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प्रेमचंद 140 : 13वीं कड़ी : दुराव और नफ़रत से प्रेमचंद का मन दुखता है

कथाकार अपने समय के सत्य और असत्य की पहचान में वक़्त और मेहनत लगाता है। सत्य वह नहीं है, जिसमें प्रेम और अहिंसा न हो। प्रेमचंद का मन दुखता है जब वे देखते हैं कि उनके लोगों में दुराव, नफ़रत और दूसरों पर कब्जा करने की क्षुद्रता बढ़ती जाती है, न्याय, समानता, बंधुत्व का भाव लुप्त होता जाता है। 

अपूर्वानंद
‘युवक को आशावादी मन से लिखना चाहिए,’ उसकी आशावादिता संक्रामक होनी चाहिए, जिसमें कि वह दूसरों में भी उसी भावना का संचार कर सके। मेरे विचार में साहित्य का सबसे ऊँचा लक्ष्य दूसरों को उठाना, उन्नत करना है। हमारे यथार्थवाद को भी यह बात भूलनी न चाहिए। कितना अच्छा कि आप ‘मनुष्यों’ की सृष्टि करें, निर्भीक, सच्चे, स्वाधीन मनुष्य, हौसलेमंद, साहसी मनुष्य, ऊँचे आदर्शों वाले मनुष्य। इस वक्त ऐसे ही आदमियों की ज़रूरत है।’ 

हरिहरनाथ नाम के एक नए लेखक को प्रेमचंद ने यह सलाह दी। इस ख़त में कहा, 

‘सृजनात्मक मन को सृजन करना चाहिए-किसका? चरित्रों को उद्घाटित करने के लिए परिस्थितियों का।’
काम चरित्रों का उद्घाटन है। ऐसा आदमी कोई भी हो सकता है। निर्भीकता, सच्चाई, हौसला, साहस और उच्च आदर्श प्रत्येक के मन में निवास कर सकते हैं। और ये सारे गुण पैदाइशी हों, ज़रूरी नहीं। परिस्थितियाँ हमारे भीतर इन गुणों की लौ उकसा भी सकती हैं। इसलिए किसी भी मनुष्य से आशा नहीं छोड़नी चाहिए। अमृत राय ‘कलम का सिपाही’ में बड़ी मुहब्बत से प्रेमचंद की इस खोज के बारे में लिखते हैं, 

‘शुरू से उनकी तबीयत का यही रंग था और इस वक़्त जब नफ़रत की चिलचिलाती हुई धूप से सब कुछ झुलसा जा रहा था, मुंशीजी कछोटा बाँधे, चुपचाप, धीर-गंभीर मन से उस कड़ी धरती में अपना हल चला रहे थे और बीज बो रहे थे न्याय के, विवेक के, प्रेम और सौहार्द के।’

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क्या ये बीज तुरत फल देनेवाले थे? यह उस वक़्त की बात है जब भारत में जगह-जगह हिंदू-मुसलमान फ़सादात की आग लगी हुई थी। प्रेमचंद इस मुश्किल समय में हर किसी की आत्मा को जगाने की धुन में हैं। अपने आदर्श पुरुष गांधी की तरह। अमृत राय उनकी पात्र मनोरमा के गले से प्रेमचंद की आवाज़ सुनते हैं,
‘आत्मा कुछ न कुछ ज़रूर कहती है, अगर उससे पूछा जाए। कोई माने न माने, यह उसका अख़्तियार है।’

आत्मा का अभ्यास 

अमृत राय ठीक कहते हैं कि अक्सर लोग आत्मा से कुछ पूछते ही नहीं। आत्मा का भी तो अभ्यास करना पड़ता है, वरना वह गूँगी हो जाती है। वही उसकी मौत है।

‘तभी तो मुंशीजी बराबर उसको, तलवार की तरह, पत्थर पर रगड़ते रहते हैं। तलवार की तरह उसका भी पानी तभी तक है जब तक वह लड़ाई के मैदान में है - कमर से खोलकर आपने उसे खूँटी पर टाँगा नहीं कि उसका पानी उतरा।’

आत्मा  हो या विवेक उसके जीवित रहने के लिए ज़रूरी है कि 

‘वह बराबर संघर्ष करती रहे, असत्य से, अविचार से, अपने मन की संकुचित वृत्तियों से…’

कथाकार अपने समय के सत्य और असत्य की पहचान में वक्त़ और मेहनत लगाता है। सत्य वह नहीं है, जिसमें प्रेम और अहिंसा न हो।
प्रेमचंद का मन दुखता है जब वे देखते हैं कि उनके लोगों में दुराव, नफ़रत और दूसरों पर कब्जा करने की क्षुद्रता बढ़ती जाती है, न्याय, समानता, बंधुत्व का भाव लुप्त होता जाता है। अंग्रेजों की हुक़ूमत चली ही जाए तो क्या अगर हम इतने छोटे भावोंवाले समाज बने रहें?
इस वक़्त वे किसी संतुलनवाद के पक्ष में नहीं, हालाँकि वह आज का भारत नहीं है। मुसलिम राजनीति भी उतनी ही प्रभावी है जितनी हिंदू राजनीति। गांधी से संघर्ष दोनों का है। प्रेमचंद इस समय भी फ़र्ज मानते हैं हिंदुओं को समझाने का, उनकी तंबीह करने का।
स्वामी श्रद्धानंद के बारे में उनके नज़रिए का जिक्र करते हुए अमृत राय ही बताते हैं कि उनके देश प्रेम, साहस, आत्म बलिदान के लिए प्रेमचंद के मन में श्रद्धा है, लेकिन हिन्दू संगठन और शुद्धि आंदोलनवाले स्वामी श्रद्धानंद के लिए उनके मन में रत्ती भर सहानुभूति नहीं।
जिहाद के जोश में जब एक मुसलमान ने उनका ख़ून कर दिया तो प्रेमचंद ने आर्यसमाजी पत्र ‘शुद्धि समाचार’ में उनको श्रद्धांजलि दी, लेकिन वह उनके शिक्षा संबंधी काम के हवाले से। उनके संगठन और शुद्धिवाले काम की प्रेमचंद की निगाह में कोई कद्र नहीं, है। अगर कुछ उसके लिए है तो तिरस्कार ही।

साम्प्रदायिकता की समझ

हिन्दू मुसलमान एकता के मामले में प्रेमचंद किसी को रियायत देने को तैयार नहीं। भगत सिंह की फाँसी के बाद होनेवाली हिंसा का विश्लेषण करते हुए वे लिखते हैं, 

‘इस समय जो दंगे हो रहे हैं, उनके कारण राजनैतिक हैं। काशी में एक विदेशी कपड़े के व्यापारी की हत्या ने आग लगायी। कानपुर में मुसलमानों की दुकानें बंद कराने की चेष्टा ने पुआल में चिनगारी का काम किया. ... हम खुद कांग्रेसमैन हैं। आज से नहीं, हमेशा से। असहयोग में हमारा विश्वास है, लेकिन हम कहने से बाज नहीं रह सकते कि कांग्रेस ने मुसलमानों को अपना सहायक बनाने की उतनी कोशिश नहीं की जितनी करनी चाहिए थी। वह हिन्दू सहायता प्राप्त करके संतुष्ट रह गयी। भारत में हिन्दू 22 करोड़ हैं। 22 करोड़ अगर कोई काम करने का निश्चय कर लें तो उन्हें कौन रोक सकता है। हिन्दुओं में इसी मनोवृत्ति ने प्रधानता प्राप्त कर ली।’

साम्प्रदायिकता की समझ को लेकर इतनी स्पष्टता दुर्लभ है। यही स्पष्टता ‘महात्माजी की विजय यात्रा’ शीर्षक निबंध में देखने को मिलती है, 

‘...महात्माजी का उद्देश्य अगर सफल हो सकता है, तो इस तरह कि राष्ट्र की पूरी शक्ति महात्माजी के पीछे हो।’

यह आसान नहीं है क्योंकि,

‘हमारे भाइयों में अब भी एक ऐसा शक्तिशाली तबका है, जो स्वराज्य से डरता है। उसे भय है कि स्वराज्य में हिंदू बहुमत उसे पीस डालेगा। हमारी सारी कोशिश अपने मुसलिम भाइयों की सहानुभूति प्राप्त करने, उनके दिलों से शंका और अविश्वास को मिटाने में लगनी चाहिए। यही हमारे राजनैतिक उद्धार की कुंजी है।’

क्या मुसलमान दुराग्रही हैं? प्रेमचंद दो टूक कहते हैं, 

‘इसे स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति न होनी चाहिए कि मुसलिम  भाइयों की यह शंका तथा अविश्वास केवल दुराग्रह की वजह से नहीं है. उसका कारण वह भेदभाव, वह छूत-विचार, वह पृथकता है, जो दुर्भाग्य से अभी तक पूरे ज़ोर के साथ राज कर रही है। जब हिंदू मुसलमान के हाथ का पानी नहीं पी सकता, तो मुसलमान को कैसे उसपर विश्वास हो सकता है, वह कैसे उसे अपना मित्र और हित-चिंतक समझ सकता है?’

इसका कारण हजारों बरस से उसके सर पर सवार भेद-भाव का भूत सवार है: 

‘हिंदू इस भिन्नता को समझता है और उसे इसे सहने की आदत पड़ी हुई है, वह किसी भी वर्ग का हो, उसे भी किसी न किसी को अछूत समझने का गौरव मिल ही जाता है…’

जो भी हो, मुसलमान 

‘तो यही जानता है कि हिन्दू उसे नीचा समझते हैं और यह कोई भी आत्म सम्मान रखनेवाली जाति नहीं सह सकती। ऐसे विचारों के रखते हुए कोई राष्ट्र नहीं बन सकता और अगर कुछ दिनों के लिए बन भी जाए तो टिक नहीं सकता।’

साहित्यकार इस समय क्या करे? प्रेमचंद महसूस कर रहे थे कि शुभ भावों और विचारों की जगह जब सामाजिक चर्चा में सिकुड़ने लगती है तो घृणा और हिंसा के लिए जड़ ज़माना आसान हो जाता है। वे उर्दू के लेखक हैं, लेकिन हिंदू भी हैं।
हिंदू समाज के प्रति भी उनका दायित्व है। वह है उसे सहिष्णु, उदार, सहानुभूतिशील बनने में उसकी मदद करना। वह आत्मग्रस्त न हो, आत्मकेंद्रित होकर न रह जाए, आत्ममुग्धता उसे जड़ न कर दे। इसके लिए तो दूसरों को जानना, और दूसरों को उनके सर्वोत्तम के सहारे पहचानना ही रास्ता है। इसलिए वे ‘मंदिर और मसजिद’ जैसी कहानी लिखते हैं। साथ ही ‘कर्बला’  की रचना करते हैं। 

साफ़ निगाह और साफ़गोई

प्रेमचंद हिंदुओं को यही बता सकते हैं कि शुभ, पवित्र, उदात्त उनके अलावा और स्थानों पर भी है और इनका अनुभव करने के लिए उनके पास जाना ही होगा। आश्चर्य नहीं कि ‘हिन्दू’ की रचना करनेवाले मैथिलीशरण गुप्त के लिए हज़रत मुहम्मद दिलचस्पी और श्रद्धा के पात्र हैं।

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प्रेमचंद के जिस लेख की (मनुष्यता का अकाल) चर्चा इस श्रृंखला में पहले हो चुकी है, वह उर्दू में ‘कहतुर्रिजाल’ शीर्षक से लिखा गया था। वह मलकाने में शुद्धि अभियान की आलोचना में लिखा गया था। प्रेमचंद मलकाना राजपूतों की शुद्धि के पीछे की तंगनज़री से खफ़ा थे। उनकी निगाह साफ़ थी।

अपने दोस्त और ‘ज़माना’ के सम्पादक को उन्होंने लेख लिखने के समय ही लिखा, 

‘मलकाना शुद्धि पर एक मजमून लिख रहा हूँ। मुझे इस तहरीक से सख़्त इख्तिलाफ़ है। आर्य समाजवाले भिन्नायेंगे, लेकिन मुझे उम्मीद है आप ‘ज़माना’ में इस मजमून को जगह देंगे।’

यह इतना आसान न था। दया नारायण निगम, उनके दोस्त और प्रशंसक, ज़माना उनका अपना रिसाला। फिर भी निगम साहब को इसे प्रकाशित करने में इतनी हिचक थी कि वे पूरे नौ महीने इसपर बैठे रहे। नौ महीने बाद प्रेमचंद ने उन्हें लिखा कि आपने मेरे लेख को रद्द कर दिया 

‘खैर! कोई मुजाइका नहीं। मैंने लिख डाला, दिल की आरजू निकल गयी।’

लिखे जाने के दसवें महीने जाकर लेख छपा और हंगामा उठ खड़ा हुआ। अमृत राय लिखते हैं, 

‘मुसलमानों ने उसको हाथो हाथ लिया और हिन्दू गुस्से से दांत कटकटाने लगे।’

इस लेख में हिन्दुओं की तीखी आलोचना थी। वे लिखते हैं, 

‘हिन्दुओं में इस वक़्त गंभीर नेताओं का अकाल है। हमारा नेता वह होना चाहिए जो गंभीरता से समस्याओं पर विचार करे। मगर होता यह है कि उसकी जगह शोर मचानेवालों के हिस्से में आ जाती है जो अपनी ज़ोरदार आवाज़ से जनता की छिपी हुई भावनाओं को उभाड़कर उनपर अपना अधिकार जमा लिया करते हैं। वह कौम को दरगुज़र करना नहीं सिखाता, लड़ना सिखाता है...कोई आदमी ऐसी उल्टी बुद्धि का नहीं हो सकता कि उसे इस नाज़़ुक मौके पर दोनों सम्प्रदायों की आपसी खींच-तान के नतीजे न दिखायी दें और अगर है तो हमें उसकी सद्भावना में संदेह है।’

राजनीति में अगर कोई प्रेमचंद की इस साफ़ निगाह और साफ़गोई की बराबरी कर सकता है तो वह सिर्फ गांधी।

कोई नैतिक दुविधा दोनों को नहीं और इसीलिए इस लेख में प्रेमचंद यह लिख पाते हैं, 

‘अगर धर्म का आदर करना अच्छा है तो हर हालत में अच्छा है। इसके लिए किसी शर्त की ज़रूरत नहीं। अच्छा काम करने वालों को सब अच्छा कहते हैं। दुनियावी मामलों में दबने से आबरू में बट्टा लगता है, दीन-धर्म के मामले में दबने से नहीं। गोकुशी के मामले में हिन्दुओं ने शुरू से अब तक एक अन्यायपूर्ण ढंग अख़्तियार किया है। हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें, लेकिन यह उम्मीद करना कि दूसरे धर्म को माननेवाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझे खामखाह दूसरों से सर टकराना है। गाय सारी दुनिया में खायी जाती है, उसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने के काबिल समझेंगे?’  

आगे वे और सख़्त अंदाज में लिखते हैं, 

‘अगर हिन्दुओं को अभी भी यह जानना बाकी है कि इन्सान किसी हैवान से कहीं ज़्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो अभी उन्होंने सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी।’

नया मन, नयी साफ़ मिट्टी, नया पानी

आज भी बड़े से बड़ा विचारक हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों के मुक़ाबले, ख़ासकर सामी धर्मों के मुकाबले श्रेष्ठ ठहराकर मशविरा देता है कि उसे उनकी तरह संकीर्ण नहीं हो जाना चाहिए। प्रेमचन्द ऐसी किसी गफ़लत के शिकार नहीं। भारत में हिन्दुओं के आचरण से लगता यही है कि अभी उन्हें सभ्यता का ककहरा पढ़ना बाकी है। प्रेमचन्द इस मामले में समझौताविहीन हैं, कठोर हैं और कोई रियायत नहीं बरतते।

प्रेमचन्द अपना कर्तव्य मानते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों को क़रीबतर करें। ‘मनुष्यता का अकाल’ इसी कारण लिखा गया था।

 इसी वजह से ‘कर्बला’ नाटक की रचना हुई। नाटक की भूमिका में प्रेमचंद ने लिखा, 

‘कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य का एक कारण यह है कि हम हिन्दुओं को मुसलिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं।’

जैसे उस लेख को लेकर हिचक थी, इस नाटक को लेकर भी उलझन हुई। इसलिए कि प्रेमचन्द के इस नाटक में कर्बला की लड़ाई में कुछ हिन्दुओं को भी मुसलमानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते हुए दिखलाया गया। निगम साहब ने इसे छापने में हीला हवाला किया तो प्रेमचंद ने लिखा, 

‘बेहतर है कर्बला न निकालिए. ..मैंने हज़रत हुसेन का हाल पढ़ा, उनसे अकीदत हुई, उनके जौके शहादत ने मफ्तूं कर लिया। उसका नतीजा यह ड्रामा था। अगर मुसलमानों को मंजूर नहीं है कि किसी हिन्दू की ज़बान या कलम से उनके किसी मजहबी पेशवा या इमाम की मदहसराई भी हो तो मैं इसके लिए मुसिर नहीं हूँ।’

क्या प्रेमचंद ने अपना रुख बदल दिया जो मुसलमानों ने उन्हें निराश किया? अमृत राय को ही सुनते हैं और अपने बारे में गुनते हैं, 

‘ठेस लगी। गहरी ठेस लगी उर्दू ‘कर्बला’ को लेकर, कुछ अंदाजा हुआ कि खाई कितनी गहरी है, ज़हर कितना ज़हरीला है। 

 ... कठिन काम है, टेढ़ा काम है, इसीलिए तो और भी करना है। इन छोटे मोटे झटकों से उसका क्या बनता बिगड़ता है। जिस रास्ते को एक बार समझकर पकड़ लिया उसपर तो फिर चलना होगा आखिर तक... वह तो निर्मम संघर्ष का रास्ता है, हर झूठ के खिलाफ, हर पाखंड के ख़िलाफ़, सच्चाई की तह तक पहुँचने के लिए। न इसके साथ मुरौवत, न उसके साथ। मन के भीतर विष की गाँठ है, सबके.उसको पहले काटना होगा. फिर नए मन की रचना करनी होगी, नयी साफ़ मिट्टी से, साफ़ पानी से…’

नया मन, नयी साफ़ मिट्टी, नया पानी, यानी प्रेमचन्द! 
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