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शीतला सिंह: 'पत्रकारिता उद्यम या व्यवसाय है तो मुझे याद न किया जाये'

‘आज की तारीख़ में यह देखकर बहुत अफसोस होता है कि पत्रकारिता की मार्फत जितनी जन-जागरूकता हम लाना चाहते थे, नहीं ला पाये। लेकिन फिर सोचता हूँ कि यह असफलता मेरी अकेले की नहीं, सामूहिक है। इस क्षेत्र में व्यावसायिकता और लाभ का सारी नैतिकताओं से ऊपर होते जाना देखकर भी अफसोस होता है। मेरे देखते ही देखते मूल्य आधारित (वैल्यूवेस्ड) और जनपक्षधर पत्रकारिता की अलख जगाने वाले सम्पादकों की पीढ़ी समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी और अपनी निजी उपलब्धियों के लिए चिन्तित रहने वाले लोग चारों ओर छा गये। वे निजी लाभों के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं और सबसे अफसोसजनक यह है कि अब सम्पादक नाम की संस्था ही लुप्त होने के कगार पर है।’

देश में भारतीय भाषाओं के नामचीन सम्पादकों व पत्रकारों में शुमार शीतला सिंह के गत मंगलवार को अयोध्या के एक अस्पताल में अंतिम सांस लेने के साथ हिन्दी की पत्रकारिता ने क्या-क्या खोया है और वह कितनी निर्धन होकर रह गई है, इसे अपनी सक्रियता के दिनों में उनके द्वारा एक अनौपचारिक बातचीत में इन पंक्तियों के लेखक से कही गई इन बातों से समझा जा सकता है।

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यों, बाद के दशकों में उनके पत्रकारीय एक्टिविज्म ने उनके व्यक्तित्व के इतने नये आयाम विकसित कर दिये थे कि जनमोर्चा का सम्पादक होना उनका अधूरा परिचय होकर रह गया था। इस तथ्य के बावजूद कि इस दौरान उनके द्वारा जनमोर्चा की मार्फत विकसित की गई अनूठी वस्तुनिष्ठ व प्रतिरोधी पत्रकारिता का देश में शायद ही कोई जोड़ या तोड़ रहा हो। कोई साठ साल के उनके सम्पादन काल में ही जनमोर्चा ने अपनी हीरक जयंती मनाई और जानकारों के मुताबिक वे दुनिया के सबसे लम्बे कार्यकाल तक पद पर बने रहने वाले सम्पादक बने। उनका यह कार्यकाल कम से कम दो पीढ़ियों में फैला था और भारत चीन युद्ध के दौरान जनमोर्चा के एक सम्पादकीय को सरकार के युद्ध प्रयत्नों में बाधक करार देकर उसके संस्थापक सम्पादक महात्मा हरगोविन्द को जेल भेज दिये जाने के बाद की बेहद असामान्य परिस्थितियों में उन्हें प्राप्त हुआ था।

लेकिन उनका एक्टिविज्म इन परिस्थितियों से भी कहीं ज़्यादा असामान्य था और उसी की बिना पर वे कोई चार दशकों तक अयोध्या में समाजवादी विचारक डाॅ. राममनोहर लोहिया की परिकल्पना वाले रामायण मेलों के आयोजन के सूत्रधार और चार बार प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य भी रहे। अयोध्या विवाद की उग्रता के दिनों में अयोध्या, साथ ही देश को, झुलसने से बचाने के लिए एक के बाद एक चलते रहने वाले उसके समाधान के प्रयासों का हिस्सा होने के कारण वे उसकी रग-रग से वाकिफ हो चले थे। उन बाधाओं से भी जो समाधान की हर उम्मीद को किसी न किसी मोड़ पर नाउम्मीद कर डालती थीं। उनकी यह वाकफियत ऐसी थी कि कई लोग उन्हें उस मामले का विशेषज्ञ करार देने लगे थे। 

लेकिन अपनी अलग तरह की नैतिकता के तहत उन्होंने इस विशेषज्ञता का किसी भी स्तर पर कोई लाभ उठाने से हमेशा परहेज बरता। इसकी सीढ़ियाँ चढ़कर सत्ताधीशों तक अपनी पहुँच का कोई लाभ लेना भी उन्होंने गवारा नहीं ही किया। यहाँ तक कि इस बाबत एक पुस्तक लिख डालने के अपने प्रशंसकों के अनुरोध को भी तब तक टालते रहे जब तक कि यह सुनिश्चित नहीं कर लिया कि अब उनके लिखने से न उन्हें किसी तरह का कोई लाभ मिलेगा, न किसी और को, न ही उनके लिखे से किसी की हित हानि होगी।
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इसके बावजूद कुछ साल पहले उनकी ‘अयोध्या: रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ शीर्षक से विवाद के अनेक सत्यों, तथ्यों व साक्ष्यों को सामने लाने वाली पुस्तक प्रकाशित हुई तो समाधान प्रयासों में बाधक बनती रही राजनीतिक-धार्मिक, साम्प्रदायिक जमातों व नेताओं ने खुद को बहुत निर्वसन महसूस किया। साफ़ कहें तो इन नेताओं व जमातों में कांग्रेसी भी थे, संघ परिवारी भी और उन सबको शीतला सिंह की इस स्थापना से बहुत दिक्कत थी कि अयोध्या विवाद के अदालत के बाहर समाधान के प्रायः सारे प्रयास इसलिए विफल हो जाते रहे क्योंकि वे उसे दो धर्मों के बीच या उनकी आस्थाओं का विवाद मानकर सोचे व ढूंढ़े जाते रहे, जबकि यह राजनीति द्वारा धर्मों व धार्मिक भावनाओं का दोहनकर सत्ता व शक्ति अर्जित करने की शातिर कोशिशों से पैदा हुआ था और स्वाभाविक ही उसकी जड़ में धर्म नहीं, धर्मों के इस्तेमाल की राजनीति थी और वही उसे लगातार जटिल बनाती रही थी।

दो शताब्दियों में फैले साढ़े नौ दशक लम्बी शीतला सिंह की जीवन यात्रा में विचलनों व अंतर्विरोधो की भी कमी नहीं रही है।

इसे यों समझ सकते हैं कि उत्तर प्रंदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने अपने सत्ताकाल (1885-1988) में उन्हें राज्य विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करके उपकृत करना चाहा तो उन्होंने अपनी पत्रकारिता का ऐसा लाभ लेने को अपने उसूलों व नैतिकताओं के खिलाफ बताकर बेहद तुर्शी से कह दिया कि आप यह उपकार अपने किसी लगुए-भगुए पर कीजिए, मैं अपने सम्पादनकर्म को विधानपरिषद में अपने मनोनयन से ज़्यादा महत्वपूर्ण व जनहितकारी मानता हूं और उसी में मगन हूँ।

लेकिन बाद में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री हुए तो इन्हीं शीतला सिंह ने उनकी सरकार द्वारा प्रायोजित यशभारती पुरस्कार तो ग्रहण किया ही, उनके बेटे अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रीकाल में इस सम्मान से विभूषित विभूतियों को मासिक पेंशन देने की योजना शुरू हुई, तो वह पेंशन भी ली, जब तक कि अखिलेश की बेदखली के बाद आई योगी आदित्यनाथ की सरकार ने उसे बन्द ही नहीं कर दिया। अलबत्ता, इसके बावजूद वे अपने कम्युुनिस्ट या वामपंथी होने में फख्र की अनुभूति करते थे।

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लेकिन बात इतने तक ही सीमित नहीं है। उनके द्वारा सम्पादित ‘जनमोर्चा’ पांच दिसम्बर, 1958 को उसके संस्थापक सम्पादक (दूसरे शब्दों में पीर बावर्ची भिश्ती खर सब) महात्मा हरगोविन्द की अगुआई में मात्र 75 रुपये की पूंजी से आरंभ हुआ था। ये 75 रुपये की पूंजी भी उसके कई शुभचिन्तकों के सहयोग से जुट पाई थी। फिर भी वह अरसे तक गर्व से सिर उठाकर इस नीति पर चलता रहा कि न अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए सरकारी सहायता लेगा, न ही सरकारी अनुदान। इसके उलट अपने हर तरह के संकट के निवारण के लिए अपनी जनता के सहयोग व समर्थन पर निर्भर करेगा। लेकिन बाद में उसने चुपके से अपनी यह नीति त्याग दी। अलबत्ता, सारी शक्तियां कुछ हाथों में ही केन्द्रित होने से बचाने के लिए उसके स्वामित्व का जो सहकारी स्वरूप निर्धारित किया गया था, वह अभी तक चला आता है। 

वैसे ही जैसे प्रवाह के विपरीत तैरने की शीतला सिंह की आदत उनके आखिरी क्षणों तक बनी रही। 

वे प्रायः कहा करते थे कि नदी की धारा के साथ तो मरी हुई मछलियां ही बहती हैं। जब तक उनमें जीवन रहता है, वे उसके प्रवाह को चीरती रहती हैं और जब तक चीरती रहती हैं, कोई उनके जिन्दा रहने पर संदेह नहीं करता।

उनकी एकमात्र इच्छा थी कि वे अपनी आखिरी सांस तक सक्रिय रहें और लम्बे अरसे से बीमार होने के बावजूद उन्होंने अपनी दृढ इच्छाशक्ति से इसे संभव कर दिखाया। मंगलवार को अपने आखिरी दिन भी वे जनमोर्चा आये और लौटकर घर गये तो थोड़ी बेचैनी की शिकायत की और थोड़ी ही देर में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

फिर उस बातचीत का ज़िक्र करें, जिसका शुरू में कर आये हैं तो उन्होंने यह भी कहा था कि अगर पत्रकारिता उद्यम या व्यवसाय है, तो उसमें कहीं कुछ भी ऐसा नहीं जिसके लिए मुझे याद किया जाये। लेकिन वह जनता के लिए है तो मुझे इस बात के लिए याद किया जा सकता है कि मैंने हर मौके पर वॉच-डॉग-ऑफ पीपुल के तौर पर उसका इस्तेमाल किया और जनमोर्चा को पब्लिक फोरम ऑफ ग्रीवांसेज बनाए रखा। हालाँकि इस दौरान संकट भी कम नहीं आये। उम्र के इस मोड़ पर पहुंचकर मुझे इसका संतोष है कि मैं सारी उम्र जनाधिकारों की चौकसी करता रहा। अब वे नहीं हैं तो यकीनन यह चौकसी उनके बाद की पीढ़ी की विरासत है।

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक रहे हैं और स्व. शीतला सिंह के निकट सहयोगी थे।)
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कृष्ण प्रताप सिंह
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