हमारे अंदर का बच्चा बड़ा नहीं होता है। बचपन में ख़ुद पर बीती गई बात को हम भूल नहीं पाते और वही कड़वी, अच्छी और विभिन्न संवेदनाओं से जुड़ी बातें हमारा निर्माण करती हैं, या... अगर यूँ कहें कि यही यादें या घटनाएँ हम पर हावी रहती हैं। अगर बचपन की यादों में कड़वाहट, घिनौनापन या किसी अन्य भी प्रकार की नकारात्मक बातें हों तो... वो हमें ‘विक्टिमहुड’ की ओर ले जाती हैं… अगर सुनहरी, रंगीन और बेहद हसीन यादें हों तो नोस्टाल्जिक बना देती हैं। दोनों ही परिस्थितियों में जो हमें होना चाहिए वो नही होते हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है… ये विक्टिमहुड ही वह सीढ़ी है जिससे होकर हम पूर्णता की ओर गमन करते हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में हम एक अलग तरीक़े की बेचैनी से गुज़रते हैं, एक बदहवासी में ख़ुद को खोने लगते हैं लेकिन यह बदहवासी कोई मामूली चीज़ नहीं होती है। ये बदहवासी एक ‘इल्हामी दस्तक’ होती है बशर्ते कि इसको पहचानने की हमारी ताक़त हो।