्चस्व है।

मगध विश्विविद्यालय का डिग्री घोटाला कई अनुसंधान से गुजरा, हालाँकि उसका कोई नतीजा नहीं निकला। यहाँ से बौद्ध अध्ययन में सैकड़ों पीएचडी डिग्री जारी की गयी लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शायद ही इसमें से कोई चर्चा का विषय बना। यह ज़रूर हुआ कि थाईलैंड ने मगध यूनिवर्सिटी की चालीस डिग्रियों को अमान्य क़रार दिया तो इसकी ख़बर पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

उपाय क्या है?

एआईएफ़यूसीटीओ- ऑल इंडिया फ़ेडरेशन ऑफ़ यूनिवर्सिटी एंड काॅलेज टीचर्स ऑर्गेनाइजेशंस के महासचिव प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं कि पहले समस्या समझिए। समस्या यह है कि सरकार उच्चतर शिक्षा से हाथ खींचना चाहती है। बिहार के विश्वविद्यालयों में सिलेबस अपडेट नहीं है। आठ हज़ार पद शिक्षकों के खाली थे, तीन हज़ार पर बहाली की घोषणा की गयी और पाँच हज़ार अब भी पद खाली हैं। स्टूडेंट-टीचर अनुपात बिगड़ा हुआ है। वीसी की बहाली में खेल चलता है। एफ़िलिएटेड काॅलेज को ग्रांट देने में खेल चलता है। वहाँ के वेतनमान में अंतर है। इन सबका इलाज है कि राजनैतिक स्तर पर शिक्षा को महत्व दिया जाए। प्रोफ़ेसर अरुण कहते हैं कि जन दबाव के बिना यह संभव नहीं है। बिहार में शिक्षा और ख़ासकर उच्चतर शिक्षा की बदहाली इसके बिना दूर नहीं हो सकती।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
समी अहमद
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

बिहार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें