जिस दिन भारतीय स्टेट बैंक ने अदालती डाँट-फटकार के बाद गोपनीय कोड का मिलान करके चुनावी बॉन्ड के लाभार्थियों के नाम जारी किए, जिसमें कई सौ करोड़ रुपए का चन्दा बेनामी ही रहा, उस दिन ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का गिरफ़्तार होना संयोग हो सकता है। उससे पहले अदालत ने उनकी कोई अर्जी ठुकराई थी जिससे गिरफ़्तारी संभव थी और प्रवर्तन निदेशालय नौ समन भेजकर गिरफ़्तारी की भूमिका ही नहीं, तैयारी भी कर चुका था। और जो अरविन्द केजरीवाल और उनके वकील बार बार यही पूछते रहे थे कि उनको समन ‘गवाही’ के लिए दिया जा रहा है या ‘आरोपी’ के तौर पर, उन्हें निदेशालय ने दिल्ली शराब घोटाले का मुख्य साजिशकर्त्ता बताकर अदालत से हिरासत मांगा और मिल गया। यह कहानी का एक हिसाब है और इसमें संयोग और प्रयोग दोनों का घालमेल है। पर जिस तरह से इस गिरफ़्तारी ने चुनावी बॉन्ड के हजारों करोड़ के मामले के श्वेत-श्याम पक्षों की चर्चा को पीछे छोड़ दिया वह संयोग नहीं है। बॉन्ड वाली कथा के विभिन्न पक्षों को कई अख़बार, साइट और विपक्षी दल के रणनीतिकार बार बार उजागर करके भाजपा को घेरना चाहते हैं तो भाजपा और सरकार का तंत्र इसे अब भी परदे के पीछे घसीट लेने का प्रयास जारी रखे हुए है।
चुनावी बॉन्ड से ज़्यादा चर्चा केजरीवाल की गिरफ्तारी पर क्यों?
- विचार
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- 26 Mar, 2024

दिल्ली आबकारी केस मामले में दो साल से ज्यादा की मुस्तैदी के बावजूद ईडी अभी तक पैसे के लेन-देन का कोई प्रमाण क्यों नहीं ला पाई है? और चुनावी बॉन्ड की जानकारी सामने आने के दिन ही केजरीवाल की गिरफ्तारी क्यों?
और उसकी कोशिशों से भी ज्यादा केजरीवाल कांड हर चर्चा में ज्यादा प्रभावी होकर इस मसले को दूसरे स्थान पर धकेल रहा है। चुनावी बॉन्ड का लाभ पाने वालों की सूची जाहिर होने से यह भी पता चला कि जिस समूह का नाम इस घोटाले में आ रहा है उसने भाजपा को भी चंदा दिया- वह भी इडी और सरकारी धर-पकड़ वाले दबाव के बाद दिया। लेकिन यह जानकारी भी भाजपा को बैकफूट पर लाने में ज्यादा सफल नहीं है। किसी मुख्यमंत्री द्वारा जेल से सरकार चलाने का मामला ऐसा है ही।